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Wednesday, July 31, 2013
अंतत:
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Saturday, August 14, 2010
अथ उलूक कथा
सुकेश साहनी
शिकार की ताक में घंटों एक टांग पर खड़े रहने के बावजूद जब उसके हाथ कुछ नहीं लगा, तो वह किसी दूसरे सरोवर की तलाश में निकल पड़ा।
रास्ते में हर कहीं खुशहाली थी। सब अपने–अपने काम में इस कदर मग्न थे कि किसी ने सिर उठाकर उसकी ओर देखा तक नहीं। यह देखकर वह गहरी चिंता में डूब गया।
एक पेड़ के नीचे से गुजरते हुए उसे दो उल्लू झगड़ते हुए दिखाई दिए।
‘‘इस इमारत का मालिक मैं हूँ !’’ पहला उल्लू।
‘‘क्या बकते हो?’’ दूसरा उल्लू, ‘‘इसे तो हमारे पूर्वजों ने बनवाया था।’’
‘‘तुम्हारे पूर्वज कितने बड़े लुटेरे थे, यह सभी जानते हैं।’’ पहले ने तीर छोड़ा।
‘‘जबान संभाल कर बात करो, नहीं तो.....’’ दूसरा गुर्राया।
दोनों झगड़ने लगे।
उसने दोनों को शांत कराया और फिर बड़ी गंभीरता से क्षेत्र का निरीक्षण करने लगा। दूर–दूर तक किसी इमारत का नामोनिशान तक न था। वैसे भी, वह यह सोचकर दंग था कि उल्लू दिन में कब से देखने लगे।
वह उल्लुओं को समझाते हुए बोला, ‘‘आप दोनों की तीव्र दृष्टि एवं कुशाग्र बुद्धि काबिले -तारीफ है। अपनी–अपनी जगह आप दोनों ही सही हैं। इमारत किसकी है, इसका फैसला आम सहमति से जल्दी ही हम कर देंगे।’’ कहकर उसने दोनों को पहचान के लिए अलग–अलग रंग की टोपियाँ पहना दी।
उल्लू बिरादरी में यह खबर आग की तरह फैल गई। दिनभर उसके पास उल्लुओं का जमघट लगा रहने लगा। अब वह बाकायदा कुर्सी पर बैठकर उनको टोपियाँ पहनाने लगा।
अगली बार वह जब क्षेत्रीय भ्रमण पर निकला, तो हर शाख पर टोपीवाले उल्लू बैठे थे और उस अदृश्य इमारत को लेकर आपस में झगड़ रहे थे।
Friday, July 9, 2010
वायरस
सुकेश साहनी
आँगन में ट्राइसिकिल चलाते हुए बच्चा ऊँची आवाज में गा रहा था, ‘‘जुम्मे के जुम्मे घर आया करो, हम तुम्हारे दिल में रहते हैं.....आकर चुम्मा दे जाया करो....
साइकिल के पीछे तालियां पीटते हुए दौड़ रही उसकी बहन भी बोले जा रही थी, ‘‘जुम्मा–जुम्मा.....चुम्मा–चुम्मा!’’
ये सुनकर रसोई में काम कर रही बच्चों की माँ का खून खौल उठा, वह अपना आपा खो बैठी, दनदनाते हुए बाहर आई और चिमटे से दोनों बच्चों को ताबड़तोड़ पीटने लगी।
इस अप्रत्याशित मार से बौखलाकर बच्चे ‘पापा...पापा’ चिल्लाने लगे, अगले ही क्षण फूट–फूटकर रोने लगे। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि उन्हें किस बात की सजा दी जा रही है।
चीख–पुकार सुन बाथरूम से दौड़े आए बच्चों के पिता ने बीच–बचाव करते हुए पत्नी को झिड़का, ‘‘पागल हुई हो क्या? ऐसे मारता है कोई बच्चों को! आखिर हुआ क्या है?’’
