Saturday, July 7, 2007

सुकेश साहनी का लघुकथा संसार


जगदीश कश्यप
आठवें दशक में हिन्दी लघुकथा के पुनरुत्थान में जिन हस्ताक्षरों ने अपनी लेखकीय अस्मिता को दाँव पर लगाया और उसे साहित्यिक ऊँचाई प्रदान की, उनमें से अधिकतर किसी–न–किसी परिस्थितिवश लघुकथा क्षेत्र से तिरोहित होते दीखते हैं। मोहन राजेश, रमेश बतरा, सिमर सदोष, कमलेश भारतीय,मधुप मगधशाही, लक्ष्मेन्द्र चोपड़ा व कृष्ण कमलेश इसी कोटि में रखे जा सकते है। भगीरथ,डॉ0 सतीश दुबे, बलराम अग्रवाल,नीलम जैन, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ जैसे इने–गिने नाम ही रह गए हैं ,जो लघुकथा के विकास में अब भी सक्रिय हैं।
ऐसे में लघुकथा नौवें दशक के लघुकथा लेखकों में अपना भविष्य स्थापित करने को बेचैन दिखाई देती है। नौवें दशक के शुरू में कुछ ऐसे नाम उभर कर सामने आए हैं, जिन्होंने आठवें दशक के लेखकों द्वारा लघुकथा के स्थापित मानदण्डों को और सुदृढ़ किया है। ऐसे इने–गिने नामों में सुकेश साहनी का नाम बेहिचक लिया जा सकता है।
सुकेश साहनी नये यद्यपि आठवें दशक में ही लघुकथा लेखन आरम्भ कर दिया था, जब उनकी रचनाएँ डॉ0 हरिवंशराय बच्चन के अतिथि सम्पादन में अक्ष–1977 में छपी थीं लेकिन साहनी का लघुकथा लेखन में क्रमबद्ध शुरूआत 1984 से ही मानी जानी चाहिए, जब सारिका के लघुकथा विशेषांक में डरे हुए लोग शीर्षक लघुकथा छपी थी; जो काफी सराही गई।
सुकेश ने तेरह वर्ष की आयु में ही लिखना शुरू कर दिया था। पन्द्रह वर्ष की आयु में सुकेश साहनी को पाकेट बुक्स जगत के दो दिग्गज उपन्यासकारों, सर्वश्री ओमप्रकाश शर्मा एवं वेद प्रकाश काम्बोज का सत्संग एवं मार्गदर्शन मिला। उस दौर में सुकेश ने आठ उपन्यास लिखे जिनमें से दो ज्ञानाश्रय प्रकाशन से प्रकाशित भी हुए। तार्किक स्तर की बाल–रचनाएँ धर्मयुग ने लगातार छापीं तथा कहानियों की शुरूआत मुक्ता से हुई। इस तरह के लेखन से सुकेश कतई संतुष्ट नहीं थे और व्यावसायिक दृष्टिकोण वाले लेखन को छोड़कर इन्होंने लघुकथा में चुनौतीपूर्ण लेखन करने की सोची, जिसमें राष्ट्रीय व प्रादेशिक स्तर पर साहित्यिक पहचान की गुंजाइश भी अपेक्षाकृत कम है। इस मायने में सुकेश का लघुकथा–लेखन वास्तव में उनकी लघुकथा के प्रति सच्ची प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
1984 में ही मिनीयुग पत्रिका के कारण सुकेश का मुझसे सम्पर्क हुआ तो लगा कि बहुत बरसों बाद मुझे ऐसा लेखक मिला, जो एक दिन लघुकथा की मर्यादा को नयी ऊँचाई देगा। मेरी इस अवधारणा को सुकेश ने साकार कर दिखाया है। नौवें दशक के निराशाजनक लघुकथा–लेखन में सुकेश की लघुकथाएँ कीचड़ में कमल की तरह खिली नजर आती हैं, जिन का प्रस्फुटन नैसर्गिक और मुग्धकारी है।
सुकेश साहनी ने जानबूझकर लघुकथा को ही अपने लेखन का आधार बनाया है। अत: इनकी तमाम रचनाओं में कहानी की–सी विराट शक्ति, काव्य के अद्भुत बिम्ब, ढहते हुए सामाजिक मूल्यों पर चिंता, ग्राम संस्कृति का भोला–भाला जीवन, जहरीले रेडियम की तरह चमकती शहरी सभ्यता के खोखले अहम् के पीछे भागते कस्तूरी मृग जैसे लोग व निम्न मध्यवर्ग की सारी पीड़ा और निराशा के साक्षात् दर्शन होते है। ऐसा इस कारण भी सम्भव हो पाया है कि इन्होंने विश्व के प्रसिद्ध लेखकों के कथा–साहित्य का भरपूर अवगाहन किया है।
