Monday, May 7, 2007

संस्कार


उसे लगा, पिताजी अपनी भीगी आँखों से एकटक उसी की ओर देख रहे हैं। उसने सूखे तौलिए से उनकी रुग्ण,कृशकाया को धीरे-धीरे पोंछा और फिर पत्नी को आवाज दी, “सुनीता ज़रा पाउडर का डिब्बा तो देना!”
फिल्मी पत्रिका पढ़ने में तल्लीन पत्नी ने उसकी आवाज़ सुनकर बुरा-सा मुँह बनाया और फिर पाउडर का डिब्बा लेकर बेमन से उसके पास आ गई। तभी पलंग के पास पड़े मल के पाट और बलगम भरी चिलमची पर नज़र पढ़ते ही उसने जल्दी से साड़ी का पल्लू नाक पर रख लिया। उसने चिढ़े हुए अंदाज में पति को घूरा और पैर पटकते हुए लौट गई।
“बेटा,” पिता ने काँपती आवाज़ में कहा, “तुम थक गए होगे। जाओ, आराम करो। मैं तो ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि मुझे इस शरीर से जल्द से जल्द मुक्त कर दे।”
तभी नन्हा राजू अपने पिता के पास आया, पलंग के पास पड़ी बलगम भरी चिलमची उठाकर बोला, “मैं इछको बाथलूम में लख आऊँ?”
वह अपने बेटे को देखता रह गया। पत्नी भी राजू की ओर देखने लगी थी।
“जाओ---रख आओ।” उसकी आवाज़ भर्रा गई ।
“भगवान तुझ जैसा बेटा सबको दे।” वृद्घ की डबडबाई आँखें छलक पड़ी थीं, “तुझे मेरा मल-मूत्र साफ करना पड़ता है---मुझे अच्छा नहीं लगता। अपने साथ तुझे भी नरक में रगड़ रहा हूँ।”
“पिताजी, आप ऐसा क्यों सोचते हैं? यह मेरा कर्त्तव्य है। वैसे भी आजकल के हालात को देखते हुए---” रुककर उसने एक निगाह अपनी पत्नी और बाथरुम से लौटते हुए बेटे पर डाली, “मैं जो कुछ भी कर रहा हूँ---सिर्फ अपने लिए कर रहा हूँ।”
“बेटा! तुझसे जीतना मुश्किल है--- मुझे ज़रा बिठा दे।”
उसने पिता को उठाकर बैठा दिया। उसने एक हाथ से उनकी पीठ को सहारा देते हुए दूसरा हाथ गाव तकिए के लिए बढ़ाया ही था कि पत्नी लपककर उसके पास आई और उसने फुर्ती से तकिया अपने ससुर की पीठ के पीछे लगा दिया ।
000000000000

No comments: