Saturday, November 24, 2007

ऊँचाई

रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

पिताजी के अचानक आ धमकने से पत्नी तमतमा उठी, “लगता है बूढ़े को पैसों की ज़रूरत आ पड़ी है, वर्ना यहाँ कौन आने वाला था। अपने पेट का गड्‌ढा भरता नहीं, घर वालों का कुआँ कहाँ से भरोगे?”
मैं नज़रें बचाकर दूसरी ओर देखने लगा। पिताजी नल पर हाथ-मुँह धोकर सफर की थकान दूर कर रहे थे। इस बार मेरा हाथ कुछ ज्यादा ही तंग हो गया। बड़े बेटे का जूता मुँह बा चुका है। वह स्कूल जाने के वक्त रोज़ भुनभुनाता है। पत्नी के इलाज़ के लिए पूरी दवाइयाँ नहीं खरीदी जा सकीं। बाबू जी को भी अभी आना था।
घर में बोझिल चुप्पी पसरी हुई थी। खान खा चुकने पर पिताजी ने मुझे पास बैठने का इशारा किया। मैं शंकित था कि कोई आर्थिक समस्या लेकर आए होंगे। पिताजी कुर्सी पर उकड़ू बैठ गए। एकदम बेफिक्र, “सुनो” -कहकर उन्होंने मेरा ध्यान अपनी ओर खींचा। मैं साँस रोककर उनके मुँह की ओर देखने लगा। रोम-रोम कान बनकर अगला वाक्य सुनने के लिए चौकन्ना था।वे बोले, “खेती के काम में घड़ी भर की फ़ुर्सत नहीं मिलती है। इस बखत काम का जोर है। रात की गाड़ी से ही वापस जाऊँगा। तीन महीने से तुम्हारी कोई चिट्ठी तक नहीं मिली। जब तुम परेशान होते हो, तभी ऐसा करते हो।”
उन्होंने जेब से सौ-सौ के दस नोट निकालकर मेरी तरफ़ बढ़ा दिए- “रख लो। तुम्हारे काम आ जाएँगे। इस बार धान की फ़सल अच्छी हो गई है। घर में कोई दिक्कत नहीं है। तुम बहुत कमज़ोर लग रहे हो। ढंग से खाया-पिया करो। बहू का भी ध्यान रखो।”
मैं कुछ नहीं बोल पाया। शब्द जैसे मेरे हलक में फँसकर रह गए हों। मैं कुछ कहता इससे पूर्व ही पिताजी ने प्यार से डाँटा- “ले लो। बहुत बड़े हो गए हो क्या?”“नहीं तो” - मैंने हाथ बढ़ाया। पिताजी ने नोट मेरी हथेली पर रख दिए। बरसों पहले पिताजी मुझे स्कूल भेजने के लिए इसी तरह हथेली पर इकन्नी टिका दिया करते थे, परन्तु तब मेरी नज़रें आज की तरह झुकी नहीं होती थीं।

Friday, November 9, 2007

बाल मनोविज्ञान पर आधारित लघुकथाएँ :

:सुकेश साहनी
मेरा बचपन संयुक्त परिवार में बीता है। एक घटना याद आ रही है। सुबह उठ कर देखता हूँ–माँ रसोई में नहीं है बल्कि रसोई के बाहर बने स्टोर में अलग–थलग बैठी हैं। दादी माता जी को वहीं चाय नाश्ता दे रही है। मुझे हैरानी होती है। माँ तो बहुत सबेरे उठकर काम में लग जाती है हम रसोई उनके पास बैठकर ही नाश्ता करते हैं। हमें खिलाने–पिलाने के बाद ही खुद खाती हैं।
‘‘आपको क्या हुआ है?’’ मैं माँ से पूछता हूँ।
‘‘कुछ भी नहीं।’’ माँ कहती है।
‘‘तो आज आप यहाँ क्यों बैठी हैं, दादी खाना क्यों बना रही है?’’
‘‘वैसे ही, मेरी तबीयत ठीक नहीं है।’’ माँ हँसते हुए कहती हैं।
मेरा बाल मन सोच में पड़ जाता है– माँ बीमार भी नहीं लग रहीं,तबीयत खराब होने की बात हँसते हुए कह रही है? मैं खेलकूद में लग जाता हूँ और इस बात को भूल जाता हूँ। दोपहर में खाने के समय फिर मेरा ध्यान इस ओर जाता है। दादी माता जी को रोटी हाथ में दे रही हैं, किसी बर्तन में नहीं।
‘‘आप प्लेट में रोटी क्यों नहीं खा रही ?’’ मैं पूछता हूँ।
माँ मेरी ओर देखते हुए कुछ नहीं कहतीं। मैं अपना सवाल फिर दोहराता हूँ।
‘‘आज मैं गंदी हो गई हूँ।’’ माँ फिर हँसती हैं।
‘‘मतलब?’’
‘‘दरअसल आज जमादारिन को डिब्बे में पानी डालते समय कुछ छींटे मुझपर पड़ गए थे।’’
‘‘तो फिर?’’ मेरी समझ में कुछ नहीं आता।
‘‘जाओ खेलो, तुम अभी छोटे हो कुछ नहीं समझोगे।’’
माँ कहती हैं और दादी और ताई हँसने लगती है।
बात बहुत पुरानी है लेकिन मुझे अच्छी तरह याद है। बाल मन कितनी गहराई से सोचता है, इसी को स्मरण करते हुए इस घटना के बारे में लिख रहा हूँ। मुझे याद है इस बात पर मैंने काफी माथापच्ची की थी अपने बड़े भाइयों से भी पूछा था।
दरअसल माँ मासिक धर्म से थीं। उन दिनों उनका रसोई में प्रवेश वर्जित था। देखने की बात यह है कि मेरे द्वारा उठाए गए सवाल पर माँ ने जो उत्तर दिया उससे मेरे बाल मन पर क्या प्रभाव पड़ा? उन दिनों हमारे यहाँ आधुनिक टायलेट नहीं थे। मैला उठाने जमादारिन आती थी। माँ द्वारा मासिक धर्म की बात न बता सकने की विवशता के चलते जो कारण दिया गया, उससे बाल मन पर दलितों के अपवित्र होने की बात कहीं गहरे अंकित हो जाती है। बहुत सी बातें धीरे–धीरे खुद ही समझ में आने लगती है।
अकसर हम बच्चों को बहलाने के लिए लापरवाही से कुछ भी कह जाते हैं; जबकि बच्चे हमारी बातों को काफी गम्भीरता से लेते हैं। बाल मनोविज्ञान पर आधारित संचयन के अध्ययन से यह बात और भी स्पष्ट होकर सामने आती है। आज भी स्थितियों में बहुत बदलाव नहीं आया है। भूपिन्दर सिंह : रोटी का टुकड़ा, नीलिमा टिक्कू : नासमझ, मीरा चन्द्रा : बच्चा जैसी लघुकथाओं में बच्चों द्वारा पूछे जा रहे प्रश्न आज भी अनुत्तरित है। इतना अंतर अवश्य आया है कि शहरी क्षेत्रों में दलित वर्ग का बच्चा अब अपने शोषण के प्रति जागरूक है (कमल चोपड़ा : खेलने दो, रंगनाथ दिवाकर : गुरु दक्षिणा )
विषयों के आधार पर लघुकथा के विभिन्न संचयनों को तैयार करते समय लघुकथा की ताकत का अहसास होता है। लघुकथा लेखक उस विषय की कितनी गहन पड़ताल करने में सक्षम हैं, इसे वर्तमान संचयन में भी देखा जा सकता है।
प्रस्तुत संग्रह की लघुकथाओं को अध्ययन की दृष्टि से निम्न प्रकार वर्गीकृत किया जा सकता है–

बच्चे और शिक्षा
होश संभालते ही हर माँ–बाप बच्चे को शिक्षित करना चाहता है। सबकी सोच अलग–अलग होती है। बालक, अभिभावक और शिक्षक के बीच एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है ।शिक्षा की कोई भी विधि -प्रविधि ,पाठ्यक्रम-पाठ्यचर्या लागू करने से पहले बच्चे को समझना होगा।कोई भी तौर-तरीका बच्चे से ऊपर नहीं है और न हो सकता है ।कोई भी व्यक्ति या संस्था इसके ऊपर नहीं है ,वरन् इसके लिए है ।यह बात सदैव ध्यान में रखनी होगी ।
गिजु भाई की लघुकथा तुम क्या पढ़ोगे उन अभिभावकों पर करारा व्यंग्य है जो आनंद लेकर अक्षर ज्ञान प्राप्त कर रहे बच्चे को बाल पोथी पढ़ने के लिए विवश कर पढ़ाई के प्रति अरुचि पैदा करते हैं। आज हमारे स्कूल बच्चों के लिए यातना गृह हो गए हैं (श्याम सुन्दर अग्रवाल : स्कूल)। ऐसे पिंजरों में बंद बच्चे अपनी बाल सुलभ जिज्ञासाओं एवं इच्छाओं से विमुख होकर मशीन बन जाते हैं। ऐसे में जब किसी पाठशाला में बच्चे से खुश होकर कुछ मांगने के लिए कहा जाता है तो यदि वह ‘लड्डू’ की माँग करता है तो श्रीचन्द्रधर शर्मा गुलेरी आश्वस्त होते है उन्हें लगता है कि बच्चा बच गया, उसके बचने की आशा है। स्कूल के अध्यापकों एवं अभिभावकों ने बच्चे की जन्मजात प्रवृत्तियों का गला घोंटने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। प्रेम भटनागर की शिक्षाकाल उस विडम्बना से परिचय कराती है जहाँ स्कूल वाले बच्चे की प्रतिभा को सम्मानित करना चाहते है परन्तु स्कूल में अभिभावकों को बुलाने का एक ही अभिप्राय समझा जाता है कि बच्चे ने कोई शरारत की होगी। इस पर अभिभावक बच्चे की डायरी में लिख भेजते हैं –हमने कल रात को उसकी जम कर पिटाई कर दी है। उसने वादा किया है कि वह आगे से कोई शिकायत का मौका नहीं देगा। आशा है अब सम्पर्क की आवश्यकता नहीं रह गई है। बच्चों के मन में स्कूल के प्रति डर का बीजारोपण जाने अनजाने माता–पिता द्वारा भी कर दिया जाता है (सुरेश अवस्थी : स्कूल)। शिक्षा को कंधों पर भार के रूप में ढोता बच्चा युनिवर्सिटी तक की पढ़ाई समाप्त करने के पश्चात् खूब–खूब खेलने के सपने देखता है (अशोक भाटिया : सपना)। जहाँ शिक्षक अपने दायित्व के प्रति समर्पित हैं वहाँ बच्चा शिक्षा ग्रहण करते हुए अपने मन की गाँठें गुरुजन के आगे खोलने में देर नहीं करता (सतीशराज पुष्करणा : अन्तश्चेतना) । इस श्रेणी की अन्य लघुकथाएं हैं अहमद निसार : पद चिह्न, भगीरथ : शिक्षा, बलराम अग्रवाल : जहर की जड़े, यादवेन्द्र शर्मा चन्द्र : जिज्ञासा, शैलेन्द्र सागर : हिदायत ।


बच्चे और परिवार
बच्चे अपना अधिकांश समय घर और स्कूल में बिताते हैं। ऐसे में माता–पिता की जिम्मेवारी और भी बढ़ जाती है। बच्चों का कोमल मस्तिष्क चीजों को बहुत जल्दी ग्रहण करता है। आज भागम–भाग के दौर में काम काजी माता–पिता के पास बच्चों के लिए अवकाश नहीं है। विभिन्न कारणों से टूटते पति–पत्नी के रिश्ते बच्चों के मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव डालते हैं। आधुनिकता की दौड़ में बच्चों को कान्वेंट स्कूल में पढ़ाने वाले माता–पिता बच्चों की प्रतिभा की नुमाइश करते हुए गर्व महसूस करते हैं ऐसे अभिभावकों की पोल बहुत जल्दी खुल जाती है (महेन्द्र रश्मि : कान्वेंट स्कूल)। अक्सर माता–पिता बच्चों के प्रतिकूल आचरण हेतु टी.वी. को दोषी मानते हैं, जबकि बच्चा उनके आचरण का अनुसरण करता है (माघव नागदा : असर)। ऐसे माता–पिता की परस्पर विरोधी विचारधाराओं के बीच नन्हा बचपन पिसता रहता है (बलराम : गंदी बात)। हमारा आचरण किसी नन्हें बच्चे के मस्तिष्क में साम्प्रदायिकता के विष बीज का रोपण कर सकता है (सूर्यकांत नागर : विष बीज)। बच्चों के मानसिक विकास में आर्थिक कारण बड़ी बाधा के रूप में सामने आते हैं। गरीबी की रेखा के नीचे जीवन जीता आम आदमी बच्चे को पाठ पढ़ाते हुए सेब और अनार के बारे में बता तो सकता है लेकिन बच्चे के प्रश्नों के आगे खुद को लाचार महसूस करता है (सुभाष नीरव : बीमार)। पारस दासोत की भूख में उस माँ की पीड़ा को महसूस किया जा सकता है जो यह कहती है कि दौड़ने कूदने से भूख अच्छी नहीं अधिक लगती है इस श्रेणी की अन्य लघुकथाएं हैं –सतीश दुबे : विनियोग, नासिरा शर्मा : रुतबा, प्रेम जनमजेय : जड़, अमरीक सिंह दीप : जिंदा बाइसस्कोप, उर्मि कृष्ण : अमानत, हरदर्शन सहगल : गंदी बातें, अनूप कुमार : मातृत्व, निर्मला सिंह : आक्रोश, विजय बजाज : संस्कार, काली चरण प्रेमी : चोर,
बच्चे और समाज
बच्चों के चरित्र निर्माण में समाज का बहुत बड़ा योगदान होता है। यह दुनिया सबसे बड़ी पाठशाला है। (सुकेश साहनी : स्कूल)। आर्थिक कारणों से घर छोड़ कर कमाने निकला बालक जीवन संघर्ष करता हुआ समाज के कथाकथित ठेकेदारों को मुँह तोड़ उत्तर दे सकता है। संग्रह में सम्मिलित अधिकतर रचनाएं बच्चों के प्रति समाज की उपेक्षा को चित्रित करती है। यहाँ तक कि वक्त कटी के लिए किसी भिखारी बच्चे तमाम सवाल किए जाते हैं, बिना उसकी परिस्थितियाँ जाने। ऐसे उजबकों को बच्चा निरुत्तर कर देता है जब वह यह कहता है कि माँ को बेटा कमा कर नहीं खिलायागा तो कौन खिलाएगा (हीरालाल नागर : बौना)। समाज के निर्मम रवैये के चलते बच्चों में अपराध की प्रवृत्ति बढ़ रही है। हमारी जरा सी चूक किसी बच्चे की जीवन दिशा बदल सकती है इसे रावी की लघुकथा भिखारी और चोर में देखा जा सकता है। हरीश करमचंदाणी की लूट उन गरीब बच्चों के दर्द को रेखांकित करती है जो पतंग न खरीद पाने के कारण कटकर आई पतंग उड़ाना चाहते हैं पर यहाँ भी किसी बड़ी कोठी की छत पर खड़ा बच्चा पतंग की डोर थाम उन्हें इस खुशी से वंचित कर देता है।
छोटी उम्र में काम के लिए निकलना पड़ना जहाँ गरीब तबके के बच्चों की नियति है वहीं समाज के सक्षम तबके द्वारा आर्थिक लाभ कमाने के लिए भोलेभाले बचपन को बाल श्रम में झोंक दिया जाता है। सरकारी मशीनरी इस समस्या पर खानापूरी कर पल्ला झाड़ लेती है और यह अंतहीन सिलसिला (विक्रम सोनी) चलता रहता है। मजदूरी के लिए विवश ऐसे बच्चे सपनों (देवांशु वत्स) में जीने को विवश है। सपने और सपने (रामेश्वर काम्बोज ‘हिंमाशु’) में बहुत ही मार्मिक ढंग से इस हकीकत को रेखांकित किया गया है कि सपनों से जीवन नहीं चलता, भूख तो रोटी से ही शांत होगी। इस श्रेणी की अन्य लघुकथाएं हैं–हरिमोहन शर्मा : सिद्धार्थ, भारत यायावर : काम, कुमार नरेन्द्र : अवमूल्यन, दीपक घोष : रोटी, यशपाल : सीख, अवधेश कुमार : मेरे बच्चे, दिनेश पाठक शशि : लक्ष्य, चित्रा मुद्गल : नसीहत, जोगिन्दर पाल : चोर, नीता सिंह : टिप, मुकीत खान : भीख।
बाल मन की गहराइयाँ
बाल मन की गहराई को रेखांकित करती अनेक लघुकथाएं यहाँ उपस्थित है। कामगार का बच्चा अपने पिता की परिस्थितियों से भली–भाँति वाकिफ है (रमेश बतरा : कहूं कहानी)। डॉ. तारा निगम की लघुकथा में बच्ची माँ से गुड़िया न लेने की बात कहती है क्योंकि उसे पता है कि आगे चलकर उसे गुड़िया नहीं बनना है। राजेन्द्र कुमार कन्नौजिया की लघुकथा की लड़की उस घरौंदे को बार–बार तोड़ देती है जिसपर लड़का सिर्फ़ अपना नाम लिखता है। वह उससे कहती है कि तू इस पर मेरा नाम क्यों नहीं लिखता। इस श्रेणी में राजेन्द्र यादव की अपने पार उत्कृष्ट रचना है। इस श्रेणी की अन्य लघुकथाएं हैं–विष्णु नागर : बच्चा और गेंद, अनिंन्दिता : सपने, रमेश गौतम : बारात, जगदीश कश्यप : जन–मन–गण, पूरन मृद्गल : जीत, विनायक : नाव, प्रबोध कुमार गोविल : माँ, श्याम सुन्दर दीप्ति : बदला, राजकुमार घोटड़ : जन्मदिन का तोहफा, कमलेश भट्ट कमल : प्यास।
संग्रह में शामिल रचनाओं का संक्षिप्त वर्गीकरण प्रस्तुत है। देशान्तर में विभिन्न देशों की लघुकथाएं भी शामिल की गई हैं ।बच्चों को प्यार करने वाले लोग इन कथाओं पर चिन्तन ज़रूर करेंगे । यहाँ प्रस्तुत रचनाओं को पुस्तकाकार प्रकाशित करने की भी योजना है, आपके अमूल्य सुझावों की प्रतीक्षा रहेगी।
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Thursday, October 25, 2007