‘‘हुआ क्या है? हा से निकलते जा रहे हैं दोनों! अभी सुना नहीं...कैसे गंदे–गंदे गाने गा रहे थे....मेरी तो नाक ही कट जाती है सबके सामने!....इन्हें मारते हुए मेरा दिल नहीं दुखता क्या!!’’ कहते हुए पत्नी सिसकने लगी।
पति–पत्नी ने इस मसले पर गंभीरता से विचार किया, कुछ नियम–कानून बनाए गए और उन पर उसी दिन से सख्ती से अमल किया जाने लगा। सबसे पहले टी.वी. का केबिल कनेक्शन कटवा दिया गया। दूरदर्शन के शिक्षाप्रद कार्यक्रम ही बच्चों को देखने दिए जाते, यहां भी कार्यक्रम के बीच–बीच दिखाए जाने वाले विज्ञापन समस्या बने रहते, जिनसे रिमोट कंट्रोल के माध्यम से निबटा जाता। जब किसी फिल्म की बहुत तारीफ सुनी जाती,बच्चे देखने की जिद करने लगते तो वे दोनों सिनेमा हाल जाकर पहले खुद फिल्म देखते और साफ–सुथरी होने पर ही बच्चों को दिखाने ले जाते। किसी समारोह के अवसर पर बजने वाले गानों को लेकर पड़ोसियों से भी अक्सर उनकी झाँय–झाँय हो जाती थी। कुल मिलाकर बच्चों के हित में जितनी तरह की नाकेबंदी वे कर सकते , कर रहे थे। उन्हें लगने लगा था कि इस कड़ाई से बच्चे पूरी तरह सुधर गए हैं।
छुट्टी का दिन था, बच्चे होमवर्क कर रहे थे, पति अखबार पढ़ रहा था और पत्नी कहीं बैठी सब्जी काट रही थी।
तभी अप्रत्याशित बात हुई....
पत्नी की समझ में नहीं आया कि पति और बच्चे आँखें फाड़े उसे क्यों देखे जा रहे हैं...असंभव!....ऐसा कैसे हो सकता है? उसने खुद को चुटकी काटकर देखा...सच्चाई उसे मुँह चिढ़ा रही थी....उसने चाहा धरती फटे और वह उसमें समा जाए।
....दरअसल सब्जी काटते हुए न जाने कब....कैसे वह गुनगुनाने लगी थी, ‘‘लड़का कमाल का अँखियों से गोली मारे !.....’’
Wednesday, July 7, 2010
चादर
सुकेश साहनी
दूसरे नगरों की तरह हमारे यहाँ भी खास तरह की चादरें लोगों में मुफ्त बाँटी जा रही थीं, जिन्हें ओढ़कर टोलियाँ पवित्र नगर को कूच कर रही थीं। इस तरह की चादर ओढ़ने–ओढ़ाने से मुझे सख्त चिढ़ थी, पर मुफ्त चादर को मैंने यह सोचकर रख लिया था कि इसका कपड़ा कभी किसी काम आएगा। उस दिन काम से लौटने पर मैंने देखा सुबह धोकर डाली चादर अभी सूखी नहीं थी। काम चलाने के लिए मैंने वही मुफ्त में मिली चादर ओढ़ ली थी। लेटते ही गहरी नींद ने मुझे दबोच लिया था।
आँख खुली तो मैंने खुद को पवित्र नगर में पाया। यहाँ इतनी भीड़ थी कि आदमी पर आदमी चढ़ा जा रहा था। हरेक ने मेरी जैसी चादर ओढ़ रखी थी। उनके चेहरे तमतमा रहे थे। हवा में अपनी पताकाएँ फहराते जुलूस की शक्ल में वे तेजी से एक ओर बढ़े जा रहे थे। थोड़ी–थोड़ी देर बाद ‘पवित्र पर्वत’ के सम्मिलित उद्घोष से वातावरण गूँज उठा था। विचित्र–सा नशा मुझ पर छाया हुआ था। न जाने किस शक्ति के पराभूत मैं भी उस यात्रा में शामिल था।
इस तरह चलते हुए कई दिन बीत गए पर हम कहीं नहीं पहुँचे। दरअसल हम वहाँ स्थित पवित्र पर्वत के चक्कर ही काट रहे थे।
‘‘हम कहाँ जा रहे हैं?’’ आखिर मैंने अपने आगे चल रहे व्यक्ति से पूछ लिया। ‘‘वह पवित्र पर्वत ही हमारी मंजिल है।’’ उसने पर्वत की चोटी की ओर संकेत करते हुए कहा।
‘‘हम वहाँ कब पहुँचेगे?’’
