Friday, July 9, 2010

वायरस

सुकेश साहनी

आँगन में ट्राइसिकिल चलाते हुए बच्चा ऊँची आवाज में गा रहा था, ‘‘जुम्मे के जुम्मे घर आया करो, हम तुम्हारे दिल में रहते हैं.....आकर चुम्मा दे जाया करो....


साइकिल के पीछे तालियां पीटते हुए दौड़ रही उसकी बहन भी बोले जा रही थी, ‘‘जुम्माजुम्मा.....चुम्माचुम्मा!’’

ये सुनकर रसोई में काम कर रही बच्चों की माँ का खून खौल उठा, वह अपना आपा खो बैठी, दनदनाते हुए बाहर आई और चिमटे से दोनों बच्चों को ताबड़तोड़ पीटने लगी।

इस अप्रत्याशित मार से बौखलाकर बच्चे पापा...पापा चिल्लाने लगे, अगले ही क्षण फूटफूटकर रोने लगे। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि उन्हें किस बात की सजा दी जा रही है।

चीखपुकार सुन बाथरूम से दौड़े आए बच्चों के पिता ने बीचबचाव करते हुए पत्नी को झिड़का, ‘‘पागल हुई हो क्या? ऐसे मारता है कोई बच्चों को! आखिर हुआ क्या है?’’

‘‘हुआ क्या है? हा से निकलते जा रहे हैं दोनों! अभी सुना नहीं...कैसे गंदेगंदे गाने गा रहे थे....मेरी तो नाक ही कट जाती है सबके सामने!....इन्हें मारते हुए मेरा दिल नहीं दुखता क्या!!’’ कहते हुए पत्नी सिसकने लगी।

पतिपत्नी ने इस मसले पर गंभीरता से विचार किया, कुछ नियमकानून बनाए गए और उन पर उसी दिन से सख्ती से अमल किया जाने लगा। सबसे पहले टी.वी. का केबिल कनेक्शन कटवा दिया गया। दूरदर्शन के शिक्षाप्रद कार्यक्रम ही बच्चों को देखने दिए जाते, यहां भी कार्यक्रम के बीचबीच दिखाए जाने वाले विज्ञापन समस्या बने रहते, जिनसे रिमोट कंट्रोल के माध्यम से निबटा जाता। जब किसी फिल्म की बहुत तारीफ सुनी जाती,बच्चे देखने की जिद करने लगते तो वे दोनों सिनेमा हाल जाकर पहले खुद फिल्म देखते और साफसुथरी होने पर ही बच्चों को दिखाने ले जाते। किसी समारोह के अवसर पर बजने वाले गानों को लेकर पड़ोसियों से भी अक्सर उनकी झाँ–झाँय हो जाती थी। कुल मिलाकर बच्चों के हित में जितनी तरह की नाकेबंदी वे कर सकते , कर रहे थे। उन्हें लगने लगा था कि इस कड़ाई से बच्चे पूरी तरह सुधर गए हैं।

छुट्टी का दिन था, बच्चे होमवर्क कर रहे थे, पति अखबार पढ़ रहा था और पत्नी कहीं बैठी सब्जी काट रही थी।

तभी अप्रत्याशित बात हुई....

पत्नी की समझ में नहीं आया कि पति और बच्चे आँखें फाड़े उसे क्यों देखे जा रहे हैं...असंभव!....ऐसा कैसे हो सकता है? उसने खुद को चुटकी काटकर देखा...सच्चाई उसे मुँह चिढ़ा रही थी....उसने चाहा धरती फटे और वह उसमें समा जाए।

....दरअसल सब्जी काटते हुए न जाने कब....कैसे वह गुनगुनाने लगी थी, ‘‘लड़का कमाल का अँखियों से गोली मारे !.....’’

Wednesday, July 7, 2010

चादर


सुकेश साहनी

दूसरे नगरों की तरह हमारे यहाँ भी खास तरह की चादरें लोगों में मुफ्त बाँटी जा रही थीं, जिन्हें ओढ़कर टोलियाँ पवित्र नगर को कूच कर रही थीं। इस तरह की चादर ओढ़नेओढ़ाने से मुझे सख्त चिढ़ थी, पर मुफ्त चादर को मैंने यह सोचकर रख लिया था कि इसका कपड़ा कभी किसी काम आएगा। उस दिन काम से लौटने पर मैंने देखा सुबह धोकर डाली चादर अभी सूखी नहीं थी। काम चलाने के लिए मैंने वही मुफ्त में मिली चादर ओढ़ ली थी। लेटते ही गहरी नींद ने मुझे दबोच लिया था।

आँख खुली तो मैंने खुद को पवित्र नगर में पाया। यहाँ इतनी भीड़ थी कि आदमी पर आदमी चढ़ा जा रहा था। हरेक ने मेरी जैसी चादर ओढ़ रखी थी। उनके चेहरे तमतमा रहे थे। हवा में अपनी पताकाएँ फहराते जुलूस की शक्ल में वे तेजी से एक ओर बढ़े जा रहे थे। थोड़ीथोड़ी देर बाद पवित्र पर्वतके सम्मिलित उद्घोष से वातावरण गूँज उठा था। विचित्रसा नशा मुझ पर छाया हुआ था। न जाने किस शक्ति के पराभूत मैं भी उस यात्रा में शामिल था।

इस तरह चलते हुए कई दिन बीत गए पर हम कहीं नहीं पहुँचे। दरअसल हम वहाँ स्थित पवित्र पर्वत के चक्कर ही काट रहे थे।

‘‘हम कहाँ जा रहे हैं?’’ आखिर मैंने अपने आगे चल रहे व्यक्ति से पूछ लिया। ‘‘वह पवित्र पर्वत ही हमारी मंजिल है।’’ उसने पर्वत की चोटी की ओर संकेत करते हुए कहा।

‘‘हम वहाँ कब पहुँचेगे?’’

‘‘क्या बिना पवित्र चढ़ाई चढ़े उस ऊँचाई पर पहुँचना सम्भव होगा?’’ मैंने शंका जाहिर की।

इस पर वह बारगी सकपका गया, फिर मूँछें ऐंठते हुए सन्देह भरी नजरों से मुझे घूरने लगा।

तभी मेरी नजर उसकी चादर पर पड़ी। उस पर खून के दाग थे। मेरे शरीर में झुरझुरी सी दौड़ गई। मैंने दूसरी चारों पर गौर किया तो सन्न रह गया, कुछ खून से लाल हो गई थीं और कुछ तो खून से तरबतर थीं। सभी लोग हट्टेकट्टे थे, किसी को चोट चपेट भी नहीं लगी थी और न ही वहां कोई खूनखराबा हुआ था, फिर उनकी चादरों पर ये खून....? देखने की बात ये थी कि जिसकी चादर जितनी ज्यादा खून से सनी हुई थी, वो इसके प्रति उतना ही बेपरवाह हो मूँछें ऐंठ रहा था। यह देखकर मुझे झटकासा लगा और मैं पवित्र नगर से निकल पड़ा

लौटते हुए मैंने देखा, पूरा देश दंगों की चपेट में था, लोगों को जिन्दा जलाया जा रहा था, हर कहीं खूनखराबा था। मैंने पहली बार अपनी चादर को ध्यान से देखा, उस पर भी खून के छींटे साफ दिखाई देने लगे थे। मैं सब कुछ समझ गया। मैंने क्षण उस खूनी चादर को अपने जिस्म से उतार फेंका।