सुकेश साहनी की सारी रचनाएँ अलग–अलग दिशाओं के मील के वे पत्थर हैं जहाँ से भारतीय समाज की सोच, उत्थान–पतन और अधिकारी वर्ग की नैतिकता को परखा जा सकता है।
इस संग्रह की तमाम रचनाओं पर टिप्पणी करना न तो सम्भव है और न ही वांछनीय है। कारण, इन रचनाओं को पढ़ते वक्त आपको लगेगा कि रचनाओं के पात्र आपसे रू–ब–रू हैं। चूंकि लघुकथा को आज भी हिन्दी के समीक्षक एक अनचाहे रूप में लेने का मजबूर हैं, अत: सुकेश की रचनओं पर टिप्पणी करना और भी जरूरी हो जाता है।
सुकेश साहनी की तमाम रचनाएँ पढ़ने के बाद यही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि इन्होंने सीधी–सादी रचनाओं में एक प्रकार का प्रयोग किया है, जो इन्हें दूसरे लघुकथा लेखकों से अलग करता है। इनका अंदाजे–बयां मूलत: लघुकथा का ही है–बेशक उसमें कोई लम्बी कहानी तलाश ली जाए या पुरजोर बहस छेड़ दी जाए। सम्प्रेषणीयता को बनाए रखने की बेचैनी इनकी रचनाओं का प्रतिपाद्य है।
यद्यपि सुकेश साहनी का रचना संसार दस वर्ष से भी कम का है, लेकिन इनकी एक–एक रचना अपने–आप में बहस का विषय है। इनकी लघुकथाओं को निम्न में वर्गीकृत किया जा सकता है।
एक–जड़बद्ध सामाजिक रूढि़यों पर चोट और निम्न मध्यमवर्गीय कुण्ठा जनित विवशताओं का उद्घाटन: गोश्त की गंध,आदमजाद, तृष्णा,पितृत्व, दादाजी, स्कूटर आदि।
दो–रागात्मक सम्बन्धों के खोखलेपन, झूठे स्टेटस सिंवल की विवशता और सांस्कृतिक चारित्रिक संकट के प्रति अभिव्यक्ति: मोहभंग, गाजर घास, इमीटेशन, हारते हुए, तंगी, पैण्डुलम, अपने–अपने सन्दर्भ आदि।
तीन–राजनैतिक/प्रशासनिक दबाबों की बानगी के बहाने भ्रष्ट प्रशासन और योजनातंत्र पर चोट: भेडि़ये, सोडावाटर, नीति–निर्धारक, श्रेयपति, टेक इट इजी, यम के वंशज, जनता का खून, चतुर गांव, चक्रव्यूह, मास्टर प्लान आदि।
चार–सामाजिक मनोविज्ञान को अपने ढंग से पढ़ने की नायाब कोशिश: दृष्टि, तंगी, नपुंसक, कैक्टस और कुकुरमुत्ते, अपने लोग, प्रदूषण, यही सच है, मुखौटा हुड, सांसों के ठेकेदार आदि।
पाँच–जीवन के अन्य विविध पक्षों पर शैलीगत प्रयोग: कस्तूरीमृग, आइसबर्ग, उजबक, आधे–अधूरे, शासक और शासित, आखिरी पड़ाव का सफर, धूप–छाँव, जहाँ के तहाँ, रिश्ते के बीच, मृत्युबोध आदि।
जैसा मैं कह चुका हूँ–इनकी हर रचना में कोई न कोई प्रयोग है। लेखक ने ऐसा सम्भवत: इस कारण भी किया है कि दहेज, भ्रष्टाचार आदि पर न जाने कितने लेखकों ने अपनी कलम चलाई है। सुकेश ने अपनी प्रयोगधर्मिता से इस तरह के विषयों पर भी आदर्श लघुकथाएँ उल्लेखनीय हैं।
अब मैं सुकेश साहनी की कुछ रचनाओं पर चर्चा करूँगा:
एक– इस वर्ग में इनकी प्रतिनिधि रचना गोश्त की गंध ली जा सकती है।
हमारे निम्न मध्यम वर्गीय परिवारों में दामाद को अभी भी भगवान या वी0आई0पी0 जैसा दर्जा दिया जाता है। यह वर्ग लड़की की शादी में निचुड़ कर भी दामाद के स्वागत में पलकों के पाँवड़े बिछाए रहने को तैयार रहता है– खुशी–खुशी। बेशक अपने लिए सूखी रोटी भी मयस्तर न हो, लेकिन दामाद के लिए अच्छी सब्जी, घी के पकवान परोसना यह वर्ग अपना अहोभाग्य समझता है। ऐसे ही एक दिन का दृश्य लेखक ने चित्रित किया है। जब उसे पनीर की सब्जी पेश की जाती है। तो उसे लगता है कि उसमें माँस के टुकड़े