‘‘क्या बिना पवित्र चढ़ाई चढ़े उस ऊँचाई पर पहुँचना सम्भव होगा?’’ मैंने शंका जाहिर की।
इस पर वह बारगी सकपका गया, फिर मूँछें ऐंठते हुए सन्देह भरी नजरों से मुझे घूरने लगा।
तभी मेरी नजर उसकी चादर पर पड़ी। उस पर खून के दाग थे। मेरे शरीर में झुरझुरी सी दौड़ गई। मैंने दूसरी चारों पर गौर किया तो सन्न रह गया, कुछ खून से लाल हो गई थीं और कुछ तो खून से तरबतर थीं। सभी लोग हट्टे–कट्टे थे, किसी को चोट चपेट भी नहीं लगी थी और न ही वहां कोई खून–खराबा हुआ था, फिर उनकी चादरों पर ये खून....? देखने की बात ये थी कि जिसकी चादर जितनी ज्यादा खून से सनी हुई थी, वो इसके प्रति उतना ही बेपरवाह हो मूँछें ऐंठ रहा था। यह देखकर मुझे झटका–सा लगा और मैं पवित्र नगर से निकल पड़ा।
लौटते हुए मैंने देखा, पूरा देश दंगों की चपेट में था, लोगों को जिन्दा जलाया जा रहा था, हर कहीं खून–खराबा था। मैंने पहली बार अपनी चादर को ध्यान से देखा, उस पर भी खून के छींटे साफ दिखाई देने लगे थे। मैं सब कुछ समझ गया। मैंने क्षण उस खूनी चादर को अपने जिस्म से उतार फेंका।
Sunday, June 27, 2010
कसौटी
सुकेश साहनी
खुशी के मारे उसके पाँव जमीन पर नहीं पड़ रहे थे। साइबर कैफे से बाहर आते ही उसने घर का नम्बर मिलाया।
‘‘पापा!...’’ उससे बोला नहीं गया।
‘‘हमारी बेटी ने किला फतेह कर लिया! है न?’’
‘‘हाँ, पापा!’’ वह चहकी, ‘‘मैंने मुख्य परीक्षा पास कर ली है। मेरिट में दूसरे नम्बर पर हूँ !’’
‘‘शाबाश! मुझे पता था... हमारी बेटी है ही लाखों में एक!’’
‘‘पापा, पंद्रह मिनट के ब्रेक के बाद एक माइनर पर्सनॉलिटी टेस्ट और होना है। उसके फौरन बाद हमें अपाइंटमेंट लेटर दे दिए जाएँगे। मम्मी को फोन देना...’’
‘‘इस टेस्ट में भी हमारी बेटी अव्वल रहेगी। तुम्हारी मम्मी सब्जी लेने गई है। आते ही बात कराता हूँ। आल द बेस्ट, बेटा!’’
उसकी आँखें भर आईं। पापा की छोटी-सी नौकरी थी, लेकिन उन्होंने बैंक से कर्जा लेकर अपनी दोनों बेटियों को उच्च शिक्षा दिलवाई थी। मम्मी-पापा की आँखों में तैरते सपनों को हकीकत में बदलने का अवसर आ गया था। बहुराष्ट्रीय कम्पनी में एग्ज़ीक्यूटिव ऑफिसर के लिए उसने आवेदन किया था। आज ऑनलाइन परीक्षा उसने मेरिट में पोजीशन के साथ पास कर ली थी।
दूसरे टेस्ट का समय हो रहा था। उसने कैफे में प्रवेश किया। कम्प्यूटर में रजिस्ट्रेशन नम्बर फीड करते ही जो पेज खुला, उसमें सबसे ऊपर नीले रंग में लिखा था-‘‘वेलकम-मिस सुनन्दा!’’ नीचे प्रश्न दिए हुए थे, जिनके आगे अंकित ‘यस’ अथवा ‘नो’ को उसे ‘टिक’ करना था...
