Sunday, May 6, 2007

ठंडी रजाई



कौन था ?” उसने अँगीठी की ओर हाथ फैलाकर तापते हुए पूछा ।
“वही, सामने वालों के यहाँ से,” पत्नी ने कुढ़कर सुशीला की नकल उतारी, “बहन, रजाई दे दो, इनके दोस्त आए हैं।” फिर रजाई ओढ़ते हुए बड़बड़ाई, “इन्हें रोज़-रोज़ रजाई माँगते शर्म नहीं आती। मैंने तो साफ मना कर दिया- आज हमारे यहाँ भी कोई आने वाला है।”
“ठीक किया।” वह भी रजाई में दुबकते हुए बोला, “इन लोगों का यही इलाज है ।”
“बहुत ठंड है!” वह बड़बड़ाया।
“मेरे अपने हाथ-पैर सुन्न हुए जा रहे हैं।” पत्नी ने अपनी चारपाई को दहकती अँगीठी के और नज़दीक घसीटते हुए कहा ।
“रजाई तो जैसे बिल्कुल बर्फ हो रही है, नींद आए भी तो कैसे!” वह करवट बदलते हुए बोला ।
“नींद का तो पता ही नहीं है!” पत्नी ने कहा, “इस ठंड में मेरी रजाई भी बेअसर सी हो गई है ।”
जब काफी देर तक नींद नहीं आई तो वे दोनों उठकर बैठ गए और अँगीठी पर हाथ तापने लगे।
“एक बात कहूँ, बुरा तो नहीं मानोगी?” पति ने कहा।
“कैसी बात करते हो?”
“आज जबदस्त ठंड है, सामने वालों के यहाँ मेहमान भी आए हैं। ऐसे में रजाई के बगैर काफी परेशानी हो रही होगी।”
“हाँ,तो?” उसने आशाभरी नज़रों से पति की ओर देखा ।
“मैं सोच रहा था---मेरा मतलब यह था कि---हमारे यहाँ एक रजाई फालतू ही तो पड़ी है।”
“तुमने तो मेरे मन की बात कह दी, एक दिन के इस्तेमाल से रजाई घिस थोड़े ही जाएगी,” वह उछलकर खड़ी हो गई, “मैं अभी सुशीला को रजाई दे आती हूँ।”
वह सुशीला को रजाई देकर लौटी तो उसने हैरानी से देखा, वह उसी ठंडी रजाई में घोड़े बेचकर सो रहा था । वह भी जम्हाइयाँ लेती हुई अपने बिस्तर में घुस गई । उसे सुखद आश्चर्य हुआ, रजाई काफी गर्म थी।
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