तैर रहे है। वे माँस के टुकड़े जो साले की टाँग के हैं, ससुर के गाल और सास की कलाइयों के हैं। क्या उसे इतने दिनों तक ये लोग अपना माँस परोसते रहे? वह हैरत में आ जाता है। पत्नी उसे बताती है कि प्लेट की सब्जी शाही पनीर की है। तब दामाद ऐसी आवभगत से आतंकित होकर स्वयं में ही शर्मिदा होकर खुद को सास–ससुर का बेटा घोषित करता है। लगता है जैसे सास–ससुर को जिन्दगी भर की खुशी मिल गई हो। इस प्रकार रचना का समापन एक सुखांत मोड़ पर हो जाता है।
लेखक इस दामाद के बहाने उन सभी दामादों पर चोट करता है जो सास–ससुर से जिन्दगी भर आवभगत करवाने में नहीं हिचकते और उसे अपना विशेषधिकार मानते हैं। यह समस्या निम्न मध्यम परिवारों में सनातन रूप से विद्यमान है और न जाने कब तक चलती रहेगी। लेखक इस अनदेखे पहलू को जिस रूप् में विचित्र करता है, वह गोश्त की गंध है। ऐसी गोश्त की गंध हमें पहले ही क्यों नहीं महसूस होती?
दो–इस वर्ग में सुकेश की कई रचनाएँ सार्थक टिप्पणी की मांग करती हैं। मोहभंग जैसी सैकड़ों रचनाएँ लिखी जा चुकी हैं लेकिन लेखक ने रागात्मक सम्बन्धों के मोहभंग को कुशलता से चित्रित किया है। छोटा भाई मद्रास से शिक्षा समाप्त कर अपने स्व0 पिता की फैक्टरी को अपने तकनीकी ज्ञान से लाभान्वित करने घर आता है। यद्यपि उसके टीचर ने मद्रास में ही उसे शहर के लगाव के कारण उनका यह प्रस्ताव ठुकरा देता है। एक सुबह भाई ने उसके साथ जिस तरह का अनपेक्षित व्यवहार किया, उससे उसका मोहभंग हो जाता है। भाई उसे नौकरी पर ही देखना चाहता है और बड़े भाई होने की अहंमन्यता से ग्रसत होकर उससे हिकारत से पेश आता है जिससे छोटे भाई का पूरा अस्तित्व ही हिल जाता है और वह अनायास ही मद्रास वापस जाने का मन बना लेता है। आज के युग में हमारे खून के रिश्ते स्वार्थवश किस कदर औपचारिक हो गए है, इस कथन को बड़े ही मनोयोग से लेखक ने विकसित किया है।
इस वर्ग की एक और प्रतिनिधि रचना गाजर घास है– तथाकथित प्रगति ने हमारे सामाजिक/सांस्कृतिक मूल्यों पर जो चोट की है, उससे हमारे समाज का परम्परागत ढांचा ही चरमरा गया है। एक प्रकार की सुविधाभोगी संस्कृति ने हम सबको जकड़ लिया है। संयम से परिपूर्ण भारतीय दर्शन की उर्वरा धरती पर अवमूल्यन की गाजर घास तेजी से पनपती जा रही है, जिस कारण एक प्रकार की सामाजिक शृंखला चारों ओर व्याप्त हो गई है। लेखक ने अपना दायित्व निभाते हुए अपनी इस रचना से हम सबका ध्यान बरबस अपनी ओर खींच लिया है। रिटायर्ड बुजुर्ग, जिसमें एक आम आदमी की तरह पारिवारिक दायित्व बोध है, वह अपने ही परिवार में एक अजनबी बनकर रह गया है। चित्रहार के वक्त वह किस तरह आधे घण्टे का समय बिताने के लिए ठण्डी रात में घर से निकलने के लिए बाध्य है। पनवाड़ी के यहाँ दो युवकों की अश्लील बातचीत और साइकिल सवारों का फूहड़ व्यवहार नई पीढ़ी के चारित्रिक पतन को रेखांकित करते हैं।
तब वह एक पुलिया पर जाकर बैठ जाता है। जिसके पास उगा बेशर्म का झाड़ उसे दिखाई देता है। वस्तुत: अंत में लेखक ने रचना की सारी मानसिकता का एक विश्वसनीय बिम्ब उभार दिया है, जो एक श्रेष्ठ जीवन काव्य है–साथ ही हमारे समाज के भावी रूप का एक खाका भी उभर कर सामने आ जाता है।