मैग्मा

आंखों पर तेज रोशनी पड़ती है, एक पल के लिए कुछ दिखाई नहीं देता। प्रकाश के स्रोत की ओर नजरें गड़ाकर देखता हूं। धीरे–धीेरे सब कुछ स्पष्ट दिखाई देने लगता है–एक बड़ा–सा गोला है, जो अपने–आप में किसी लट्टू की तरह घूमता हुआ चक्कर लगा रहा है। इस गोले का केंद्रीय भाग ठोस न होकर पिघला हुआ है, पिघले भाग के तापमान का अनुमान इसी से हो जाता है कि यह भाग खौल रहा है, अंगारे–सा दहक रहा है। इसी भाग से प्रकाश फूट रहा है।
एकाएक उस गोले से नंगा आदमी निकलकर मेरे सामने खड़ा हो जाता है। गोले से फूटते प्रकाश में उसका शरीर जगमग कर रहा है। ऐसा लगता है, मानव उसका शरीर क्वाट्र्ज का है और प्रकाश उसके भीतर से फूट रहा है। उसके सीने वाले भाग में उस गोले जैसा खौलता द्रव पदार्थ है। मुझे लगता है कि मैंने इस तरह का दृश्य पहले भी कहीं देखा है। दिमाग पर जोर डालता हूँ तो याद आता है कि बरसों पहले जियोलॉजिकल स्टडी टुअर के दौरान इलेक्ट्रिक फरनेस में देखने का अवसर मिला था, जिसमें उच्च तापमान में लोहे को पिघलाया जा रहा था। भट्ठी में पिघला लोहा सोने–सा दमक रहा था, लेकिन उस पिघले लोहे को अधिक देर तक नंगी आंखों से देखना संभव नहीं था। कुछ ही पलों में हम पसीने से नहा गए थे... ठीक वैसा ही दृश्य है, पर इस गोले और आदमी के भीतर के पिघले द्रव को लगातार देख पा रहा हूँ।
सामने खडे आदमी का चेहरा किसी बच्चे जैसा है। लगता है, इसे अच्छी तरह जानता हूँ.... पर उसका नाम–पता याद नहीं आता।
गोले की सतह दर्पण सी चमक रही है।
बडा–सा मैदान है। जहां तक नजर जाती है .... रेत –ही–रेत है.... पेड पौधौं का नामोनिशान तक नहीं है .... कोई जीव जन्तु भी दिखाई नहीं देता.....रेत पर नंगे आदमी के पैरों की छाप स्पष्ट दिखाई दे रही है। जहां–जहां उसके पैर पडते हैं, नन्हीं घास उग आती है। वह एक जगह जमीन में गड्ढा खोदता है, वहां से फव्वारे के रूप में पानी फेट पड़ता है। जगह–जगह नन्हें पौधे दिखाई देने लगते हैं। वह पौधे को छूता है.... पौधा पेड़ में तब्दील हो जाता है। पेड़ को छूता है.... पेड़ फलों से लद जाता है। वह किसी बैले डांसर की तरह इधर से उधर थिरक रहा है। देखते ही देखते वो रेगिस्तानी भाग भरे–पूरे जंगल में बदल जाता है। उस आदमी के सीने का खौलता द्रव वहां के सभी प्राणियों में दिखाई देने लगता है, ठीक किसी सेल (कोशिका) के न्यूकलिअस की तरह।
सोचता हूँ, इस नंगे आदमी और उसके सीने की आग को कैमरे में कैद कर लेना चाहिए। पूरी दुनिया में धूम मच जाएगी, एक–एक फोटोग्राफ लाखों का बिकेगा।
कैमरे को आंख से लगाकर लेंस को फोकस करता हूँ .....हरा–भरा जंगल तो दिखाई देता है, पर नंगा आदमी गायब हो जाता है। फिर कोशिश करता हूँ .... इस बार कोई दूसरा दिखाई देता है, उसने ठीक मेरे जैसा सूट पहन रखा है। मुझे निराशा घेर लेती है, क्योंकि उसके सीने में वो आग दिखाई नहीं देती। मै कैमरा एक ओर रख देता हूँ ।
उस आदमी के सीने की आग के प्रति मन में विचित्र–सी प्यास जाग जाती है। सोचता हूँ ––वह आदमी नंगा था, जंगल के दूसरे जीव जंतु भी नंगे थे। क्यों न अपने कपड़े उतार कर देखूँ....शायद मेरे भीतर भी वैसी ही आग हो।
मन में आशा बंधती है।
मै एक–एक कर अपने कपडे़ उतारने लगता हूँ ,पर कपड़े हैं कि खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहे है,ं प्याज के छिलकों की तरह एक के बाद एक निकलते आ रहे हैं। जल्दी ही थक जाता हूँ। सोचता हूँ कि मुझे कपड़े उतारने में समय बर्बाद नहीं करना चाहिए, बल्कि उस नंगे आदमी को ही खोजना चाहिए।
जंगल में भटक रहा हूँ .... जहां–जहां मेरे पैर पड़ते हैं , वहां–वहां की घास जलकर राख हो जाती है। जिस चीज को छूता हूँ मिट्टी हो जाती है। पानी पीने के लिए जिस जल–स्रोत की ओर हाथ बढा़ता हूँ वह सूख जाता है। घबराकर मै रोने लगता हूँ ।
कंधे पर स्नेहिल स्पर्श से मैं चौक पड़ता हूँ। सिर उठाकर देखता हूँ––मुझसे थोडी़ दूरी पर वह खड़ी है। उसके बाल चांदी –से चमक रहे हैं, चेहरे पर वात्सल्य है। उसके सीने में भी खौलता हुआ द्रव है।
‘‘तुम रो क्यों रहे थे?’’ वह पूछती है।
‘‘वो मैं...’’ मैं संभलकर जवाब देता हूँ ‘‘शायद मैंने कोई बुरा सपना देखा था।’’
वह कुछ नहीं कहती, एकटक मेरी ओर देखती है। उसके चेहरे पर गहरी उदासी है, बहुत देर तक हममें कोई बात नहीं होती।
‘‘आओ, मैं तुम्हारे सीने में फिर से खौलते द्रव (मैग्मा1) की आग भर दूं। ’’ वह अपनी बांहें मेरी ओर फैला देती है।
मैं डरकर पीछे की ओर खिसकता हूँ।
यहीं जाग जाता हूँ। कमरे में नाइट बल्ब की धुंधली रोशनी है। दिल की धड़कन अभी तक असामान्य है। सीने में अजीब–सी सुलगन है। कमरा काफी गर्म है ।
सपने में अपने रोने की बात याद कर राहत–सी महसूस करता हूँ । कहते हैं––सपने में रोना शुभ होता है। उठकर एयरकंडीशनर की गति बढ़ा देता हूँ कमरा बिल्कुल पहले जैसा हो जाता है .... एकदम ‘ठंडा’।
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मैग्मा 1 पृथ्वी के भीतर सदैव पिघली अवस्था में रहने वाला द्रव पदार्थ बहुत–सी प्रक्रियाओं के लिए उत्तरदायी । यहीं द्रव जब धरती की सतह पर निकल आता है, तो लावा कहलाता है।

