“डार्लिग, मैं अभी पांच मिनट में डिस्ट्रिक्ट हॉस्पिट्ल से होकर आता हूँ, दीनानाथ चपरासी की हालत बहुत खराब है।”
“ओह शिट ।” पत्नी ने मेरी ओर देखकर बुरा-सा मुँह बनाया, “तुम आज फिर मेरा संडे स्पॉयल करोगे। आयम जस्ट फैडअप विद योर ऑफिसवालाज्।”
“ऑफिस का हैड होने के नाते थोड़ा दिखावा तो करना ही पड़ेगा---मैं ये गया वो आया। तुम पिकनिक के लिए तैयार रहो, हम ठीक ग्यारह बजे निकलेंगे।”
मेरा अपना मूड भी खराब हो गया था-अरे भाई, तबीयत ज्यादा खराब है तो मैं क्या करूँ। मैं इन लोगों की नस-नस से वाकिफ हूँ---रुपयों की ज़रूरत होगी---बहाने से बुला रहे हैं---साहब के पास तो रुपयों का पेड़ लगा है।
पार्किंग पर पहँचकर मैंने कार में बैठे-बैठे ही अपना बटुआ निकाला, उसमें से पाँच सौ रुपए निकालकर कमीज के ऊपर वाली जेब में रख लिए। इन लोगों के सामने सारे रुपए निकालना खतरे से खाली नहीं था।
सर्जिकल वार्ड के बेड नंबर तेरह पर दफ्तर वालों की भीड़ काई की तरह फट गई। बेड पर पड़े व्यक्ति को सिर तक चादर ओढ़ा दी गई थी---मतलब-खलास। मैंने सोचा।
“साहब हैं---साहब्।” शव के पास बैठे दीनानाथ के पिता को दफ्तर वालों ने बताया।
“हौसला रखो--- ऊपर वाले को यही मंजूर था।” मैंने हाथ जोड़ दिए।
“आप---इतने बड़े साहब---हमारे लिए कष्ट उठाए।” बूढ़ा हाथ जोड़े मेरे सामने खड़ा था। उसकी आँखों से टपकते आँसू दाढ़ी में गुम हो रहे थे। मुझे लगा, बुड्डढा अच्छी नौंटकी कर लेता है---बेटा तो चल बसा, अब मेरे आगे गिड़गिड़ाने का एक ही मतलब हो सकता है---आर्थिक मदद। मैं मन ही मन हँसा।
टैक्सी आ गई थी। दीनानाथ के बीवी-बच्चे गाँव में थे। इसलिए उसका अंतिम संस्कार भी गाँव में करने का निर्णय लिया गया था। यह सुनकर मुझे लगा। तभी एक विचार दिमाग में कौंधा-अब दीनानाथ की मृत्यु के बाद उसके पिता को दिए गए रुपयों की उम्मीद रखना तो बेवकूफी होगी। मैंने दफ्तर वालों से ‘एक्सक्यूज मी’ कहा और टॉयलेट की ओर चल दिया। वहां पहुँचकर ऊपर वाले पॉकेट में दो सौ रुपए खर्च कर देने में मुझे कोई नुकसान नज़र नहीं आया।
दीनानाथ का शव टैक्सी में रखा जा चुका था। बूढ़ा फिर मेरे पास आ खड़ा हुआ था।---अब रुपए माँगेगा---मैंने सोचा।
“बड़ी मेहरबानी!” उसने हाथ जोड़कर मेरे आगे सिर झुकाया। उसके पुराने कपड़ों से वार्ड वाली बदबू आ रही थी। मैं नाक पर रूमाल रखते-रखते रुक गया। मैंने जल्दी से हाथ जोड़ दिए। वह काँपते कदमों से टैक्सी में बैठ गया, बच्चू को रुपए माँगने की हिम्मत नहीं हुई।
टैक्सी के जाते ही मैंने घड़ी देखी, साढ़े दस बजे थे। शेव मैं सुबह ही बना चुका था, यदि नहाने का कार्यक्रम कट किया जाए तो अभी भी निर्धारित समय पर पिकनिक के लिए निकला जा सकता है। कार में बैठते ही मुझे ऊपर के पाकेट में दो सौ रुपयों का धयान आया। मैंने धीरे से जेब टटोलकर देखा- दोनों नोट सुरक्षित थे।
1 comment:
मैं तो आपका फैन हूँ सुकेश जी . बहुत बढ़िया लिखते हैं आप .अपने ब्लॉग पर मैंने आपका लिंक भी डाल दिया है.
ऐसे ही लिखते रहें .
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