विवाहित हैं? इससे पहले कहीं नौकरी की है? बॉस के साथ एक सप्ताह से अधिक घर से बाहर रही हैं? बॉस के मित्रों को ‘ड्रिंक’ सर्व किया है? एक से अधिक मेल फ्रेंड्स के साथ डेटिंग पर गई हैं? किसी सीनियर फ्रेंड के साथ अपना बैडरूम शेअर किया है? पब्लिक प्लेस में अपने फ्रेंड को ‘किस’ किया है? नेट सर्फिेग करती हैं? पॉर्न साइट्स देखती हैं? चैटिंग करती हैं? एडल्ट हॉट रूम्स में जाती हैं? साइबर फ्रेंड्स के साथ अपनी सीक्रेट फाइल्स शेअर करती हैं? चैटिंग के दौरान किसी फ्रेंड के कहने पर खुद को वेब कैमरे के सामने एक्सपोज़ किया है?.....
सवालों के जवाब देते हुए उसके कान गर्म हो गए और चेहरा तमतमाने लगा। कैसे ऊटपटांग और वाहियात सवाल पूछ रहे हैं? अगले ही क्षण उसने खुद को समझाया-बहुराष्ट्रीय कम्पनी है, विश्व के सभी देशों की सभ्यता एवं संस्कृति को ध्यान में रखकर क्वेश्चन फ्रेम किए गए होंगे।
सभी प्रश्नों के जवाब ‘टिक’ कर उसने पेज को रिजल्ट के लिए ‘सबमिट’ कर दिया। कुछ ही क्षणों बाद स्क्रीन पर रिजल्ट देखकर उसके पैरों के नीचे से जमीन निकल गई। सारी खुशी काफूर हो गई। ऐसा कैसे हो सकता है? पिछले पेज पर जाकर उसने सभी जवाब चेक किए, फिर ‘सबमिट’ किया। स्क्रीन पर लाल रंग में चमक रहे बड़े-बड़े शब्द उसे मुँह चिढ़ा रहे थे- ‘सॉरी सुनन्दा! यू हैव नॉट क्वालिफाइड। यू आर नाइंटी फाइव परसेंट प्युअर (pure)। वी रिक्वाअर एट लीस्ट फोर्टी परसेंट नॉटी (naughty)।’
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Friday, April 9, 2010
गोल्डन बैल्ट-
ख़लील ज़िब्रान
अनुवाद : सुकेश साहनी
सालामिस शहर की ओर जाते हुए दो आदमियों का साथ हो गया। दोपहर तक वे एक नदी तक आ गए, जिस पर कोई पुल नहीं था। अब उनके पास दो विकल्प थे–तैरकर नदी पार कर लें या कोई दूसरी सड़क तलाश करें।
‘‘तैरकर ही पार चलते हैं,’’ वे एक दूसरे से बोले, ‘‘नदी का पाट कोई बहुत चौड़ा तो नहीं है।’’
उनमें से एक आदमी, जो अच्छा तैराक था, बीच धारा में खुद पर नियंत्रण खो बैठा और तेज बहाव की ओर खिंचने लगा। दूसरा आदमी, जिसे तैरने का अभ्यास नहीं था,आराम से तैरता हुआ दूसरे किनारे पर पहुंच गया । वहाँ पहुँचकर उसने अपने साथी को बचाव के लिए हाथ पैर मारते हुए देखा तो फिर नदी में कूद पड़ा और उसे भी सुरक्षित किनारे तक ले आया।
‘‘तुम तो कहते थे कि तुम्हें तैरने का अभ्यास नहीं है, फिर तुम इतनी आसानी से नदी कैसे पार गए?’ पहले व्यक्ति ने पूछा।
‘‘दोस्त,’’ दूसरा आदमी बोला, ‘‘मेरी कमर पर बंधी यह बैल्ट देखते हो, यह सोने के सिक्कों से भरी हुई है, जिसे मैंने साल भर मेहनत कर अपनी पत्नी और बच्चों के लिए कमाया है। इसी कारण मैं आसानी से नदी पार कर गया। तैरते समय मैं अपने पत्नी और बच्चों को अपने कन्धे पर महसूस कर रहा था।’’
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