इसी संकट को और आगे वह इमीटेशन में उठाता है। पति–पत्नी अपनी विलासिता के लिए वीडियो में जिस तरह ब्ल्यू फिल्में देखते हैं उससे बच्चों पर क्या असर पड़ सकता हैं, इसे बहुत ही बोल्ड तरीके से लेखक ने दिखाया है, जिसे कोई बोल्ड सम्पादक हीर छाप सकता है।
तीन–इस वर्ग में सोडावाटर रचना उल्लेखनीय है। जिस तरह सोडावाटर की बोतल का ढक्कन खोलते ही सोडावाटर उफनता है लेकिन कुछ क्षणों में बुलबुले शांत होकर खत्म हो जाते हैं, उसी प्रकार चीफ जब एक मातहत अधिकारी की भ्रष्टता की जाँच करने आते हैं तो भ्रष्ट पात्र उनका उबाल शांत करने को जो तरीके अख्तियार करता है, उसे लेखक ने बड़े ही सटीक ढंग से उजागर किया है। चीफ साहब को फाइव स्टार होटल में ठहराने, अपने घर उन्प्हें खाने के लिए तैयार कर तरह–तरह के उपहार और उनकी लड़की की शादी की दुहाई देकर दस हजार का इंतजाम कर चीफ को जाल में फँसाकर गद्गद कर देता है। इस प्रकार उसे चीफ उसे ईमानदारी का फतवा भी दे देता है और आश्वस्त करता है कि सेक्रेटरी से कहकर मामले को ठीक करा देगा।
भ्रष्ट लोगों की जांच किस तरह टाँय–टाँय फिस्स हो जाती है और भ्रष्टाचार को किस तरह सरकारी विभागों में पाला–पोसा जा रहा है, इसका नग्न चित्रण लेखक ने बड़े ही सहज ढंग से किया है। लेखक इस तरह की रचना से स्वयं संतुष्ट नहीं रहा। वह इस तरह के भ्रष्टाचार का कतई समर्थन नहीं करता। अपनी इस तकलीफ को लेखक ने टेक इट ईजी में और आगे दिखाया है। जब अधिकारी अपने छोटे अधिकारी से कहता है कि ग्राम नैना की रिग मशीन (ट्यूबबेल निर्माण में प्रयोग की जाने वाली) ग्राम मेवा में भेजी जाए तो कनिष्ठ अधिकारी इसे बात का विरोध करता है और बताता है कि ग्राम मेवा में तो पहले ही नहरों का जाल बिछा है जबकि नैना गाँव के लोगों की हालत पानी न मिलने के कारण खराब हे, पर वरिष्ठ अधिकारी कहता है कि मंत्री के आदेश से ही रिन मशीन मेवा गांव में भिजवाई जा रही है। जब वह अधिकारी के कमरे से बाहर निकलता है तो उसे सुनाई देता है–टेक इट ईजी। वस्तुत: लेखक ने सरकारी मशीनरी में नेताओं की दखलअंदाजी और अधिकारियों की घुटने टेक नीति पर तीव्र व्यंग्य किया है। इसे बड़ी सहजता से लिया जाता है लेकिन इस ईमानदार और अपने कर्तव्य के प्रति सचेष्ट अधिकारी इस सबको किस प्रकार सहजता से ले, लेखक ने प्रश्न उठाया है।
नरभक्षी,नीति निर्धारक,श्रेयपति में भी लेखक ने इसी तरह के तथ्यों को उजागर किया है।
चार– इस वर्ग में नपुंसक रचना विचारणीय है। हम शिक्षा में पाश्चात्य शिक्षा पद्धतियों की नकल और एक प्रकार की शैक्षिक गुण्डागर्दी को बढ़ावा दे रहे हैं, जिसमें आमूल–चूल परिवर्तन की जरूरत है। विश्वविद्यालय में शिक्षा के नाम पर क्या–क्या कुकर्म हो सकते हैं या हो रहे है, टी0 वी0 के आने से इनको काफी लोगों ने अपने आंखों से देखा होगा। कालिज के ये शोहदे किस तरह इस रचनामें मैं पात्र सहित एक मजबूर लड़की के साथ मजा लेना चाहते हैं और एक–एक करके निबटते हैं। मैं पात्र लड़की के साथ कुछ नहीं करता। वह अपने हाव–भाव से ही लड़कों को बता देता है– बड़ा मजा आया। पात्र का मैं उसे नपुंसक कहकर धिक्कारता है, क्योंकि वह अपने साथियों की कुत्सित योजना का विरोध न करके उसी का एक हिस्सा बनकर स्वयं को मर्द कहलाना पसंद करता है। ऐसे तमाम मर्दो पर लेखक ने रचना रचकर थूक दिया है।