Saturday, July 7, 2007

सुकेश साहनी का लघुकथा संसार


जगदीश कश्यप
आठवें दशक में हिन्दी लघुकथा के पुनरुत्थान में जिन हस्ताक्षरों ने अपनी लेखकीय अस्मिता को दाँव पर लगाया और उसे साहित्यिक ऊँचाई प्रदान की, उनमें से अधिकतर किसी–न–किसी परिस्थितिवश लघुकथा क्षेत्र से तिरोहित होते दीखते हैं। मोहन राजेश, रमेश बतरा, सिमर सदोष, कमलेश भारतीय,मधुप मगधशाही, लक्ष्मेन्द्र चोपड़ा व कृष्ण कमलेश इसी कोटि में रखे जा सकते है। भगीरथ,डॉ0 सतीश दुबे, बलराम अग्रवाल,नीलम जैन, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ जैसे इने–गिने नाम ही रह गए हैं ,जो लघुकथा के विकास में अब भी सक्रिय हैं।
ऐसे में लघुकथा नौवें दशक के लघुकथा लेखकों में अपना भविष्य स्थापित करने को बेचैन दिखाई देती है। नौवें दशक के शुरू में कुछ ऐसे नाम उभर कर सामने आए हैं, जिन्होंने आठवें दशक के लेखकों द्वारा लघुकथा के स्थापित मानदण्डों को और सुदृढ़ किया है। ऐसे इने–गिने नामों में सुकेश साहनी का नाम बेहिचक लिया जा सकता है।
सुकेश साहनी नये यद्यपि आठवें दशक में ही लघुकथा लेखन आरम्भ कर दिया था, जब उनकी रचनाएँ डॉ0 हरिवंशराय बच्चन के अतिथि सम्पादन में अक्ष–1977 में छपी थीं लेकिन साहनी का लघुकथा लेखन में क्रमबद्ध शुरूआत 1984 से ही मानी जानी चाहिए, जब सारिका के लघुकथा विशेषांक में डरे हुए लोग शीर्षक लघुकथा छपी थी; जो काफी सराही गई।
सुकेश ने तेरह वर्ष की आयु में ही लिखना शुरू कर दिया था। पन्द्रह वर्ष की आयु में सुकेश साहनी को पाकेट बुक्स जगत के दो दिग्गज उपन्यासकारों, सर्वश्री ओमप्रकाश शर्मा एवं वेद प्रकाश काम्बोज का सत्संग एवं मार्गदर्शन मिला। उस दौर में सुकेश ने आठ उपन्यास लिखे जिनमें से दो ज्ञानाश्रय प्रकाशन से प्रकाशित भी हुए। तार्किक स्तर की बाल–रचनाएँ धर्मयुग ने लगातार छापीं तथा कहानियों की शुरूआत मुक्ता से हुई। इस तरह के लेखन से सुकेश कतई संतुष्ट नहीं थे और व्यावसायिक दृष्टिकोण वाले लेखन को छोड़कर इन्होंने लघुकथा में चुनौतीपूर्ण लेखन करने की सोची, जिसमें राष्ट्रीय व प्रादेशिक स्तर पर साहित्यिक पहचान की गुंजाइश भी अपेक्षाकृत कम है। इस मायने में सुकेश का लघुकथा–लेखन वास्तव में उनकी लघुकथा के प्रति सच्ची प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
1984 में ही मिनीयुग पत्रिका के कारण सुकेश का मुझसे सम्पर्क हुआ तो लगा कि बहुत बरसों बाद मुझे ऐसा लेखक मिला, जो एक दिन लघुकथा की मर्यादा को नयी ऊँचाई देगा। मेरी इस अवधारणा को सुकेश ने साकार कर दिखाया है। नौवें दशक के निराशाजनक लघुकथा–लेखन में सुकेश की लघुकथाएँ कीचड़ में कमल की तरह खिली नजर आती हैं, जिन का प्रस्फुटन नैसर्गिक और मुग्धकारी है।
सुकेश साहनी ने जानबूझकर लघुकथा को ही अपने लेखन का आधार बनाया है। अत: इनकी तमाम रचनाओं में कहानी की–सी विराट शक्ति, काव्य के अद्भुत बिम्ब, ढहते हुए सामाजिक मूल्यों पर चिंता, ग्राम संस्कृति का भोला–भाला जीवन, जहरीले रेडियम की तरह चमकती शहरी सभ्यता के खोखले अहम् के पीछे भागते कस्तूरी मृग जैसे लोग व निम्न मध्यवर्ग की सारी पीड़ा और निराशा के साक्षात् दर्शन होते है। ऐसा इस कारण भी सम्भव हो पाया है कि इन्होंने विश्व के प्रसिद्ध लेखकों के कथा–साहित्य का भरपूर अवगाहन किया है।
सुकेश साहनी की सारी रचनाएँ अलग–अलग दिशाओं के मील के वे पत्थर हैं जहाँ से भारतीय समाज की सोच, उत्थान–पतन और अधिकारी वर्ग की नैतिकता को परखा जा सकता है।
इस संग्रह की तमाम रचनाओं पर टिप्पणी करना न तो सम्भव है और न ही वांछनीय है। कारण, इन रचनाओं को पढ़ते वक्त आपको लगेगा कि रचनाओं के पात्र आपसे रू–ब–रू हैं। चूंकि लघुकथा को आज भी हिन्दी के समीक्षक एक अनचाहे रूप में लेने का मजबूर हैं, अत: सुकेश की रचनओं पर टिप्पणी करना और भी जरूरी हो जाता है।
सुकेश साहनी की तमाम रचनाएँ पढ़ने के बाद यही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि इन्होंने सीधी–सादी रचनाओं में एक प्रकार का प्रयोग किया है, जो इन्हें दूसरे लघुकथा लेखकों से अलग करता है। इनका अंदाजे–बयां मूलत: लघुकथा का ही है–बेशक उसमें कोई लम्बी कहानी तलाश ली जाए या पुरजोर बहस छेड़ दी जाए। सम्प्रेषणीयता को बनाए रखने की बेचैनी इनकी रचनाओं का प्रतिपाद्य है।
यद्यपि सुकेश साहनी का रचना संसार दस वर्ष से भी कम का है, लेकिन इनकी एक–एक रचना अपने–आप में बहस का विषय है। इनकी लघुकथाओं को निम्न में वर्गीकृत किया जा सकता है।
एक–जड़बद्ध सामाजिक रूढि़यों पर चोट और निम्न मध्यमवर्गीय कुण्ठा जनित विवशताओं का उद्घाटन: गोश्त की गंध,आदमजाद, तृष्णा,पितृत्व, दादाजी, स्कूटर आदि।
दो–रागात्मक सम्बन्धों के खोखलेपन, झूठे स्टेटस सिंवल की विवशता और सांस्कृतिक चारित्रिक संकट के प्रति अभिव्यक्ति: मोहभंग, गाजर घास, इमीटेशन, हारते हुए, तंगी, पैण्डुलम, अपने–अपने सन्दर्भ आदि।
तीन–राजनैतिक/प्रशासनिक दबाबों की बानगी के बहाने भ्रष्ट प्रशासन और योजनातंत्र पर चोट: भेडि़ये, सोडावाटर, नीति–निर्धारक, श्रेयपति, टेक इट इजी, यम के वंशज, जनता का खून, चतुर गांव, चक्रव्यूह, मास्टर प्लान आदि।
चार–सामाजिक मनोविज्ञान को अपने ढंग से पढ़ने की नायाब कोशिश: दृष्टि, तंगी, नपुंसक, कैक्टस और कुकुरमुत्ते, अपने लोग, प्रदूषण, यही सच है, मुखौटा हुड, सांसों के ठेकेदार आदि।
पाँच–जीवन के अन्य विविध पक्षों पर शैलीगत प्रयोग: कस्तूरीमृग, आइसबर्ग, उजबक, आधे–अधूरे, शासक और शासित, आखिरी पड़ाव का सफर, धूप–छाँव, जहाँ के तहाँ, रिश्ते के बीच, मृत्युबोध आदि।
जैसा मैं कह चुका हूँ–इनकी हर रचना में कोई न कोई प्रयोग है। लेखक ने ऐसा सम्भवत: इस कारण भी किया है कि दहेज, भ्रष्टाचार आदि पर न जाने कितने लेखकों ने अपनी कलम चलाई है। सुकेश ने अपनी प्रयोगधर्मिता से इस तरह के विषयों पर भी आदर्श लघुकथाएँ उल्लेखनीय हैं।
अब मैं सुकेश साहनी की कुछ रचनाओं पर चर्चा करूँगा:
एक– इस वर्ग में इनकी प्रतिनिधि रचना गोश्त की गंध ली जा सकती है।
हमारे निम्न मध्यम वर्गीय परिवारों में दामाद को अभी भी भगवान या वी0आई0पी0 जैसा दर्जा दिया जाता है। यह वर्ग लड़की की शादी में निचुड़ कर भी दामाद के स्वागत में पलकों के पाँवड़े बिछाए रहने को तैयार रहता है– खुशी–खुशी। बेशक अपने लिए सूखी रोटी भी मयस्तर न हो, लेकिन दामाद के लिए अच्छी सब्जी, घी के पकवान परोसना यह वर्ग अपना अहोभाग्य समझता है। ऐसे ही एक दिन का दृश्य लेखक ने चित्रित किया है। जब उसे पनीर की सब्जी पेश की जाती है। तो उसे लगता है कि उसमें माँस के टुकड़े तैर रहे है। वे माँस के टुकड़े जो साले की टाँग के हैं, ससुर के गाल और सास की कलाइयों के हैं। क्या उसे इतने दिनों तक ये लोग अपना माँस परोसते रहे? वह हैरत में आ जाता है। पत्नी उसे बताती है कि प्लेट की सब्जी शाही पनीर की है। तब दामाद ऐसी आवभगत से आतंकित होकर स्वयं में ही शर्मिदा होकर खुद को सास–ससुर का बेटा घोषित करता है। लगता है जैसे सास–ससुर को जिन्दगी भर की खुशी मिल गई हो। इस प्रकार रचना का समापन एक सुखांत मोड़ पर हो जाता है।
लेखक इस दामाद के बहाने उन सभी दामादों पर चोट करता है जो सास–ससुर से जिन्दगी भर आवभगत करवाने में नहीं हिचकते और उसे अपना विशेषधिकार मानते हैं। यह समस्या निम्न मध्यम परिवारों में सनातन रूप से विद्यमान है और न जाने कब तक चलती रहेगी। लेखक इस अनदेखे पहलू को जिस रूप् में विचित्र करता है, वह गोश्त की गंध है। ऐसी गोश्त की गंध हमें पहले ही क्यों नहीं महसूस होती?
दो–इस वर्ग में सुकेश की कई रचनाएँ सार्थक टिप्पणी की मांग करती हैं। मोहभंग जैसी सैकड़ों रचनाएँ लिखी जा चुकी हैं लेकिन लेखक ने रागात्मक सम्बन्धों के मोहभंग को कुशलता से चित्रित किया है। छोटा भाई मद्रास से शिक्षा समाप्त कर अपने स्व0 पिता की फैक्टरी को अपने तकनीकी ज्ञान से लाभान्वित करने घर आता है। यद्यपि उसके टीचर ने मद्रास में ही उसे शहर के लगाव के कारण उनका यह प्रस्ताव ठुकरा देता है। एक सुबह भाई ने उसके साथ जिस तरह का अनपेक्षित व्यवहार किया, उससे उसका मोहभंग हो जाता है। भाई उसे नौकरी पर ही देखना चाहता है और बड़े भाई होने की अहंमन्यता से ग्रसत होकर उससे हिकारत से पेश आता है जिससे छोटे भाई का पूरा अस्तित्व ही हिल जाता है और वह अनायास ही मद्रास वापस जाने का मन बना लेता है। आज के युग में हमारे खून के रिश्ते स्वार्थवश किस कदर औपचारिक हो गए है, इस कथन को बड़े ही मनोयोग से लेखक ने विकसित किया है।
इस वर्ग की एक और प्रतिनिधि रचना गाजर घास है– तथाकथित प्रगति ने हमारे सामाजिक/सांस्कृतिक मूल्यों पर जो चोट की है, उससे हमारे समाज का परम्परागत ढांचा ही चरमरा गया है। एक प्रकार की सुविधाभोगी संस्कृति ने हम सबको जकड़ लिया है। संयम से परिपूर्ण भारतीय दर्शन की उर्वरा धरती पर अवमूल्यन की गाजर घास तेजी से पनपती जा रही है, जिस कारण एक प्रकार की सामाजिक शृंखला चारों ओर व्याप्त हो गई है। लेखक ने अपना दायित्व निभाते हुए अपनी इस रचना से हम सबका ध्यान बरबस अपनी ओर खींच लिया है। रिटायर्ड बुजुर्ग, जिसमें एक आम आदमी की तरह पारिवारिक दायित्व बोध है, वह अपने ही परिवार में एक अजनबी बनकर रह गया है। चित्रहार के वक्त वह किस तरह आधे घण्टे का समय बिताने के लिए ठण्डी रात में घर से निकलने के लिए बाध्य है। पनवाड़ी के यहाँ दो युवकों की अश्लील बातचीत और साइकिल सवारों का फूहड़ व्यवहार नई पीढ़ी के चारित्रिक पतन को रेखांकित करते हैं।
तब वह एक पुलिया पर जाकर बैठ जाता है। जिसके पास उगा बेशर्म का झाड़ उसे दिखाई देता है। वस्तुत: अंत में लेखक ने रचना की सारी मानसिकता का एक विश्वसनीय बिम्ब उभार दिया है, जो एक श्रेष्ठ जीवन काव्य है–साथ ही हमारे समाज के भावी रूप का एक खाका भी उभर कर सामने आ जाता है।
इसी संकट को और आगे वह इमीटेशन में उठाता है। पति–पत्नी अपनी विलासिता के लिए वीडियो में जिस तरह ब्ल्यू फिल्में देखते हैं उससे बच्चों पर क्या असर पड़ सकता हैं, इसे बहुत ही बोल्ड तरीके से लेखक ने दिखाया है, जिसे कोई बोल्ड सम्पादक हीर छाप सकता है।
तीन–इस वर्ग में सोडावाटर रचना उल्लेखनीय है। जिस तरह सोडावाटर की बोतल का ढक्कन खोलते ही सोडावाटर उफनता है लेकिन कुछ क्षणों में बुलबुले शांत होकर खत्म हो जाते हैं, उसी प्रकार चीफ जब एक मातहत अधिकारी की भ्रष्टता की जाँच करने आते हैं तो भ्रष्ट पात्र उनका उबाल शांत करने को जो तरीके अख्तियार करता है, उसे लेखक ने बड़े ही सटीक ढंग से उजागर किया है। चीफ साहब को फाइव स्टार होटल में ठहराने, अपने घर उन्प्हें खाने के लिए तैयार कर तरह–तरह के उपहार और उनकी लड़की की शादी की दुहाई देकर दस हजार का इंतजाम कर चीफ को जाल में फँसाकर गद्गद कर देता है। इस प्रकार उसे चीफ उसे ईमानदारी का फतवा भी दे देता है और आश्वस्त करता है कि सेक्रेटरी से कहकर मामले को ठीक करा देगा।
भ्रष्ट लोगों की जांच किस तरह टाँय–टाँय फिस्स हो जाती है और भ्रष्टाचार को किस तरह सरकारी विभागों में पाला–पोसा जा रहा है, इसका नग्न चित्रण लेखक ने बड़े ही सहज ढंग से किया है। लेखक इस तरह की रचना से स्वयं संतुष्ट नहीं रहा। वह इस तरह के भ्रष्टाचार का कतई समर्थन नहीं करता। अपनी इस तकलीफ को लेखक ने टेक इट ईजी में और आगे दिखाया है। जब अधिकारी अपने छोटे अधिकारी से कहता है कि ग्राम नैना की रिग मशीन (ट्यूबबेल निर्माण में प्रयोग की जाने वाली) ग्राम मेवा में भेजी जाए तो कनिष्ठ अधिकारी इसे बात का विरोध करता है और बताता है कि ग्राम मेवा में तो पहले ही नहरों का जाल बिछा है जबकि नैना गाँव के लोगों की हालत पानी न मिलने के कारण खराब हे, पर वरिष्ठ अधिकारी कहता है कि मंत्री के आदेश से ही रिन मशीन मेवा गांव में भिजवाई जा रही है। जब वह अधिकारी के कमरे से बाहर निकलता है तो उसे सुनाई देता है–टेक इट ईजी। वस्तुत: लेखक ने सरकारी मशीनरी में नेताओं की दखलअंदाजी और अधिकारियों की घुटने टेक नीति पर तीव्र व्यंग्य किया है। इसे बड़ी सहजता से लिया जाता है लेकिन इस ईमानदार और अपने कर्तव्य के प्रति सचेष्ट अधिकारी इस सबको किस प्रकार सहजता से ले, लेखक ने प्रश्न उठाया है।
नरभक्षी,नीति निर्धारक,श्रेयपति में भी लेखक ने इसी तरह के तथ्यों को उजागर किया है।
चार– इस वर्ग में नपुंसक रचना विचारणीय है। हम शिक्षा में पाश्चात्य शिक्षा पद्धतियों की नकल और एक प्रकार की शैक्षिक गुण्डागर्दी को बढ़ावा दे रहे हैं, जिसमें आमूल–चूल परिवर्तन की जरूरत है। विश्वविद्यालय में शिक्षा के नाम पर क्या–क्या कुकर्म हो सकते हैं या हो रहे है, टी0 वी0 के आने से इनको काफी लोगों ने अपने आंखों से देखा होगा। कालिज के ये शोहदे किस तरह इस रचनामें मैं पात्र सहित एक मजबूर लड़की के साथ मजा लेना चाहते हैं और एक–एक करके निबटते हैं। मैं पात्र लड़की के साथ कुछ नहीं करता। वह अपने हाव–भाव से ही लड़कों को बता देता है– बड़ा मजा आया। पात्र का मैं उसे नपुंसक कहकर धिक्कारता है, क्योंकि वह अपने साथियों की कुत्सित योजना का विरोध न करके उसी का एक हिस्सा बनकर स्वयं को मर्द कहलाना पसंद करता है। ऐसे तमाम मर्दो पर लेखक ने रचना रचकर थूक दिया है।
प्रदूषण रचना भी उल्लेखनीय है जिसमें पात्र महानगर के प्रदूषण से ऊबकर कश्मीर की वादियों में सुकून की तलाश में जाता है। वहां भी कैसे–कैसे उसका शोषण होता है। वहां पर भी महानगर के प्रदूषण को पैर पसारे देखकर उसका जी खिन्न हो जाता है। पर्यावरण संकट को लेखक ने जिस आसन्न संकट के रूप में हमारे सामने रखा है, वह एक भयावह स्थिति है। इससे किस तरह निबटा जाएगा, यही लेखक कहना चाहता है।
पांच– इस वर्ग में जो रचनाएँ मैंने चुनी है उनमें आइसबर्ग और कस्तूरीमृग शैली के दृष्टिकोण से उत्कृष्ट रचनाएँ हैं।
आइसबर्ग में लेखक ने यह दिखाया है कि दंगों में एक आम आदमी के फंस जाने और उससे निकलने के बीच की भयावह स्थिति को किस तरह झेलना पड़ता है। श्रीमती गांधी की हत्या की प्रतिक्रिया में भड़के दंगों के बीच वह पात्र फँस जाता है। किसी तरह वह अपने घर पहुँच जाना चाहता है। स्टेशन पर खड़ी गाड़ी में बैठ जाता है। उसके सामने जो लोग बैठते हैं, उन्हें देखकर वह अपने हाथ में पहना लोहे का कड़ा छिपा लेता है ताकि उसे सिक्ख न समझ लिया जाए और सिक्खों के अत्याचार की मनगढ़न्त कहानी सुनाकर स्वयं को उनके विश्वाअ में ले ल्लेता है।जब वे इटावा स्तेशन पर उतर जाते हैं तो उसी डिब्बे में चार –पाँच सिक्ख चढ़ आते हैं, बचते–बचाते। अब वह अपने हाथ के छिपे कड़े को बाहर निकालकर उनसे पंजाबी में बात करता है और सिक्खों पर हुए अत्याचार की फर्जी कहानी सुना देता है। जब उसे विश्वास हो जाता है कि वे लोग उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकेंगे तो आराम से पसरकर अपने बच्चे की याद कर मुस्कराने लगता है।
लेखक ने यहाँ दो बातें उठाई हैं। एक, समाज में फर्जी खतरे पैदा करने की प्रक्रिया दंगों में तेज हो जाती है, ऐसे खतरों से बचा जाए। दूसरे, एक निर्दोष आदमी, जिसका इन दंगों से कुछ लेना–देना नहीं होता, अपनी जान–माल की क्षति कर बैठता है–अकारण ही। लेखक ने इस नाजुक विषय को जिस शैली में प्रस्तुत किया है, वैसी रचनाएं हजार में एकाध दिखाई पड़ती हैं।
सुकेश साहनी ने अपनी रचनाओं से यह सिद्ध किया है कि लघुकथा लेखन में कथानक उठाना, कथ्य का विकास करना, भाषा शैली का निरूपण कहानी, कविता व औपन्यासिक अंदाज में नहीं किया जा सकता बल्कि लघुकथा के लिए नए प्रकार के अनुशासन की जरूरत है। इसकी एक निश्चित टैकनीक है जिसे व्यावहारिक रूप में सुकेश की रचनाओं में देखा जा सकता है। चूंकि लघुकथा के आलोचना पक्ष को पुष्ट करने वाले स्वयं लघुकथाकार ही हैं और लघुकथा की एक निश्चित रचनाधर्मिता भी एक निश्चित दिशा निर्धारित कर चुकी है, जिसे मैंने मिनीयुग के हर अंक में दिया है अत: लोगों की यह चिन्ता बेमानी है कि लघुकथा में समीक्षक न होने से इसका स्वतन्त्र मूल्याकंन किया जाना संभव नहीं है। अगर ऐसे लोगों को सुकेश साहनी की लघुकथाएँ मूल्यांकन करने को दी जाएँ तो वे निश्चित ही सुकेश साहनी को कहानी की कसौटी पर कस देंगे।
मेरा यह दृढ़ मत है कि सुकेश साहनी का यह लघुकथा–संग्रह लघुकथा से परहेज करने वाले समीक्षकों और विद्वानों को लघुकथा–समीक्षा की नई भाषा लिखने के लिए मजबूर करेगा।