प्रदूषण रचना भी उल्लेखनीय है जिसमें पात्र महानगर के प्रदूषण से ऊबकर कश्मीर की वादियों में सुकून की तलाश में जाता है। वहां भी कैसे–कैसे उसका शोषण होता है। वहां पर भी महानगर के प्रदूषण को पैर पसारे देखकर उसका जी खिन्न हो जाता है। पर्यावरण संकट को लेखक ने जिस आसन्न संकट के रूप में हमारे सामने रखा है, वह एक भयावह स्थिति है। इससे किस तरह निबटा जाएगा, यही लेखक कहना चाहता है।
पांच– इस वर्ग में जो रचनाएँ मैंने चुनी है उनमें आइसबर्ग और कस्तूरीमृग शैली के दृष्टिकोण से उत्कृष्ट रचनाएँ हैं।
आइसबर्ग में लेखक ने यह दिखाया है कि दंगों में एक आम आदमी के फंस जाने और उससे निकलने के बीच की भयावह स्थिति को किस तरह झेलना पड़ता है। श्रीमती गांधी की हत्या की प्रतिक्रिया में भड़के दंगों के बीच वह पात्र फँस जाता है। किसी तरह वह अपने घर पहुँच जाना चाहता है। स्टेशन पर खड़ी गाड़ी में बैठ जाता है। उसके सामने जो लोग बैठते हैं, उन्हें देखकर वह अपने हाथ में पहना लोहे का कड़ा छिपा लेता है ताकि उसे सिक्ख न समझ लिया जाए और सिक्खों के अत्याचार की मनगढ़न्त कहानी सुनाकर स्वयं को उनके विश्वाअ में ले ल्लेता है।जब वे इटावा स्तेशन पर उतर जाते हैं तो उसी डिब्बे में चार –पाँच सिक्ख चढ़ आते हैं, बचते–बचाते। अब वह अपने हाथ के छिपे कड़े को बाहर निकालकर उनसे पंजाबी में बात करता है और सिक्खों पर हुए अत्याचार की फर्जी कहानी सुना देता है। जब उसे विश्वास हो जाता है कि वे लोग उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकेंगे तो आराम से पसरकर अपने बच्चे की याद कर मुस्कराने लगता है।
लेखक ने यहाँ दो बातें उठाई हैं। एक, समाज में फर्जी खतरे पैदा करने की प्रक्रिया दंगों में तेज हो जाती है, ऐसे खतरों से बचा जाए। दूसरे, एक निर्दोष आदमी, जिसका इन दंगों से कुछ लेना–देना नहीं होता, अपनी जान–माल की क्षति कर बैठता है–अकारण ही। लेखक ने इस नाजुक विषय को जिस शैली में प्रस्तुत किया है, वैसी रचनाएं हजार में एकाध दिखाई पड़ती हैं।
सुकेश साहनी ने अपनी रचनाओं से यह सिद्ध किया है कि लघुकथा लेखन में कथानक उठाना, कथ्य का विकास करना, भाषा शैली का निरूपण कहानी, कविता व औपन्यासिक अंदाज में नहीं किया जा सकता बल्कि लघुकथा के लिए नए प्रकार के अनुशासन की जरूरत है। इसकी एक निश्चित टैकनीक है जिसे व्यावहारिक रूप में सुकेश की रचनाओं में देखा जा सकता है। चूंकि लघुकथा के आलोचना पक्ष को पुष्ट करने वाले स्वयं लघुकथाकार ही हैं और लघुकथा की एक निश्चित रचनाधर्मिता भी एक निश्चित दिशा निर्धारित कर चुकी है, जिसे मैंने मिनीयुग के हर अंक में दिया है अत: लोगों की यह चिन्ता बेमानी है कि लघुकथा में समीक्षक न होने से इसका स्वतन्त्र मूल्याकंन किया जाना संभव नहीं है। अगर ऐसे लोगों को सुकेश साहनी की लघुकथाएँ मूल्यांकन करने को दी जाएँ तो वे निश्चित ही सुकेश साहनी को कहानी की कसौटी पर कस देंगे।
मेरा यह दृढ़ मत है कि सुकेश साहनी का यह लघुकथा–संग्रह लघुकथा से परहेज करने वाले समीक्षकों और विद्वानों को लघुकथा–समीक्षा की नई भाषा लिखने के लिए मजबूर करेगा।

मेरी रचना प्रक्रिया


सुकेश साहनी