मेरी रचना प्रक्रिया


सुकेश साहनी

सबसे पहले किसी रचना ने मेरे भीतर कब और कैसे जन्म लिया? इस विषय में जब भी सोचता हूतो अपने नन्हें रूप् को माँ के साथ रजाई में पाता हूं और मां से सुनी पहली कहानी दिमाग में घूमने लगती है....सात भाइयों की इकलौती बहन मेले में जाने के लिए अपनी भाभियों से बारी–बारी से दुपट्टा मांगती है। सब मना कर देती है। बहुत मिन्नतें करने पर एक भाभी दुपट्टा दे देती है। मेले में झूला झूलते हुए दुपट्टे पर एक कौआ बीट कर देता है। बहन की लाख कोशिशों के बाद भी दुपट्टे से बीठ का वह दाग साफ नहीं होता। दुपट्टे पर बीट देखकर भाभी को बहुत बुरा लगता है। वह अपने पति से जिद करती है कि दुपट्टे को बहन के खून से रंग दे तभी उसे शांति मिलेगी। भाई अपनी पत्नी के कहने पर बहन को मारकर उसके खून से दुपट्टा रंग लेता है। बहन को कत्ल कर जिस जगह गाड़ दिया जाता है, वहाँ से आम का एक पेड़ निकल आता है। वहां से गुज़र रहा एक धोबी पेड़ के आम तोड़ने की कोशिश करता है तो पेड़ से आवाज़ आती है, ‘‘धोबिया वै धोबिया, अम्म न तोड़, सक्के वीरे मारा भाभी शालू गिदा बोड़!’’ जब भी कोई राहगीर उस पेड़ के नज़दीक आता तो पेड़ बोल उठता–‘‘सगे वीरे मारा भाभी....’’
उस समय पेड़ का बोलना और मां का गाकर कहना बहुत भाता था और मैं मां से बार–बार जि़द करके यही कहानी सुनता था। अन्य बातों केा समझने की मेरी उम्र ही नहीं थी।
उपयु‍र्क्त कहानी के बारे में सोचने की शुरूआत काफी बाद में हुई। माँ से मिलने आई कोई महिला कमरे में बैठी है–मैं भी वहीं हूँ। वह मुझसे पूछती है कि हम कितने भाई–बहन हैं। मुझे उत्तर देने में देर लगती है। अँगुलियों पर गिनता हूँ और फिर उत्तर देता हूं–‘‘छह भाई, तीन बहनें।’’ इसने तो अपने चाचा–ताऊ के बच्चों को भी गिन लिया है।’’
मुझे अच्छी तरह याद है कि माँ के शब्दों से मैं हतप्रभ रह गया था। लगा जैसे कोई अमूल्य चीज़ छीन ली गई है। सारा दिन उदासी में डूबा रहा था। शील भइया मेरे भाई नहीं हैं? शम्मी मेरी बहन नहीं है? दिल मानने को कतई तैयार नहीं था। इसी उधेड़बुन के बीच एकाएक धमाके के साथ मां से सुनी कहानी की पंक्तियां दिमाग में कौंध गई: ‘‘सगे वीरे मारा भाभी शालू गिदा बोड़।’’ उस दिन अपने नन्हें दिल पर पहली बार खरोंच महसूस की। चाचा–ताऊ के बच्चे सगे भाई–बहन नहीं होते है....सगा....चचेरा!....चचेरे....सगे! सगे भाई अपनी बहन को मारकर पत्नी के लिए दुपट्टा रंग लेता है! आखिर यह चक्कर क्या है? मुझे लगता है कि दिल पर पड़ी खरोंच और मेरी भावुकता भरी सोच के साथ पहली रचना ने मेरे भीतर जन्म लिया था।
लघुकथा के संदर्भ में भी जीवन–यात्रा के विभिन्न पल छोटे–छोटे एहसासों के रूप् में दिलोदिमाग पर छा जाते हैं। अनूकूल परिस्थितियाँ पाते ही जब इनमें साहित्यिक रूप के साथ जीवन का गर्म लहू दौड़ने लगता है, जब उसके साथ उससे संबंधित कुछ विचार व्यवस्थित होकर घुल–मिल जाते है, तभी लघुकथा कागज़ पर उतार पाता हूं। मेरी एक लघुकथा है–यम के वंशज। अपनी बात शायद इस रचना के माध्यम से अधिक स्पष्ट कर पाऊँ। काफी कष्ट सहकर मेरी पत्नी ने अस्पताल में पुत्र को जन्म दिया था जिसकी चौबीस घंटे से पहले एक प्रमाण–पत्र पर हस्ताक्षर करवाए थे, जो इस प्रकार था–‘‘मैं अपने मृत बच्चे की लाश लिए जा रहा हूँ। मैं अस्पताल में दी गई चिकित्सा से संतुष्ट हूँ। मुझे यहाँ के किसी कर्मचारी से कोई शिकायत नहीं है।’’ बच्चे का शव अस्पताल से प्राप्त करते हुए मेरी मन:स्थिति क्या रही होगी, सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। प्रमाण–पत्र पर हस्ताक्षर करते समय लघुकथा लेखन या इस विषय पर गौर करने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता था। एक एहसास ज़रूर हुआ था जो दिमाग में कहीं अंकित हो गया था।
कुछ दिनों बाद अस्पताल में इमरजेंसी वार्ड में किसी संबंधी को देखने जाना पड़ा। वहां नर्स और वार्ड ब्वाय का एक देहाती महिला के साथ दु्र्व्यवहार देखकर तबीयत खिन्न हो गई। अचानक प्रमाण–पत्र पर अपने हस्ताक्षर करने वाली घटना जीवंत होकर इस घटना के साथ घुल–मिल गई और इस प्रकार यम के वंशज के रूपमें एक लघुकथा ने जन्म लिया।
स्पष्ट है कि कथा की विषयवस्तु, लेखकीय दृष्टि एवं उससे संबंधित विचार मिलकर मुकम्मल रचना का रूप् लेते हैं। मैंने यहां जानबुझकर रचना अथवा कथा शब्द का प्रयोग किया है क्योंकि उपयु‍र्क्त कथन साहित्य की किसी भी विधा के लिए प्रयोग किया जा सकता है। अधिकतर रचनाओं की विषयवस्तु हमें जीवन की हल–चल से मिलती है। देखने में आ रहा है कि आज लिखी जा रही बहुत–सी लघुकथाओं में सिफ‍र् विषयवस्तु, घटना या एहसास का ब्योरा मात्र होता है। लघुकथा का भाग बनने के लिए ज़रूरी है कि इस घटना, एहसास या विचार को दिशा और दृष्टि मिले, लेखक उस पर मनन करे, उससे संबंधित विचार भी उसमें जन्म लें।
कोई स्थिति, घटना, एहसास या विचार ही हमें लिखने के लिए प्रेरित करता है। इसे हम किसी रचना के लिए कच्चा माल भी कह सकते हैं। वस्तुत: कच्चे माल के पकने की प्रक्रिया ही विषयवस्तु या घटना को दृष्टि मिलना है। लेखक के भीतर किसी रचना के लिए आवश्यक कच्चे माल के पकने की प्रक्रिया ही लेखक की रचना– प्रक्रिया है। मेरी दृष्टि में लघुकथा की रचना– प्रक्रिया में उपन्यास एवं कहानी को भाँति बरसों भी लग सकते हैं।
लघुकथा में लेखक को आकारगत लघुता की अनिवार्यता के साथ अपनी बात पाठकों के सम्मुख रखनी होती है। इसमें कहानी की भांति कई घटनाओं, वातावरण–निर्माण एवं चरित्र–चित्रण द्वारा पाठकों को बाँधने या रिझाने का अवसर नहीं। होता है। लघुकथा का समापन–बिन्दु कहानी एवं उपन्यास की तुलना में अतिरिक्त श्रम एवं रचना–कौशल की मांग करता है। लघुकथा के समापन–बिन्दु को उस बिन्दु के रूप में समझा जा सकता है जहां रचना अपने कलेवर के मूल स्वर को कैरी करते हुए पूर्णता को प्राप्त होती है। मुझे लगता है कि लघुकथा की रचना–प्रक्रिया के दौरान लेखक को आकारगत लघुता एवं समापन–बिन्दु को ध्यान में रखकर ही ताने–बाने बुनने पड़ते हैं और यहीं लघुकथा की रचना– प्रक्रिया के दौरान ही पात्रों के चयन एवं लघुकथा के लिए उपयु‍र्क्त स्थल पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए। कभी–कभी कोई संवाद किसी भी पात्र से कहलवा देने से लघुकथा का उद्देश्य पूर्ण हो जाता है। वहीं इस बिन्दु पर किया गया अतिरिक्त मनन हमें उस संवाद को किसी बच्चे के मुँह से कहलवाने के निष्कर्ष पर पहुँचा सकता है। जिससे लघुकथा का प्रभाव और भी व्यापक हो जाता हो।
अपनी बात को और अधिक स्पष्ट करने के लिए एक घटना का उल्लेख करना चाहूँगा। मैं और भाई रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ जी दिल्ली से बरेली लौट रहे थे। रेल–ट्रेक में किसी खराबी के कारण हमारी ट्रेन चंदौसी स्टेशन पर पहुँच गई थी। हमें चंदौसी स्टेशन पर पाँच घंटे व्यतीत करन पड़े थे। वहाँ प्रतीक्षालय में बहुत से कॉलेज के लड़के जमा थे। वे जुआ खेल रहे थे, अश्लील चुटकुले सुना रहे थे, वहीं आस–पास के माहौल से बेखबर एक स्कूली लड़का अपना होमवर्क पूरा करने में जुटा था। मैंने उससे बातचीत की थी। उसने बताया था कि वह पास के गाँव से रोज़ पढ़ने आता है। अनय डेली पैसेंजर्स की तरह वह भी प्रतीक्षा कर रहा था। उसने यह भी बताया था कि घर में केवल उसकी मां है। पिता बंबई में कहीं नौकरी करते हैं और सल में एक बार घर आते हैंं जुआ खेलते कॉलेज के लड़कों के बीच कच्ची उम्र के इस लड़के के संतुलित व्यवहार ने मुझे सोचने पर विवश कर दिया था। मुझे उसी समय लगा था, किसी लघुकथा के लिए कच्चा माल मिल गया है। कुछ महीनों बाद इस स्थिति पर मैंने ‘स्कूल’ लघुकथा लिखी–
‘‘तुम्हें बताया न, गाड़ी लेट हैं,’’ स्टेशन मास्टर ने झुँझलाते हुए कहा–‘‘छह घंटे से पहले तो आ नहीं जाएगी, अब जाओ....कल से नाक में दम कर रखा है तुमने!’’
‘‘बाबूजी,गुस्सा न हों,’’ वह ग्रामीण औरत हाथ जोड़कर बोली–मैं बहुत परेशान हूँ, मेरे बेटे को घर से गए हुए तीन दिन हो गए हैं....उसे कल ही आ जाना था! पहली दफा घर से अकेला निकला है....’’
‘‘पर तुमने बच्चे को अकेला भेजा ही क्यों?’’ औरत की गिड़गिड़ाहट से पसीजते हुए उसने पूछ लिया।
‘‘मति मारी गई थी मेंरी,’’ सह रूआँसी हो गई–‘‘बच्चे के पिता नहीं हैं, मैं दरियाँ बुनकर घर का खर्चा चलाती हूँ। पिछले कुछ दिनों से जिद कर रहा था कि वह भी कुछ काम करेगा। टोकरी–भर चने लेकर घर से निकला है....’’
‘‘घबराओ मत....आ जाएगा!’’ उसने तसल्ली दी।
‘‘बाबूजी.....वह बहुत भोला है, उसे रात में अकेले नींद भी नहीं आती है....मेरे पास ही सोता है। हे भगवान!....दो रातें उसने कैसे काटी होगी? इतनी ठंड में उसके पास ऊनी कपड़े भी तो नहीं हैं....’’ वह सिसकने लगी।
स्टेशन मास्टर अपने काम में लग गया था। वह बेचैनी से प्लेटफार्म पर टहलने लगी। उस गाँव के छोटे से स्टेशन पर चारों ओर अंधकार छाया हुआ था। उसने मन ही मन तय कर लिया था कि भविष्य में वह अपने बेटे को कभी भी अपने से दूर नहीं होने देगी।
आखिर पैसेंजर ट्रेन शोर मचाती हुई उस सुनसान स्टेशन पर आ खड़ी हुई। वह साँस रोके,आँखें फाड़े डिब्बों की ओर ताक रही थी।
एक आकृति दौड़ती हुई उसके नज़दीक आई। नज़दीक से उसने देखा–तनी हुई गर्दन....बड़ी–बड़ी आत्मविश्वास भरी आँखें....कसे हुए जबड़े....होंठों पर बारीक मुस्कान....
‘‘माँ,तुम्हें इतनी रात गए यहां नहीं आना चाहिए था।’’ अपने बेटे को गंभीर,चिंताभरी आवाज़ उसके कानों में पड़ी।
वह हैरान रह गई। उसे अपनी आँखों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था–इन तीन दिनों में उसका बेटा इतना बड़ा कैसे हो गया?
यदि इस लघुकथा की मूल घटना से तुलना करें तो पता चलता है कि रचना–प्रक्रिया के दौरान इसमें घटना–स्थल, क्रम, पात्र आदि बिल्कुल बदल गए हैं। ऐसा लघुकथा के लिए अनिवार्य आकारगत लघुता एवं समापन बिन्दु को ध्यान में रखते हुए अधिक प्रभावी प्रस्तुति के लिए किया गया है।



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Tuesday, June 5, 2007

हद

श्याम सुन्दर 'दीप्ति'
एक अदालत में मुकदमा पेश हुआ । “साहब, यह पाकिस्तानी है। हमारे देश में हद पार करता हुआ पकड़ा गया है। तू इस बारे में कुछ कहना चाहता है ? मजिस्टेट ने पूछा । मैंने क्या कहना है, सरकार! मैं खेतों में पानी लगाकर बैठा था। हीर के सुरीले बोल मेरे कानों में पड़े। मैं उन्हीं बोलों को सुनता चला आया। मुझे तो कोई हद नजर नहीं आई।

मरुस्थल के वासी

श्याम सुन्दर अग्रवाल


गरीबों की एक बस्ती में लोगों को संबोधित करते हुए मंत्रीजी ने कहा, “इस साल देश में भयानक सूखा पड़ा है। देशवासियों को भूख से बचाने के लिए जरूरी है कि हम सप्ताह में कम से कम एक बार उपवास रखें।”
मंत्री के सुझाव से लोगों ने तालियों से स्वागत किया।
“हम सब तो हफते में दो दिन भी भूखे रहने के लिए तैयार हैं। भीड़ में सबसे आगे खड़े व्यक्ति ने कहा।
मंत्रीजी उसकी बात सुनकर बहुत प्रभावित हुए और बोले, “जिस देश में आप जैसे भक्त लोग हों, वह देश कभी भी भूखा नहीं मर सकता।
मंत्रीजी चलने लगे जैसे बस्ती के लोगों के चेहरे प्रश्नचिह्न बन गए हों।
उन्होंने बड़ी उत्सुकता के साथ कहा, ‘अगर आपको कोई शंका हो तो दूर कर लो।
थोड़ी झिझक के बाद एक बुजुर्ग बोला, साब! हमें बाकी पाँच दिन का राशन कहां से मिलेगा ?
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Sunday, May 13, 2007

विजेता


बाबा, खेलो न!”
“दोस्त, अब तुम जाओ। तुम्हारी माँतुम्हें ढूँढ रही होगी।”
“माँ को पता है- मैं तुम्हारे पास हूँ । वो बिल्कुल परेशान नहीं होगी। पकड़म- पकड़ाई ही खेल लो न !”
“बेटा, तुम पड़ोस के बच्चों के साथ खेल लो। मुझे अपना खाना भी तो बनाना है ।”
“मुझे नहीं खेलना उनके साथ । वे अपने खिलौने भी नहीं छूने देते ।”अगले ही क्षण कुछ सोचते हुए बोला, “मेरा खाना तो माँ बनाती है , तुम्हारी माँ कहाँ है?”
“मेरी माँ तो बहुत पहले ही मर गयी थी।” नब्बे साल के बूढ़े ने मुस्कराकर कहा ।
“बच्चा उदास हो गया। बूढ़े के नज़दीक आकर उसका झुर्रियों भरा चेहरा अपने नन्हें हाथों में भर लिया,”अब तुम्हें अपना खाना बनाने की कोई जरूरत नहीं, मै माँ से तुम्हारे लिए खाना ले आया करूँगा। अब तो खेल लो!”
“दोस्त!” बूढ़े ने बच्चे की आँखों में झाँकते हुए कहा, “अपना काम खुद ही करना चाहिए---और फिर---अभी मैं बूढ़ा भी तो नहीं हुआ हूँ---है न !”
“और क्या, बूढ़े की तो कमर भी झुकी होती है।”
“तो ठीक है, अब दो जवान मिलकर खाना बनाएँगें ।” बूढ़े ने रसोई की ओर मार्च करते हुए कहा । बच्चा खिलखिलाकर हँसा और उसके पीछे-पीछे चल दिया।
कुकर में दाल-चावल चढ़ाकर वे फिर कमरे में आ गये ।बच्चे ने बूढ़े को बैठने का आदेश दिया, फिर उसकी आँखों पर पटटी बाँधने लगा ।
पटटी बँधते ही उसका ध्यान अपनी आँखों की ओर चला गया- मोतियाबिन्द के आपरेशन के बाद एक आँख की रोशनी बिल्कुल खत्म हो गई थी। दूसरी आँख की ज्योति भी बहुत तेजी से क्षीण होती जा रही थी।
“बाबा,पकड़ो---पकड़ो!” बच्चा उसके चारों ओर घूमते हुए कह रहा था,
उसने बच्चे को हाथ पकड़ने के लिए हाथ फैलाए तो एक विचार उसके मस्तिक में कौंधा-जब दूसरी आँख से भी अंधा हो जाएगा---तब?---तब?---वह---क्या करेगा?---किसके पास रहेगा?---बेटों के पास? नहीं---नहीं! बारी-बारी से सबके पास रहकर देख लिया---हर बार अपमानित होकर लौटा है---तो फिर?---
“मैं यहाँ हूँ---मुझे पकड़ो!”
उसने दृढ़ निश्चय के साथ धीरे-से कदम बढ़ाए---हाथ से टटोलकर देखा---मेज---उस पर रखा गिलास---पानी का जग---यह मेरी कुर्सी और यह रही चारपाई---और –और---यह रहा बिजली का स्विच---लेकिन ---तब---मुझ अंधे को इसकी क्या ज़रूरत होगी?---होगी---तब भी रोशनी की ज़रुरत होगी---अपने लिए नहीं---दूसरों के लिए---मैंने कर लिया---मैं तब भी अपना काम खुद कर लूँगा!”
“बाबा, तुम मुझे नहीं पकड़ पाए---तुम हार गए---तुम हार गए!” बच्चा तालियाँ पीट रहा था।
बूढ़े की घनी सफेद दाढ़ी के बीच होंठों पर आत्मविश्वास से भरी मुस्कान थिरक रही थी।

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ऑक्सीजन

वह सड़क पर नज़रें गड़ाए बहुत ही सुस्त चाल से चल रहा था। मजबूरी में मुझे बहुत धीरे-धीरे कदम बढ़ाने पड़ रहे थे।
“भाई साहब---दो मिनट सुस्ता लें?” उसने पुलिया के नज़दीक रुकते हुए पूछा।
“हाँ---हाँ, जरूर ।” मैंने कहा।
“बहुत जल्दी थक जाता हूँ, लगता है जैसे शरीर में जान ही नहीं है।” वह निराशा से बुदबुदाया। फिर उसने एक सिगरेट सुलगा ली।
सुबह की सैर पर निकले लोग उसके सिगरेट पीने की हैरानी से देख रहे थे। तभी कुछ फौजी दौड़ते हुए हमारे सामने से गुज़रे।
“मैं आपको भी इन फौजियों की तरह दौड़ लगाते देखा करता था,” उसने कहा, “मेरी वजह से आप दौड़ नहीं पाते----।”
“नहीं---नहीं, आप गलत सोच रहे हैं,” मैंने उसकी बात काटते हुए जल्दी से कहा, “मुझे तो आपका साथ बहुत पसंद है।”
उसने मेरी ओर देखा। उसकी दाढ़ी बढ़ी हुई थी, आँखों से जीवन के प्रति घोर निराशा झाँक रही थी। चार दिन पहले गाँधी पार्क में टहलते हुए मेरा और उसका साथ हो गया था। ज़िदगी कुछ लोगों के साथ कितना क्रूर मज़ाक करती है, एक के बाद एक हादसों ने उसे तोड़कर रख दिया था।
हम फिर टहलने लगे थे, वह लगातार निराशाजनक बातें कर रहा था।
“मुझे थकान-सी महसूस हो रही है।” थोड़ी देर बाद मैंने उससे झूठ बोलते हुए कहा।
“आप थक गए? इतनी जल्दी!---मैं तो नहीं थका!!” उसकें मुँह से निकला।
“फिर भी दो मिनट बैठिए---मेरी खातिर!!”
“क्यों नहीं---क्यों नहीं!” इन चार दिनों में पहली बार उसके होंठों पर आत्मविश्वास भरी मुस्कान रेंगती दिखाई दी।
इस बार उसने सिगरेट नहीं सुलगाई बल्कि दो-तीन बार लंबी साँस खींचकर फेफड़ों में ताजी हवा भरने का प्रयास किया। थोड़ा सुस्ताने के बाद जब हम चले तो मैंने देखा, उसकी चाल में पहले जैसी सुस्ती नहीं थी।

…………………………………………………………

नंगा आदमी

आँख खुलते ही मैंने घर के सभी खिड़की-दरवाजे खोल दिए। वर्षों से बंद पड़े कमरे में हर कहीं चाँदनी छिटक गई। सात समुंदर का फैसला तय कर मुझ तक पहुँची हवा ने जैसे ही मुझे छुआ, मेरे शरीर में झुरझुरी-सी दौड़ गई। मैंने दो-तीन बार गहरी साँस ली, फिर न जाने किसे पराभूत मैंने एक-एक कर अपने सभी कपड़े उतार डाले। इनमें वे सभी पोशाकें जिन्हें मैं आज तक भिन्न-भिन्न ‘अवसरों’ पर पहनता रहा था।
मैं घर से बाहर सड़क पर आ गया । आसमान में चाँद चाँदी-सा चमक रहा था। सड़क पर खूब हलचल थी।
सबसे पहले मुझे बहुत-सी औरतें आती दिखाई दीं। हरेक की गोद में एक नन्हा सूरज था। उन नन्हें सूर्यों को अपनी जैसी हालत में देखकर मुझे खुशी हुई। उनमें से किसी ने मुझ पर धयान नहीं दिया। जब वे मेरे पास से गुज़रीं तो मैं उनके वात्सल्य की ऊष्मा में नहा गया।
सामने से लड़के-लड़कियों का झुंड चला आ रहा था।वे अपने सपनों की बातें करते हुए मेरे पास से निकल गए। कई सालों बाद मैं जाग्रत अवस्था में सपने देखने लगा।
कारखाने से लौट रहे कामगरों की आँखों में दिनभर की मेहनत से कमाई गई तृप्त थकान थी। उन्होंने भी मेरी ओर ध्यान नहीं दिया। जब वे मेरे पास से गुज़रे तो मैं पसीने से नहा गया।
आगे सड़क का सन्नाटा था। दोनों ओर के मकानों के खिड़की-दरवाजे ही नहीं रोशनदान भी मजबूती से बंद थे। बड़े-बड़े लोहे के गेटों के उस पार विदेशी नस्ल के खतरनाक कुत्ते थे, जो मुझे देखते ही ज़ोर-ज़ोर से भौंकने लगे। देखते ही देखते काँच की दीवारों के पीछे तरह-तरह की पोशाकों में लिपटे लोग नमूदार हो गए। मुझे इस हालत में देखकर उनके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। वे सब सपने अपने घरों में दुबक गए।
घर लौटने पर वर्षों बाद मीठी नींद सोया ।
सुबह खिड़की से झाँककर देखा। बाहर वही लोग जमा थे, जो रात मुझे देखकर छिप गए थे। इस समय उन सभी ने सफेद कपड़े पहन रखे थे।
मेरे बाहर आते ही उनमें से एक आगे बढ़कर आदेश्भरे अंदाज़ में बोला, “तुम ऐसा नहीं कर सकते---लो, इन्हें पहन लो।”
मैंने देखा, उसके पास वही कपड़े थे जिन्हें बीती रात उतार फेंका था।


Friday, May 11, 2007

चश्मा



“क्या तुम्हारी नज़र कमज़ोर हो गई?” मैंने अनिल को चश्मा लगाए देखा तो पूछ लिया।
“अमाँ नहीं यार---” अनिल ने हँसते हुए कहा, “यह तो बस---यूँ ही ---शौकिया, कैसा लगता है मुझ पर?---लगता हूँ न बिल्कुल किसी डॉक्टर या प्रोफेसर जैसा ”
“वास्तव में चश्मे से बहुत स्मार्ट लगने लगे हो।” मैंने कहा, “कितने रुपए खर्च हो गए---”
“मुफ्त का ही समझो। तुम्हें तो पता ही है कि पिताजी स्वतंत्रता-संग्राम सेनानी हैं। उनके लिए सरकारी खर्च से चश्मा दिए जाने के आदेश हैं। पिताजी को बहुत मुश्किल से राजी कर सका। उनको दो-तीन बार मुख्य चिकित्सा अधिकारी के पास ले जाना पड़ा। वहाँ से यह प्रमाणपत्र लेना है---सरकारी खजाने से पैसा निकलवाने के लिए इतने पापड़ तो बेलने ही पड़ते हैं,---” अनिल मुस्कराया, “आओ, बाहर धूप में बैठकर चाय पीते हैं।”
बाहर अनिल के पिताजी धूप में बैठे अखबार आँखों से सटाकर पढ़ने का प्रयास कर रहे थे। मैंने आगे बढ़कर उनके पैर छुए। उन्होंने आँखें मिचमिचाकर मेरी ओर देखा। मुझे उनका झुर्रियों से भरा चेहरा गहरी उदासी में डूबा मालूम हुआ। आँखों पर काफी ज़ोर डालने के बावजूद वह मुझे पहचान नहीं पाए।
मुझे मालूम न था कि अनिल के पिताजी की आँखें इस कदर कमज़ोर हो गई हैं। मैंने हैरानी से अनिल की ओर देखा। धूप में उसके चश्मे के फोटो-क्रोमेटिक ग्लासेस का रंग बिल्कुल काला हो गया था और अब वह किसी खलनायक जैसा दिखाई देने लगा था।