सबसे पहले किसी रचना ने मेरे भीतर कब और कैसे जन्म लिया? इस विषय में जब भी सोचता हूतो अपने नन्हें रूप् को माँ के साथ रजाई में पाता हूं और मां से सुनी पहली कहानी दिमाग में घूमने लगती है....सात भाइयों की इकलौती बहन मेले में जाने के लिए अपनी भाभियों से बारी–बारी से दुपट्टा मांगती है। सब मना कर देती है। बहुत मिन्नतें करने पर एक भाभी दुपट्टा दे देती है। मेले में झूला झूलते हुए दुपट्टे पर एक कौआ बीट कर देता है। बहन की लाख कोशिशों के बाद भी दुपट्टे से बीठ का वह दाग साफ नहीं होता। दुपट्टे पर बीट देखकर भाभी को बहुत बुरा लगता है। वह अपने पति से जिद करती है कि दुपट्टे को बहन के खून से रंग दे तभी उसे शांति मिलेगी। भाई अपनी पत्नी के कहने पर बहन को मारकर उसके खून से दुपट्टा रंग लेता है। बहन को कत्ल कर जिस जगह गाड़ दिया जाता है, वहाँ से आम का एक पेड़ निकल आता है। वहां से गुज़र रहा एक धोबी पेड़ के आम तोड़ने की कोशिश करता है तो पेड़ से आवाज़ आती है, ‘‘धोबिया वै धोबिया, अम्म न तोड़, सक्के वीरे मारा भाभी शालू गिदा बोड़!’’ जब भी कोई राहगीर उस पेड़ के नज़दीक आता तो पेड़ बोल उठता–‘‘सगे वीरे मारा भाभी....’’
उस समय पेड़ का बोलना और मां का गाकर कहना बहुत भाता था और मैं मां से बार–बार जि़द करके यही कहानी सुनता था। अन्य बातों केा समझने की मेरी उम्र ही नहीं थी।
उपयु‍र्क्त कहानी के बारे में सोचने की शुरूआत काफी बाद में हुई। माँ से मिलने आई कोई महिला कमरे में बैठी है–मैं भी वहीं हूँ। वह मुझसे पूछती है कि हम कितने भाई–बहन हैं। मुझे उत्तर देने में देर लगती है। अँगुलियों पर गिनता हूँ और फिर उत्तर देता हूं–‘‘छह भाई, तीन बहनें।’’ इसने तो अपने चाचा–ताऊ के बच्चों को भी गिन लिया है।’’
मुझे अच्छी तरह याद है कि माँ के शब्दों से मैं हतप्रभ रह गया था। लगा जैसे कोई अमूल्य चीज़ छीन ली गई है। सारा दिन उदासी में डूबा रहा था। शील भइया मेरे भाई नहीं हैं? शम्मी मेरी बहन नहीं है? दिल मानने को कतई तैयार नहीं था। इसी उधेड़बुन के बीच एकाएक धमाके के साथ मां से सुनी कहानी की पंक्तियां दिमाग में कौंध गई: ‘‘सगे वीरे मारा भाभी शालू गिदा बोड़।’’ उस दिन अपने नन्हें दिल पर पहली बार खरोंच महसूस की। चाचा–ताऊ के बच्चे सगे भाई–बहन नहीं होते है....सगा....चचेरा!....चचेरे....सगे! सगे भाई अपनी बहन को मारकर पत्नी के लिए दुपट्टा रंग लेता है! आखिर यह चक्कर क्या है? मुझे लगता है कि दिल पर पड़ी खरोंच और मेरी भावुकता भरी सोच के साथ पहली रचना ने मेरे भीतर जन्म लिया था।
लघुकथा के संदर्भ में भी जीवन–यात्रा के विभिन्न पल छोटे–छोटे एहसासों के रूप् में दिलोदिमाग पर छा जाते हैं। अनूकूल परिस्थितियाँ पाते ही जब इनमें साहित्यिक रूप के साथ जीवन का गर्म लहू दौड़ने लगता है, जब उसके साथ उससे संबंधित कुछ विचार व्यवस्थित होकर घुल–मिल जाते है, तभी लघुकथा कागज़ पर उतार पाता हूं। मेरी एक लघुकथा है–यम के वंशज। अपनी बात शायद इस रचना के माध्यम से अधिक स्पष्ट कर पाऊँ। काफी कष्ट सहकर मेरी पत्नी ने अस्पताल में पुत्र को जन्म दिया था जिसकी चौबीस घंटे से पहले एक प्रमाण–पत्र पर हस्ताक्षर करवाए थे, जो इस प्रकार था–‘‘मैं अपने मृत बच्चे की लाश लिए जा रहा हूँ। मैं अस्पताल में दी गई चिकित्सा से संतुष्ट हूँ। मुझे यहाँ के किसी कर्मचारी से कोई शिकायत नहीं है।’’ बच्चे का शव अस्पताल से प्राप्त करते हुए मेरी मन:स्थिति क्या रही होगी, सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। प्रमाण–पत्र पर हस्ताक्षर करते समय लघुकथा लेखन या इस विषय पर गौर करने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता था। एक एहसास ज़रूर हुआ था जो दिमाग में कहीं अंकित हो गया था।
कुछ दिनों बाद अस्पताल में इमरजेंसी वार्ड में किसी संबंधी को देखने जाना पड़ा। वहां नर्स और वार्ड ब्वाय का एक देहाती महिला के साथ दु्र्व्यवहार देखकर तबीयत खिन्न हो गई। अचानक प्रमाण–पत्र पर अपने हस्ताक्षर करने वाली घटना जीवंत होकर इस घटना के साथ घुल–मिल गई और इस प्रकार यम के वंशज के रूपमें एक लघुकथा ने जन्म लिया।
स्पष्ट है कि कथा की विषयवस्तु, लेखकीय दृष्टि एवं उससे संबंधित विचार मिलकर मुकम्मल रचना का रूप् लेते हैं। मैंने यहां जानबुझकर रचना अथवा कथा शब्द का प्रयोग किया है क्योंकि उपयु‍र्क्त कथन साहित्य की किसी भी विधा के लिए प्रयोग किया जा सकता है। अधिकतर रचनाओं की विषयवस्तु हमें जीवन की हल–चल से मिलती है। देखने में आ रहा है कि आज लिखी जा रही बहुत–सी लघुकथाओं में सिफ‍र् विषयवस्तु, घटना या एहसास का ब्योरा मात्र होता है। लघुकथा का भाग बनने के लिए ज़रूरी है कि इस घटना, एहसास या विचार को दिशा और दृष्टि मिले, लेखक उस पर मनन करे, उससे संबंधित विचार भी उसमें जन्म लें।
कोई स्थिति, घटना, एहसास या विचार ही हमें लिखने के लिए प्रेरित करता है। इसे हम किसी रचना के लिए कच्चा माल भी कह सकते हैं। वस्तुत: कच्चे माल के पकने की प्रक्रिया ही विषयवस्तु या घटना को दृष्टि मिलना है। लेखक के भीतर किसी रचना के लिए आवश्यक कच्चे माल के पकने की प्रक्रिया ही लेखक की रचना– प्रक्रिया है। मेरी दृष्टि में लघुकथा की रचना– प्रक्रिया में उपन्यास एवं कहानी को भाँति बरसों भी लग सकते हैं।
लघुकथा में लेखक को आकारगत लघुता की अनिवार्यता के साथ अपनी बात पाठकों के सम्मुख रखनी होती है। इसमें कहानी की भांति कई घटनाओं, वातावरण–निर्माण एवं चरित्र–चित्रण द्वारा पाठकों को बाँधने या रिझाने का अवसर नहीं। होता है। लघुकथा का समापन–बिन्दु कहानी एवं उपन्यास की तुलना में अतिरिक्त श्रम एवं रचना–कौशल की मांग करता है। लघुकथा के समापन–बिन्दु को उस बिन्दु के रूप में समझा जा सकता है जहां रचना अपने कलेवर के मूल स्वर को कैरी करते हुए पूर्णता को प्राप्त होती है। मुझे लगता है कि लघुकथा की रचना–प्रक्रिया के दौरान लेखक को आकारगत लघुता एवं समापन–बिन्दु को ध्यान में रखकर ही ताने–बाने बुनने पड़ते हैं और यहीं लघुकथा की रचना– प्रक्रिया के दौरान ही पात्रों के चयन एवं लघुकथा के लिए उपयु‍र्क्त स्थल पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए। कभी–कभी कोई संवाद किसी भी पात्र से कहलवा देने से लघुकथा का उद्देश्य पूर्ण हो जाता है। वहीं इस बिन्दु पर किया गया अतिरिक्त मनन हमें उस संवाद को किसी बच्चे के मुँह से कहलवाने के निष्कर्ष पर पहुँचा सकता है। जिससे लघुकथा का प्रभाव और भी व्यापक हो जाता हो।