गलीज़


डार्लिग, मैं अभी पांच मिनट में डिस्ट्रिक्ट हॉस्पिट्ल से होकर आता हूँ, दीनानाथ चपरासी की हालत बहुत खराब है।”
“ओह शिट ।” पत्नी ने मेरी ओर देखकर बुरा-सा मुँह बनाया, “तुम आज फिर मेरा संडे स्पॉयल करोगे। आयम जस्ट फैडअप विद योर ऑफिसवालाज्।”
“ऑफिस का हैड होने के नाते थोड़ा दिखावा तो करना ही पड़ेगा---मैं ये गया वो आया। तुम पिकनिक के लिए तैयार रहो, हम ठीक ग्यारह बजे निकलेंगे।”
मेरा अपना मूड भी खराब हो गया था-अरे भाई, तबीयत ज्यादा खराब है तो मैं क्या करूँ। मैं इन लोगों की नस-नस से वाकिफ हूँ---रुपयों की ज़रूरत होगी---बहाने से बुला रहे हैं---साहब के पास तो रुपयों का पेड़ लगा है।
पार्किंग पर पहँचकर मैंने कार में बैठे-बैठे ही अपना बटुआ निकाला, उसमें से पाँच सौ रुपए निकालकर कमीज के ऊपर वाली जेब में रख लिए। इन लोगों के सामने सारे रुपए निकालना खतरे से खाली नहीं था।
सर्जिकल वार्ड के बेड नंबर तेरह पर दफ्तर वालों की भीड़ काई की तरह फट गई। बेड पर पड़े व्यक्ति को सिर तक चादर ओढ़ा दी गई थी---मतलब-खलास। मैंने सोचा।
“साहब हैं---साहब्।” शव के पास बैठे दीनानाथ के पिता को दफ्तर वालों ने बताया।
“हौसला रखो--- ऊपर वाले को यही मंजूर था।” मैंने हाथ जोड़ दिए।
“आप---इतने बड़े साहब---हमारे लिए कष्ट उठाए।” बूढ़ा हाथ जोड़े मेरे सामने खड़ा था। उसकी आँखों से टपकते आँसू दाढ़ी में गुम हो रहे थे। मुझे लगा, बुड्डढा अच्छी नौंटकी कर लेता है---बेटा तो चल बसा, अब मेरे आगे गिड़गिड़ाने का एक ही मतलब हो सकता है---आर्थिक मदद। मैं मन ही मन हँसा।
टैक्सी आ गई थी। दीनानाथ के बीवी-बच्चे गाँव में थे। इसलिए उसका अंतिम संस्कार भी गाँव में करने का निर्णय लिया गया था। यह सुनकर मुझे लगा। तभी एक विचार दिमाग में कौंधा-अब दीनानाथ की मृत्यु के बाद उसके पिता को दिए गए रुपयों की उम्मीद रखना तो बेवकूफी होगी। मैंने दफ्तर वालों से ‘एक्सक्यूज मी’ कहा और टॉयलेट की ओर चल दिया। वहां पहुँचकर ऊपर वाले पॉकेट में दो सौ रुपए खर्च कर देने में मुझे कोई नुकसान नज़र नहीं आया।
दीनानाथ का शव टैक्सी में रखा जा चुका था। बूढ़ा फिर मेरे पास आ खड़ा हुआ था।---अब रुपए माँगेगा---मैंने सोचा।
“बड़ी मेहरबानी!” उसने हाथ जोड़कर मेरे आगे सिर झुकाया। उसके पुराने कपड़ों से वार्ड वाली बदबू आ रही थी। मैं नाक पर रूमाल रखते-रखते रुक गया। मैंने जल्दी से हाथ जोड़ दिए। वह काँपते कदमों से टैक्सी में बैठ गया, बच्चू को रुपए माँगने की हिम्मत नहीं हुई।
टैक्सी के जाते ही मैंने घड़ी देखी, साढ़े दस बजे थे। शेव मैं सुबह ही बना चुका था, यदि नहाने का कार्यक्रम कट किया जाए तो अभी भी निर्धारित समय पर पिकनिक के लिए निकला जा सकता है। कार में बैठते ही मुझे ऊपर के पाकेट में दो सौ रुपयों का धयान आया। मैंने धीरे से जेब टटोलकर देखा- दोनों नोट सुरक्षित थे।

तोते




भंडारे का समय था। मंदिर में बहुत लोग इकट्ठे थे। तभी कहीं से तोता उड़ता हुआ आया और मंदिर की दीवार पर बैठकर बोला,”अल्लाह-हो-अकबर---अल्लाह-हो-अकबर---”
ऐसा लगा जैसे यहाँ भूचाल आ गया हो। लोग उत्तेजित होकर चिल्लाने लगे। साधु-संतों ने अपने त्रिशूल तान लिये । यह खबर आग की तरह चारों ओर फैल गई, शहर में भगदड़ मच गई, दुकानें बंद होने लगीं, देखते ही देखते शहर की सड़कों पर वीरानी-सी छा गई।
उधर मंदिर-समर्थकों ने आव देखा न ताव, जय श्री राम बोलने वाले तोते को जवाबी हमले के लिए छोड़ दिया।
शहर आज रात-भर बन्दूक की गोलियों से गनगनाता रहा। बीच-बीच में अल्लाह-हो-अकबर और जय श्री राम के उद्घोष सुनाई दे जाते थे।
सुबह शहर के विभिन्न धर्मस्थलों के आस-पास तोतों के शव बिखरे पड़े थे। किसी की पीठ में छुरा घोंपा गया था और किसी को गोली मारी गई थी ।जिला प्रशासन के हाथ-पैर फूले हुए थे। तोतों के शवों को देखकर यह बता पाना मु्श्किल था कि कौन हिन्दू है और कौन मुसलमान, जबकि हर तरफ से एक ही सवाल दागा जा रहा था-कितने हिन्दू मरे, कितने मुसलमान” जिलाधिकारी ने युद्ध-स्तर पर तोतों का पोस्टमार्टम कराया जिससे यह पता चल गया कि मृत्यु कैसे हुई है ;परंतु तोतों की हिन्दू या मुसलमान के रूप में पहचान नहीं हो पाई ।
हर कहीं अटकलों का बाज़ार गर्म था। किसी का कहना था कि तोते पड़ोसी दुश्मन देश के एजेंट थे, देश में अस्थिरता फैलाने के लिए भेजे गए थे। कुछ लोगों को हमदर्दी तोतों के साथ थी, उनके अनुसार तोतों को ‘टूल’ बनाया गया था। कुछ का मानना था कि तोते तंत्र-मंत्र,गंडा-ताबीज से सिद्ध ऐय्यार थे, यानी जितने मुँह उतनी बातें।
प्रिय पाठक पिछले कुछ दिनों से जब भी मैं घर से बाहर निकलता हूँ, गली मुहल्ले के कुछ बच्चे मुझे “तोता!---तोता!1”---कहकर चिढ़ाने लगते हैं, जबकि मैं आप-हम जैसा ही एक नागरिक हूँ ।

Thursday, May 10, 2007

गणित


भूकंप प्रभावित क्षेत्र में निरीक्षण के लिए जा रहे बड़े साहब ने सहायक अभियंता से कहा, “आपको पता ही है कि मैं कल उत्तरकाशी जा रहा हूँ। सुना है,वहाँ जबरदस्त ठंड पड़ रही है। भूकंप पीड़ितों के लिए जो बजट हमें मिला था, उसमें अभी दस हज़ार शेष हैं। इसी मद से आप मेरे लिए दस्ताने,ऊनी टोपी, सन ग्लासेस, जैकेट, स्लीपिंग बैग और दौरे में खाना गर्म रखने के लिए कैसेरोल का एक सैट खरीद लें।”
“सर!” छोटे साहब ने सकुचाने का सुंदर अभिनय करते हुए कहा, “---अगर आपकी आज्ञा हो तो मैं भी ‘एडजस्ट’ करवा लूँ।”
“ठीक है---ठीक है---” बड़े साहब ने जल्दी से कहा,---“पर देखिएगा हमारा कोई ‘आइटम’ छूट न जाए औ---र---हाँ---,जैकेट और स्लीपिंग बैग हजरतगंज की फुटपाथ पर विदेशी सामान बेचने वालों से ही खरीदिएगा, वे बिल्कुल असली माल रखते हैं।”
छोटे साहब के जाने के बाद वह काफी निश्चिन्त नज़र आ रहे थे। एकाएक उन्होंने कुछ सोचा और फिर घंटी बजाकर बड़े बाबू को बुलाया।
“बड़े बाबू!” वह गर्व से बोले-“इस महीने हमारा दो दिन का वेतन भूकंप राहत कोष में भिजवाना न भूलिएगा।”

नियम

1-सर्वाधिकार सुरक्षित हैं ।
2-बिना अनुमति के किसी भी अंश का प्रकाशन नहीं किया जा सकता ।
3-शैक्षिक उद्देश्यों के लिए सरकार से मान्यता प्राप्त संस्थाओं को अनुमति दी जा सकती है ।
4-हमारा उद्देश्य केवल सत्साहित्य का प्रचार एवं प्रसार है।
सुकेश साहनी
sahnisukesh@gmail.com

घर


प्रभाकर फोन पर पेरिस की किसी फैशन डिजायनर से बात कर रहा था।
वे दोनों कोठी के बाहर खूबसूरत लान की मखमली घास पर कुर्सियाँ डालकर बैठे थे। सुबह की शीतल हवा के साथ लान के बीचोंबीच चल रहा फ़व्वारा आँखों को बहुत ठंडक पहुँचा रहा था।
रामप्रसाद ने ईर्ष्याभरी निगाह प्रभाकर की संगमरमरी महलनुमा कोठी पर डाली---उसके बचपन का दोस्त आज कितना बड़ा आदमी बन गया, यहां नौकरों के लिए बनाए गए क्वार्टर भी उसके घर से कई गुना अच्छे हैं। ---सब किस्मत का खेल है! उसने ठंडी साँस ली।
तभी प्रभाकर की पत्नी आँख मलते हुए कोठी से बाहर निकली और लान की हरी-भरी घास पर नंगे पाँव टहलने लगी।
“प्रभाकर, अब मैं वापिस जाऊँगा।” फोन पर बात खत्म होते ही उसने कहा।
“इतनी जल्दी? नहीं रामप्रसाद---मैं तुम्हें अभी नहीं जाने दूँगा। आज तुमको अपना फार्म हाउस दिखाऊँगा, अरे---कोई है!” प्रभाकर वहीं से चिल्लाया, “---बहादुर!---किशन!!---एक गिलास पानी तो लाना।”
“नहीं प्रभाकर, मेरा जाना ज़रूरी है। तुम्हारी भाभी से एक दिन का कहकर आया था, पूरे तीन दिन हो गए हैं।बच्चे भी परेशान होंगे।”
“रामप्रसाद---तुम कहाँ पड़े हो फतेहपुर में---वो भी कोई जगह है रहने की! मैं तो कहता हूँ अभी समय है---घर ज़मीन बेच-बाचकर दिल्ली आ जाओ। बच्चों का कैरियर बन जाएगा।---किशन!---ओ किशन!!” वह चीखा, “कहाँ मर गए सब के सब! जल्दी पानी लाओ---गला सूख रहा है।”
रामप्रसाद ने देखा, प्रभाकर का बेटा क्यारी के पास खड़ा लाल सुर्ख गुलाबों को बड़े प्यार से देख रहा था।
“रामू---ओ रामू! जल्दी लाओ---जल्दी !” झल्लाकर उसने मेज पर पड़ी रिमोट बैल को देर तक दबाया।
रामप्रसाद ने हैरानी से मिसेज प्रभाकर की ओर देखा, वह अपने पति की चीख-पुकार से बेखबर कैक्टस के पौधों को पानी देने में व्यस्त थी। रामप्रसाद की आँखों के आगे घर,पत्नी और बच्चे घूम गए। इतना शोर करने पर तो कई गिलास पानी उसके सामने आ जाता---पत्नी तो उसके मन की बात चुटकियों में बूझ लेती है।
एकाएक रामप्रसाद की आंखों के आगे प्रभाकर का संगमरमरी महल ताश के पत्तों से बने घर की तरह भरभराकर गिर गया।

Wednesday, May 9, 2007

आखिरी तारीख

“वर्माजी !”उसने पुकारा।
बड़े बाबू की मुद्रा में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। उनकी आँखें बंद थीं और दाँतों के बीच एक बीड़ी दबी हुई थी। ऐश-ट्रे माचिस की तीलियाँ और बीड़ी के अधजले टुकड़ों से भरी पड़ी थी।
सुरेश को आश्चर्य हुआ। द्फ्तर के दूसरे भागों से भी लड़ने-झगड़ने की आवाज़ें आ रही थीं। बड़े बाबू की अपरिवर्तित मुद्रा देखकर वह सिर से पैर तक सुलग उठा। उसकी इच्छा हुई एक मुक्का उनके जबड़े पर जड़ दे ।
“वर्माजी, आपने आज बुलाया था!” अबकी उसने ऊँची आवाज में कहा।
बड़े बाबू ने अपनी लाल सुर्ख आँखें खोल दीं। सुरेश को याद आया---पहली दफा वह जब यहाँ आया था तो बड़े बाबू के व्यवहार से बहुत प्रभावित हुआ था। तब बड़े बाबू ने आदर के साथ उसे बिठाया था और उसके पिता की फाइल ढ़ूँढ़कर सारे कागज़ खुद ही तैयार कर दिए थे। दफ्तर के लोग भी एकाग्रचित् हो काम कर रहे थे।
बड़े बाबू अभी भी उसकी उपस्थिति की परवाह किए बिना टेबल कैलेंडर पर एक तारीख के इर्द-गिर्द पेन से गोला खींच रहे थे। उसने बड़े बाबू द्वारा दायरे में तारीख को ध्यान से देखा तो उसे ध्यान आया, आज महीने का आखिरी दिन है और पिछली दफा जब वह यहाँ आया था, तब महीने का प्रथम सप्ताह था। बड़े बाबू के तारीख पर चलते हाथ से ऐसा लग रहा था मानो वे इकतीस तारीख को ठेलकर आज ही पहली तारीख पर ले आना चाहते थे।
एकाएक उसका ध्यान आज सुबह घर के खर्चे को लेकर पत्नी से हुए झगड़े की तरफ चला गया। पत्नी के प्रति अपने क्रूर व्यवहार के बारे में सोचकर उसे हैरानी हुई। अब उसके मन में बड़े बाबू के प्रति गुस्सा नहीं था बल्कि वह अपनी पत्नी के प्रति की गई ज्यादती पर पछतावा हुआ।वह कार्यालय से बाहर आ गया।

फिल्मी आँख

गुनगुनाते हुए वह बस में घुसा, एक सरसरी निगाह सवारियों पर डाली। आँखों ने जैसे ही उस लड़की के चित्र मस्तिक को भेजे, उसका दिल गाने लगा, “तू चीज बड़ी है मस्त-मस्त,तू---” अगले ही क्षण वह उस लड़की के बगल की सीट पर इस तरह सिकुड़ा बैठा था मानो उसे लड़की में कोई दिलचस्पी न हो। उसके चेहरे को देखकर कोई भी दावे के साथ कह सकता था कि वह आसपास से बेखबर किसी घरेलू समस्या के ताने-बाने सुलझाने में लगा है, जबकि वास्तव में वह मस्त-मस्त की धुन के साथ लगातार लड़की की ओर तैर रहा था।
लड़के के इस अभियान से बेखबर लड़की का सिर सामने की सीट से टिका हुआ था, आँखें बंद थीं ।
बस ने गति पकड़ ली थी। ज्यातर यात्री ऊँघ रहे थे। किसी बड़े गड्ढे की वजह से बस को जबदस्त धक्का लगा। मौके का फायदा उठाते हुए उसने अपना शरीर लड़की से सटा दिया। लड़की की तरफ से कोई प्रतिरोध नहीं हुआ । उसे हाल ही में देखी गई फिल्म के वे सीन याद आए, जिनसे हीरो और हीरोइन बस में इसी तरह एक-दूसरे पर गिरते-पड़ते प्यार करने लगते हैं। दिल की गहराइयों में वह लड़की के साथ थिरकने लगा, “खुल्लम खुल्ला प्यार करेंगे हम दोनों-- ”
लड़की बार-बार अपनी बैठक बदल रही थी, लंबी-लंबी साँसें ले रही थी, सामने की सीट से सिर टिकाए अजीब तरह से ऊपर से नीचे हो रही थी।
दो-तीन बार उसके मुँह से दबी-दबी अस्पष्ट सी आवाज़ें भी निकली थीं । यह देखकर उसे लगा,कि शायद लड़की को उसकी ये हरकतें अच्छी लग रही हैं।
लेकिन तभी ‘बस सिकनेस’ से पस्त लड़की ने जल्दी से खिड़की का शीशा खोला और सिर बाहर निकालकर उल्टियाँ करने लगी ।

अनुताप

अनुताप


“बाबूजी आइए---मैं पहुँचाए देता हूँ।”एक रिक्शेवाले ने उसके नज़दीक आकर कहा, “असलम अब नहीं आएगा।” “क्या हुआ उसको ?” रिक्शे में बैठते हुए उसने लापरवाही से पूछा। पिछले चार-पाँच दिनों से असलम ही उसे दफ्तर पहुँचाता रहा था।
“बाबूजी, असलम नहीं रहा---”
“क्या?” उसे शाक-सा लगा, “कल तो भला चंगा था।”
“उसके दोनों गुर्दों में खराबी थी, डाक्टर ने रिक्शा चलाने से मना कर रखा था,” उसकी आवाज़ में गहरी उदासी थी, “कल आपको दफ्तर पहुँचा कर लौटा तो पेशाब बंद हो गया था, अस्पताल ले जाते समय उसने रास्ते में ही दम तोड़ दिया था---।”
आगे वह कुछ नहीं सुन सका। एक सन्नाटे ने उसे अपने आगोश में ले लिया---कल की घटना उसकी आँखों के आगे सजीव हो उठी। रिक्शा नटराज टाकीज़ पार कर बड़े डाकखाने की ओर जा रहा था। रिक्शा चलाते हुए असलम धीरे-धीरे कराह रहा था।बीच-बीच में एक हाथ से पेट पकड़ लेता था। सामने डाक बंगले तक चढ़ाई ही चढ़ाई थी।एकबारगी उसकी इच्छा हुई थी कि रिक्शे से उतर जाए। अगले ही क्षण उसने खुद को समझाया था-‘रोज का मामला है---कब तक उतरता रहेगा---ये लोग नाटक भी खूब कर लेते हैं, इनके साथ हमदर्दी जताना बेवकूफी होगी--- अनाप-शनाप पैसे माँगते हैं, कुछ कहो तो सरेआम रिक्शे से उतर पड़ा था, दाहिना हाथ गद्दी पर जमाकर चढ़ाई पर रिक्शा खींच रहा था। वह बुरी तरह हाँफ रहा था, गंजे सिर पर पसीने की नन्हीं-नन्हीं बूंदें दिखाई देने लगी थीं---।
किसी कार के हार्न से चौंककर वह वर्तमान में आ गया। रिक्शा तेजी से नटराज से डाक बंगले वाली चढ़ाई की ओर बढ़ रहा था।
“रुको!” एकाएक उसने रिक्शे वाले से कहा और रिक्शे के धीरे होते ही उतर पड़ा।
रिक्शे वाला बहुत मज़बूत कद काठी का था। उसके लिए यह चढ़ाई कोई खास मायने नहीं रखती थी। उसने हैरानी से उसकी ओर देखा। वह किसी अपराधी की भाँति सिर झुकाए रिक्शे के साथ-साथ चल रहा था।

प्रतिमाएँ

उनका काफिला जैसे ही बाढ़ग्रस्त क्षेत्र के नज़दीक पहुँचा, भीड़ ने घेर लिया। उन नग-धड़ंग अस्थिपंजर-से लोगों के चेहरे गुस्से से तमतमा रहे थे। भीड़ का नेत्तृव कर रहा युवक मुट्ठियाँ हवा में लहराते हुए चीख रहा था, मुख्यमंत्री---मुर्दाबाद ! रोटी कपड़ा दे न सके जो, वो सरकार निकम्मी है! प्रधानमंत्री !---हाय!हाय!1 मुख्यमंत्री ने जलती हुई नजरों से वहां के जिलाधिकारी की ओर देखा। आनन-फानन में प्रधानमंत्री जी के बाढ़ग्रस्त क्षेत्र के हवाई निरीक्षण के लिए हेलीकाप्टर का प्रबंध कर दिया गया। वहां की स्थिति सँभालने के लिए मुख्यमंत्री वहीं रुक गए।

हवाई निरीक्षण से लौटने पर प्रधानमंत्री दंग रह गए। अब वहां असीम शांति छायी हुई थी। भीड़ का नेतृत्व कर रहे युवक की विशाल प्रतिमा चौराहे के बीचोंबीच लगा दी गई थी। प्रतिमा की आँखें बंद थी, होंठ भिंचे हुए थे और कान असामान्य रूप से छोटे थे। अपनी मूर्ति के नीचे वह युवक लगभग उसी मुद्रा में हाथ बाँधे खड़ा था। नंग-धड़ंग लोगों की भीड़ उस प्रतिमा के पीछे एक कतार के रूप में इस तरह खड़ी थी मानो अपनी बारी की प्रतीक्षा में हो। उनके रुग्ण चेहरे पर अभी भी असमंजस के भाव थे।

मुख्यमंत्री सोच में पड़ गए थे। जब से उन्होंने इस प्रदेश की धरती पर कदम रखा था, जगह-जगह स्थानीय नेताओं की आदमकद प्रतिमाएँ देखकर हैरान थे। सभी प्रतिमाओं की स्थापना एवं अनावरण मुख्यमंत्री के कर कमलों से किए गए होने की बात मोटे-मोटे अक्षरों में शिलालेखों पर खुदी हुई थी। तब वे लाख माथापच्ची के बावजूद इन प्रतिमाओं को स्थापित करने के पीछे का मकसद एकदम स्पष्ट हो गया था। राजधानी लौटते हुए प्रधानमंत्री बहुत चिंतित दिखाई दे रहे थे।

दो घंटे बाद ही मुख्यमंत्री को देश की राजधानी से सूचित किया गया-आपको जानकर हर्ष होगा कि पार्टी ने देश के सबसे महत्त्वपूर्ण एवं विशाल प्रदेश की राजधानी में आपकी भव्य,विशालकाय प्रतिमा स्थापित करने का निर्णय लिया है। प्रतिमा का अनावरण पार्टी-अध्यक्ष एवं देश के प्रधानमंत्री के कर-कमलों से किया जाएगा। बधाई !

घंटियाँ

कुछ भी कहो, गलत तरीकों से इकट्ठा किया गया रुपया फलता नहीं हैं। महेन्द्र ने अपना मग बियर से भरते हुए कहा।

बेकार की बात है, रतन ने कहा, आज ऐसे लोग ही फल-फूल रहे हैं।

मैं साबित कर सकता हूँ। जिला अस्पताल वालें। डाक्टर चंद्रा को ही ले लो। उसने गरीब मरीजों के लिए अस्पताल में आई दवाएँ बाज़ार में बेच-बेचकर खूब रुपया बटोरा था और पागलखाने में एड़िया रगड़ रहा है।

यह संयोग भी हो सकता है। रतन चिढ़कर बोला।

नरेश के बिजनेस पार्टनर नागराजन को तो भूले नहीं होंगे। उसने जिस तरह नरेश को धोखा देकर अपनी प्रोपर्टी बनाई, वो किसी से छिपा नहीं है। आज अपने दोनों बेटों से हाथ धो बैठा है।

महेन्र्द बोलता जा रहा था, पर रतन की आँखों के आगे भारत-पाकिस्तान बँटवारे का वह दिन घूमने लगा था,जब दंगों के कारण दुमेल से भागते हुए अपने पड़ोसी पंडित रामनाथ को उनके कमरे में बंद कर दिया और उनके मंदिर में लगी सोने की घंटियाँ चुराकर हिंदुस्तान भाग आया था। कमरा बंद होने के कारण रामनाथ भाग नहीं पाया था और दंगाइयों ने उसे मौत के घाट उतार दिया था। आज उसकी सुदृढ़ आर्थिक स्थिति के पीछे पंडित के मंदिर से चुराए गए सोने का बहुत योगदान था।

मैंने तो गलत तरीकों से धन बटोरने वालों को तबाह होते ही देखा है। महेन्द्र ने अपनी बात खत्म करते हुए कहा।

इतनी देर में रतन बियर के तीन मग और हलक से नीचे उतार चुका था। उसे लगा, आज महेन्द्र जानबूझकर उससे इस तरह की बातें कर रहा है।

बकवास बंद करो। एकाएक वह चिल्ला पड़ा।

महेन्द्र ने हैरानी से अपने दोस्त की ओर देखा।

लगता है---ज्यादा हो गई , चलो भीतर चलकर खाना खाते हैं। महेन्द्र कुर्सी से उठा तो उसके कोट की आस्तीनों पर लगे पीतल के बटन खनखनाए ।

रतन को लगा, महेन्द्र घंटी बजाकर उसे चिढ़ा रहा है।

हरामजादे, घंटी बजाता है। वह चीखा, उसने पूरी ताकत से एक घूँसा अपने दोस्त के जबड़े पर जड़ दिया। इसी झोंक में वह अपना संतुलन भी खो बैठा और मेज, उस पर रखे काँच के सामान समेत वहीं ढेर हो गया---पर घंटियाँ अभी उसके कानों में बज रहीं थीं।


खारा पानी

दाहिने हाथ में शकुनक-दंड [डिवाइनिंग-राड] थामे, धीरे-धीरे कदम बढ़ाते बूढ़े सगुनिया का मन काम में नहीं लग रहा था।इस जमीन पर कदम रखते ही उसकी अनुभवी आँखों ने उन पौधों को खोज लिया था, जो ज़मीन के नीचे मीठे पानी के स्रोत के संकेतक माने जाते हैं। अब बाकी का काम उसे दिखावे के लिए ही करना था। उसकी नज़र लकड़ी के सिरे पर लटकते धागे के गोले से अधिक वहाँ खड़े उन बच्चों की ओर चली जाती थी, जिनके अस्थिपंजर-से शरीरों पर मोटी-मोटी गतिशील आँखें ही उनके जीवित होने का प्रमाण थीं। कोई बड़ा-बूढ़ा ग्रामवासी वहां दिखाई नहीं दे रहा था। जहाँ तक नज़र जाती थी,मुख्यमंत्री के ब्लैक कमांडो फैले हुए थे। प्रशासन ने मुख्यमंत्री की सुरक्षा को दृष्टिगत रखते हुए वहां के वृक्षों को कटवा दिया था।

बड़ी-सी छतरी के नीचे बैठे मुख्यमंत्री उत्सुकता से सगुनिया की कार्यवाही को देख रहे थे। गृह सचिव के अलावा अन्य छोटे-बड़े अफसरों की भीड़ वहाँ मौजूद थी।

काम पूरा होते ही सगुनिया मुख्यमंत्री के नज़दीक आकर खड़ा हो गया।

तुम्हारी जादुई लकड़ी क्या कहती है। बूढ़े ने बताया।

सचिव ने खुश होकर मुख्यमंत्री को बधाई दी। मुख्यमंत्री अभी भी संतुष्ट नज़र नहीं आ रहे थे। पिछली दफा फार्म हाउस के लिए ज़मीन का चुनाव करते हुए उन्होंने पूरी सावधानी बरती थी, पानी का रासायनिक विश्लेषण भी कराया था। परीक्षण रिपोर्ट के अनुसार पानी बहुत बढ़िया था, पर फार्म हाउस के बनते-बनते ज़मीन के नीचे का पानी खारा हो गया था। हारकर उनको न्ए सिरे से फार्म हाउस के लिए मीठे पानी वाली ज़मीन की खोज करवानी पड़ रही थी।

आगे चलकर पानी खारा तो नहीं हो जाएगा? इस बार मुख्यमंत्री ने बूढ़े से पूछा।

इसके लिए ज़रूरी है कि आँसुओं की बरसात को रोका जाए। बूढ़े ने क्षितिज की ओर ताकते हुए धीरे से कहा।

आँसुओं की बरसात? सचिव चौंके।

ऐसा तो कभी नहीं सुना। मुख्यमंत्री के मुँह से निकला।

इस बरसात के बारे में जानने के लिए ज़रुरी है कि मुख्यमंत्री जी भी उसी कुँए से पानी पिएँ जिससे कि प्रदेश की जनता पीती है। कहकर बूढ़े ने शकुनक-दंड अपने कंधे पर रखा और समीपस्थ गाँव की ओर चल दिया।

खरबूजा

बड़े साहब आफिस से घर लौटे तो काफी थके हुए लग रहे थे। चपरासी ने उनके सूटकेस के साथ-साथ एक पुराना टू इन वन और प्रेशर कुकर भी भीतर रखा तो मेम साहब चौंक पड़ीं।

ये सब किसका है? उन्होंने साहब से पूछा ।

वही---चीफ साहब, वे चिढ़कर बोले, मीटिंग के बाद चलने लगा तो बोले-हमारा टू इन वन और प्रेशर कुकर कई दिनों से खराब पड़ा है, तुम्हारे शहर में अच्छी दुकानें हैं, रिपेयर कराकर भेज देना।

अपना टेप रिकार्डर भी महीनों से खराब पड़ा है, उसे भी साथ भेजना न भूलिएगा, मेम साहब ने कहा,---हाँ, याद आया, राम खिलावन पर सख्ती कीजिए---चोरी करने लगा है।

मैं आज विरमानी स्टोर्स गई थी, मैंने बातों ही बातों में उससे कहा कि मिक्सी की मरम्मत के बहुत पैसे ले लिये। तब उसने मुझे बताया कि राम खिलावन ने ही वाउचर में कुछ रुपए बढ़वाए थे।

राम खिलावन! बड़े साहब ने सख्त आवाज़ में कहा, कब से कर रहे हो चोरी?

मैं कुछ समझा नहीं, हुजूर! वह बिना घबड़ाए बोला।

विरमानी कह रहा था, तुमने उस ट्यूब लाइट वाले वाउचर में कुछ रुपए बढ़वाए थे?

अच्छा, वो राम खिलावन ने कहा, आपने उस दिन शाम को मिक्सी रिपेयर करवाने को दी थी, स्टोर बद हो चुका था इसलिए मैं मिक्सी घर ले गया था। हुजूर! मेरी घरवाली थोड़ी तेज है, पूछने लगी-यह क्या है,किसका है। मुझे सबकुछ बताना पड़ा। बस, फिर क्या था, पीछे पड़ गई । कहने लगी-साहब लोग द्फ्तर के खर्चे से न जाने क्या-क्या घर ले जाते हैं, मुझे भी एक सिलबट्टा चाहिए। हुजूर आपकी मिक्सी रिपेयर के वाउचर में उसी सिलबट्टे के लिए कुछ रुपए बढ़वाए थे। राम खिलावन ने रुककर बारी-बारी से साहब और मेम साहब की ओर देखा, फिर ढिठाई से बोला, इसे चोरी तो नहीं कहेंगे, साहब!