अपनी बात को और अधिक स्पष्ट करने के लिए एक घटना का उल्लेख करना चाहूँगा। मैं और भाई रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ जी दिल्ली से बरेली लौट रहे थे। रेल–ट्रेक में किसी खराबी के कारण हमारी ट्रेन चंदौसी स्टेशन पर पहुँच गई थी। हमें चंदौसी स्टेशन पर पाँच घंटे व्यतीत करन पड़े थे। वहाँ प्रतीक्षालय में बहुत से कॉलेज के लड़के जमा थे। वे जुआ खेल रहे थे, अश्लील चुटकुले सुना रहे थे, वहीं आस–पास के माहौल से बेखबर एक स्कूली लड़का अपना होमवर्क पूरा करने में जुटा था। मैंने उससे बातचीत की थी। उसने बताया था कि वह पास के गाँव से रोज़ पढ़ने आता है। अनय डेली पैसेंजर्स की तरह वह भी प्रतीक्षा कर रहा था। उसने यह भी बताया था कि घर में केवल उसकी मां है। पिता बंबई में कहीं नौकरी करते हैं और सल में एक बार घर आते हैंं जुआ खेलते कॉलेज के लड़कों के बीच कच्ची उम्र के इस लड़के के संतुलित व्यवहार ने मुझे सोचने पर विवश कर दिया था। मुझे उसी समय लगा था, किसी लघुकथा के लिए कच्चा माल मिल गया है। कुछ महीनों बाद इस स्थिति पर मैंने ‘स्कूल’ लघुकथा लिखी–
‘‘तुम्हें बताया न, गाड़ी लेट हैं,’’ स्टेशन मास्टर ने झुँझलाते हुए कहा–‘‘छह घंटे से पहले तो आ नहीं जाएगी, अब जाओ....कल से नाक में दम कर रखा है तुमने!’’
‘‘बाबूजी,गुस्सा न हों,’’ वह ग्रामीण औरत हाथ जोड़कर बोली–मैं बहुत परेशान हूँ, मेरे बेटे को घर से गए हुए तीन दिन हो गए हैं....उसे कल ही आ जाना था! पहली दफा घर से अकेला निकला है....’’
‘‘पर तुमने बच्चे को अकेला भेजा ही क्यों?’’ औरत की गिड़गिड़ाहट से पसीजते हुए उसने पूछ लिया।
‘‘मति मारी गई थी मेंरी,’’ सह रूआँसी हो गई–‘‘बच्चे के पिता नहीं हैं, मैं दरियाँ बुनकर घर का खर्चा चलाती हूँ। पिछले कुछ दिनों से जिद कर रहा था कि वह भी कुछ काम करेगा। टोकरी–भर चने लेकर घर से निकला है....’’
‘‘घबराओ मत....आ जाएगा!’’ उसने तसल्ली दी।
‘‘बाबूजी.....वह बहुत भोला है, उसे रात में अकेले नींद भी नहीं आती है....मेरे पास ही सोता है। हे भगवान!....दो रातें उसने कैसे काटी होगी? इतनी ठंड में उसके पास ऊनी कपड़े भी तो नहीं हैं....’’ वह सिसकने लगी।
स्टेशन मास्टर अपने काम में लग गया था। वह बेचैनी से प्लेटफार्म पर टहलने लगी। उस गाँव के छोटे से स्टेशन पर चारों ओर अंधकार छाया हुआ था। उसने मन ही मन तय कर लिया था कि भविष्य में वह अपने बेटे को कभी भी अपने से दूर नहीं होने देगी।
आखिर पैसेंजर ट्रेन शोर मचाती हुई उस सुनसान स्टेशन पर आ खड़ी हुई। वह साँस रोके,आँखें फाड़े डिब्बों की ओर ताक रही थी।
एक आकृति दौड़ती हुई उसके नज़दीक आई। नज़दीक से उसने देखा–तनी हुई गर्दन....बड़ी–बड़ी आत्मविश्वास भरी आँखें....कसे हुए जबड़े....होंठों पर बारीक मुस्कान....
‘‘माँ,तुम्हें इतनी रात गए यहां नहीं आना चाहिए था।’’ अपने बेटे को गंभीर,चिंताभरी आवाज़ उसके कानों में पड़ी।
वह हैरान रह गई। उसे अपनी आँखों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था–इन तीन दिनों में उसका बेटा इतना बड़ा कैसे हो गया?
यदि इस लघुकथा की मूल घटना से तुलना करें तो पता चलता है कि रचना–प्रक्रिया के दौरान इसमें घटना–स्थल, क्रम, पात्र आदि बिल्कुल बदल गए हैं। ऐसा लघुकथा के लिए अनिवार्य आकारगत लघुता एवं समापन बिन्दु को ध्यान में रखते हुए अधिक प्रभावी प्रस्तुति के लिए किया गया है।



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