तू बहुत बातें बनाने लगा है। चल जा---काम कर्। इस बार बड़े साहब की आवाज़ खोखली थी।

कम्प्यूटर

पलक झपकते ही वह खूबसूरत युवती र्में तब्दील हो गया। फिर सम्मोहित कर देने वाले नारी स्वर में बोला, दो संप्रदायों की उग्र भीड़ को शांत करने के लिए पुलिस को हल्का बल प्रयोग करना पड़ा,जिसके कारण बीस लोगों को चोटें आई है। एहतियात के तौर पर शहर के बारह थाना क्षेत्रों में कर्फ़्यू लगा दिया गया है।

भीड़ से तेज भनभनाहट उभरी। नदी-नालों में बह-बहकर आ रहे अधजले शवों को लेकर जनता में भारी रोष व्याप्त्त था।

वह बिजली के बल्ब की तरह दो-तीन बार जला-बुझा, फिर गृहमंत्री के रूप में सामने आकर आवाज़ में मिश्री घोलते हुए बोला, कृपया अफवाहों पर ध्यान न दें। जहाँ तक नदी-नालों में बहकर आ रहे अधजले शवों का प्रश्न है तो कोई नई बात नहीं है। देश के कुछ भाइयों का मानना है कि अंतिम संस्कार के दौरान अधजले शव को नदी में बहा दिया जाए तो मृतात्मा को मुक्ति मिल जाती है। ये शव को इसी प्रकार के हैं। हम अपने देशवासियों की धार्मिक भावनाओं का सम्मान करते हैं।

भीड़ से फिर तेज शोर उठा।

वह बिजली की-सी तेजी से देश के सबसे बड़े शाही इमाम के रूप में बाद्ल और बोला, मैंने दंगाग्रस्त क्षेत्रों का निरीक्षण किया है, सरकार द्वारा किए जा रहे प्रयास सराहनीय हैं, आप शांति बनाए रखें ।

भीड़ के एक भाग से अभी भी रोषभरी आवाज़ें उठ रही थीं ।

देखते ही देखते वह देश के सबसे बड़े महंत के रुप में सामने आकर कहने लगा, मैंने अभी-अभी दंगाग्रस्त क्षेत्रों में रह रहे भाइयों से बातचीत की है। उनको सरकार से कोई शिकायत नहीं है।

भीड़ छँटने लगी थी।

तभी विचित्र बात हुई। राजनीतिक कारणों से सरकार बर्खास्त कर दिए जाने की बात आग की तरह चारों ओर फैल गई थी।

लोग फिर उसके सामने जमा होने लगे। इस बार वह भाई-भाई नामक फीचर फिल्म के रूप में दौड़े जा रहा था।

हमें फिल्म नहीं चाहिए! भीड़ में से किसी ने कहा।

बर्खास्त सरकार के बारे में बताओ1कोई दूसरा चिल्लाया।

धर्मस्थल के बारे में बताओ!! किसी तीसरे ने चिल्लाकर कहा।

वह उनकी चीख-चिल्लाहट की परवाह किए बिना फिल्म के रूप में दौड़ता रहा।

पढ़े-लिखे बेरोजगार युवक गुस्से में भर कर उसकी ओर बढ़ने लगे। किसी ने आगे बढ़कर उसका कान उमेठ दिया। वह अदृश्य हो गया।

खाली---खाली---एमटि---एमटि--- अब केवल उसकी खरखराती आवाज़ सुनाई दी।

क्या बकवास है एक युवक दाँत पीसते हुए चिल्लाया।

डेटा फीड करो---डेटा फीड करो---डेटा फीड करो---डेटा फीड करो---डेटा फीड ---वह किसी टेप की तरह बजने लगा।

लोग हैरान थे। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि सरकार के बर्खास्त होते ही उसे क्या हो गया है!

Monday, May 7, 2007

दीमक




“किसन !---” बड़े साहब ने चपरासी को घूरते हुए पूछा, “तुम मेरे कक्ष से क्या चुराकर ले जा रहे थे?”
“ कुछ नहीं साहब।”
“झूठ मत बको!---” बड़े साहब चिल्लाए, “चौकीदार ने मुझे रिपोर्ट किया है, तुम डिब्बे में कुछ छिपाकर ले जा रहे थे---क्या था उसमें? सच-सच बता दो नहीं तो मैं पुलिस में तुम्हारे खिलाफ---”
“नहीं---नहीं साहब! आप मुझे गलत समझ रहे हैं---” किसन गिड़गिड़ाया, “मैं आपको सब कुछ सच-सच बताता हूँ---मेरे घर के पास सड़क विभाग के बड़े बाबू रहते हैं, उनको दीमक की जरूरत थी, आपके कक्ष में बहुत बड़े हिस्से में दीमक लगी हुई है । बस---उसी से थोड़ी-सी दीमक मैं बड़े बाबू के लिए ले गया था। इकलौते बेटे की कसम !---मैं सच कह रहा हूँ ।”
“बड़े बाबू को दीमक की क्या जरूरत पड़ गई !” बड़े साहब हैरान थे।
“मैंने पूछा नहीं,” अगर आप कहें तो मैं पूछ आता हूँ ।”
“नहीं---नहीं,” मैंने वैसे ही पूछा, “---अब तुम जाओ।” बड़े साहब दीवार में लगी दीमक की टेढ़ी-मेढ़ी लंबी लाइन की ओर देखते हुए गहरी सोच में पड़ गए।
“मिस्टर रमन!” बड़े साहब मीठी नज़रों से दीवार में लगी दीमक की ओर देख रहे थे, “आप अपने कक्ष का भी निरीक्षण कीजिए, वहां भी दीमक ज़रूर लगी होगी, यदि न लगी हो तो आप मुझे बताइए, मैं यहाँ से आपके केबिन में ट्रांसफर करा दूँगा। आप अपने खास आदमियों को इसकी देख-रेख में लगा दीजिए, इसे पलने-बढ़ने दीजिए । आवश्यकता से अधिक हो जाए तो काँच की बोतलों में इकट्ठा कीजिए, जब कभी हम ट्रांसफर होकर दूसरे दफ्तरों में जाएँगे, वहाँ भी इसकी ज़ररूरत पड़ेगी।”
“ठीक है, सर! ऐसा ही होगा---” छोटे साहब बोले।
“देखिए---” बड़े साहब का स्वर धीमा हो गया-“हमारे पीरियड के जितने भी नंबर दो के वर्क-आर्डर हैं, उनसे सम्बंधित सारे कागज़ात रिकार्ड रूम में रखवाकर वहाँ दीमक का छिड़काव करवा दीजिए---न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी।”

संस्कार


उसे लगा, पिताजी अपनी भीगी आँखों से एकटक उसी की ओर देख रहे हैं। उसने सूखे तौलिए से उनकी रुग्ण,कृशकाया को धीरे-धीरे पोंछा और फिर पत्नी को आवाज दी, “सुनीता ज़रा पाउडर का डिब्बा तो देना!”
फिल्मी पत्रिका पढ़ने में तल्लीन पत्नी ने उसकी आवाज़ सुनकर बुरा-सा मुँह बनाया और फिर पाउडर का डिब्बा लेकर बेमन से उसके पास आ गई। तभी पलंग के पास पड़े मल के पाट और बलगम भरी चिलमची पर नज़र पढ़ते ही उसने जल्दी से साड़ी का पल्लू नाक पर रख लिया। उसने चिढ़े हुए अंदाज में पति को घूरा और पैर पटकते हुए लौट गई।
“बेटा,” पिता ने काँपती आवाज़ में कहा, “तुम थक गए होगे। जाओ, आराम करो। मैं तो ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि मुझे इस शरीर से जल्द से जल्द मुक्त कर दे।”
तभी नन्हा राजू अपने पिता के पास आया, पलंग के पास पड़ी बलगम भरी चिलमची उठाकर बोला, “मैं इछको बाथलूम में लख आऊँ?”
वह अपने बेटे को देखता रह गया। पत्नी भी राजू की ओर देखने लगी थी।
“जाओ---रख आओ।” उसकी आवाज़ भर्रा गई ।
“भगवान तुझ जैसा बेटा सबको दे।” वृद्घ की डबडबाई आँखें छलक पड़ी थीं, “तुझे मेरा मल-मूत्र साफ करना पड़ता है---मुझे अच्छा नहीं लगता। अपने साथ तुझे भी नरक में रगड़ रहा हूँ।”
“पिताजी, आप ऐसा क्यों सोचते हैं? यह मेरा कर्त्तव्य है। वैसे भी आजकल के हालात को देखते हुए---” रुककर उसने एक निगाह अपनी पत्नी और बाथरुम से लौटते हुए बेटे पर डाली, “मैं जो कुछ भी कर रहा हूँ---सिर्फ अपने लिए कर रहा हूँ।”
“बेटा! तुझसे जीतना मुश्किल है--- मुझे ज़रा बिठा दे।”
उसने पिता को उठाकर बैठा दिया। उसने एक हाथ से उनकी पीठ को सहारा देते हुए दूसरा हाथ गाव तकिए के लिए बढ़ाया ही था कि पत्नी लपककर उसके पास आई और उसने फुर्ती से तकिया अपने ससुर की पीठ के पीछे लगा दिया ।
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स्कूल


“तुम्हें बताया न, गाड़ी छह घंटे लेट है,” स्टेशन मास्टर ने झुँझलाते हुए कहा, “छह घंटे से पहले तो आ नहीं जाएगी----कल से नाक में दम कर रखा है तुमने !”
“बाबूजी, गुस्सा न हों,” वह ग्रामीण औरत हाथ जोड़कर बोली, “मैं बहुत परेशान हूँ, मेरे बेटे को घर से गए तीन दिन हो गए हैं---उसे कल ही आ जाना था! पहली दफा घर से अकेला बाहर निकला है---”
“पर तुमने बच्चे को अकेला भेजा ही क्यों?” औरत की गिड़गिड़ाहट से पसीजते हुए उसने पूछ लिया।
“मति मारी गई थी मेरी,” वह रुआँसी हो गई, “---बच्चे के पिता नहीं हैं। मैं दरियाँ बुनकर घर का खर्चा चलाती हूँ। पिछले कुछ दिनों से जिद कर रहा था कि कुछ काम करेगा। टोकरी-भर चने लेकर घर से निकला है----”
“घबराओ मत---आ जाएगा ” उसने तसल्ली दी।
“बाबूजी, वह बहुत भोला है। उसे रात में अकेले नींद भी नहीं आती---मेरे पास ही तो सोता है। हे भगवान !---दो रातें उसने कैसे काटी होंगी? इतनी ठंड में उसके पास ऊनी कपड़े भी नहीं हैं---” वह सिसकने लगी।
स्टेशन मास्टर फिर अपने काम में लग गया था। वह बैचेनी से प्लेटफार्म पर घूमने लगी। इस गाँव के छोटे से स्टेशन पर चारों ओर सन्नाटा और अंधकार छाया हुआ था। उसने मन ही मन तय कर लिया था कि भविष्य में वह अपने बेटे को कभी खुद से दूर नहीं होने देगी।
आखिर पैसेंजर ट्रेन शोर मचाती हुई उस सुनसान स्टेशन पर आ खड़ी हुई। वह साँस रोके , आँखें फाड़े डिब्बों की ओर ताक रही थी।
एक आकृति दौड़ती हुई उसके नज़दीक आई। नज़दीक से उसने देखा- तनी हुई गर्दन---बड़ी-बड़ी आत्मविश्वास से भरी आँखें---कसे हुए जबड़े---होठों पर बारीक मुस्कान---
“माँ तुम्हें इतनी रात गए यहाँ नहीं आना था!” अपने बेटे की गम्भीर, चिंताभरी आवाज़ उसके कानों में पड़ी।
वह हैरान रह गई। उसे अपनी आँखों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था- इन तीन दिनों में उसका बेटा इतना बड़ा कैसे हो गया?
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Sunday, May 6, 2007

शिक्षाकाल


“सर,मे आय कम इन?” उसने डरते-डरते पूछा।
“आज फिर लेट? चलो, जाकर अपनी सीट पर खड़े हो जाओ।
वह तीर की तरह अपनी सीट की ओर बढ़ा----
“रुको!” टीचर का कठोर स्वर उसके कानों में बजा और उसके पैर वहीं जड़ हो गए। तेजी से नज़दीक आते कदमों की आवाज़, “जेब में क्या है? निकालो ।”
कक्षा में सभी की नज़रें उसकी ठसाठस भरी जेबों पर टिक गई। वह एक-एक करके जेब से सामान निकालने लगा----कंचे,तरह-तरह के पत्थर, पत्र-पत्रिकाओं से काटे गए कागज़ों के रंगीन टुकड़े, टूटा हुआ इलैक्ट्रिक टैस्टर, कुछ जंग खाए पेंच-पुर्जे---
“और क्या-क्या है? तलाशी दो।” उनके सख्त हाथ उसकी नन्हीं जेबें टटोलने लगे। तलाशी लेते उनके हाथ गर्दन से सिर की ओर बढ़ रहे थे, “यहाँ क्या छिपा रखा है?” उनकी सख्त अंगुलियाँ खोपड़ी को छेदकर अब उसके मस्तिष्क को टटोल रहीं थीं ।
वह दर्द से चीख पड़ा और उसकी आँख खुल गई।
“क्या हुआ बेटा?”माँ ने घबराकर पूछा ।
“माँ, पेट में बहुत दर्द हैं” वह पहली बार माँ से झूठ बोला, “आज मैं स्कूल नहीं जाऊँगा ।”

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मैं कैसे पढ़ूँ ?


पूरे घर में मुर्दनी छा गई थी। माँ के कमरे के बाहर सिर पर हाथ रखकर बैठी उदास दाई माँ---रो-रोकर थक चुकी माँ के पास चुपचाप बैठी गाँव की औरतें । सफेद कपड़े में लिपटे गुड्डे के शव को हाथों में उठाए पिताजी को उसने पहली बार रोते देखा था----
“शुचि!” टीचर की कठोर आवाज़ से मस्तिष्क में दौड़ रही घटनाओं की रील कट गई और वह हड़बड़ा कर खड़ी हो गई।
“तुम्हारा ध्यान किधर है? मैं क्या पढ़ा रही थी----बोलो?” वह घबरा गई। पूरी क्लास में सभी उसे देख रहे थे।
“बोलो!” टीचर उसके बिल्कुल पास आ गई।
“भगवान ने बच्चा वापस ले लिया----।” मारे डर के मुँह से बस इतना ही निकल सका ।
कुछ बच्चे खी-खी कर हँसने लगे। टीचर का गुस्सा सातवें आसमान को छूने लगा।
“स्टैंड अप आन द बैंच !”
वह चुपचाप बैंच पर खड़ी हो गई। उसने सोचा--- ये सब हँस क्यों रहे हैं, माँ-पिताजी, सभी तो रोये थे-यहाँ तक कि दूध वाला और रिक्शेवाला भी बच्चे के बारे में सुनकर उदास हो गए थे और उससे कुछ अधिक ही प्यार से पेश आए थे। वह ब्लैक-बोर्ड पर टकटकी लगाए थी, जहाँ उसे माँ के बगल में लेटा प्यारा-सा बच्चा दिखाई दे रहा था । हँसते हुए पिताजी ने गुड्डे को उसकी नन्हीं बाँहों में दे दिया था। कितनी खुश थी वह!
“टू प्लस-फाइव-कितने हुए?” टीचर बच्चों से पूछ रही थी ।
शुचि के जी में आया कि टीचर दीदी से पूछे जब भगवान ने गुडडे को वापस ही लेना था तो फिर दिया ही क्यों था? उसकी आँखें डबडबा गईं। सफेद कपड़े में लिपटा गुड्डे का शव उसकी आँखों के आगे घूम रहा था। इस दफा टीचर उसी से पूछ रही थी । उसने ध्यान से ब्लैक-बोर्ड की ओर देखा। उसे लगा ब्लैक-बोर्ड भी गुड्डे के शव पर लिपटे कपड़े की तरह सफेद रंग का हो गया है। उसे टीचर दीदी पर गुस्सा आया । सफेद बोर्ड पर सफेद चाक से लिखे को भला वह कैसे पढ़े?

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