Sunday, May 13, 2007

विजेता


बाबा, खेलो न!”
“दोस्त, अब तुम जाओ। तुम्हारी माँतुम्हें ढूँढ रही होगी।”
“माँ को पता है- मैं तुम्हारे पास हूँ । वो बिल्कुल परेशान नहीं होगी। पकड़म- पकड़ाई ही खेल लो न !”
“बेटा, तुम पड़ोस के बच्चों के साथ खेल लो। मुझे अपना खाना भी तो बनाना है ।”
“मुझे नहीं खेलना उनके साथ । वे अपने खिलौने भी नहीं छूने देते ।”अगले ही क्षण कुछ सोचते हुए बोला, “मेरा खाना तो माँ बनाती है , तुम्हारी माँ कहाँ है?”
“मेरी माँ तो बहुत पहले ही मर गयी थी।” नब्बे साल के बूढ़े ने मुस्कराकर कहा ।
“बच्चा उदास हो गया। बूढ़े के नज़दीक आकर उसका झुर्रियों भरा चेहरा अपने नन्हें हाथों में भर लिया,”अब तुम्हें अपना खाना बनाने की कोई जरूरत नहीं, मै माँ से तुम्हारे लिए खाना ले आया करूँगा। अब तो खेल लो!”
“दोस्त!” बूढ़े ने बच्चे की आँखों में झाँकते हुए कहा, “अपना काम खुद ही करना चाहिए---और फिर---अभी मैं बूढ़ा भी तो नहीं हुआ हूँ---है न !”
“और क्या, बूढ़े की तो कमर भी झुकी होती है।”
“तो ठीक है, अब दो जवान मिलकर खाना बनाएँगें ।” बूढ़े ने रसोई की ओर मार्च करते हुए कहा । बच्चा खिलखिलाकर हँसा और उसके पीछे-पीछे चल दिया।
कुकर में दाल-चावल चढ़ाकर वे फिर कमरे में आ गये ।बच्चे ने बूढ़े को बैठने का आदेश दिया, फिर उसकी आँखों पर पटटी बाँधने लगा ।
पटटी बँधते ही उसका ध्यान अपनी आँखों की ओर चला गया- मोतियाबिन्द के आपरेशन के बाद एक आँख की रोशनी बिल्कुल खत्म हो गई थी। दूसरी आँख की ज्योति भी बहुत तेजी से क्षीण होती जा रही थी।
“बाबा,पकड़ो---पकड़ो!” बच्चा उसके चारों ओर घूमते हुए कह रहा था,
उसने बच्चे को हाथ पकड़ने के लिए हाथ फैलाए तो एक विचार उसके मस्तिक में कौंधा-जब दूसरी आँख से भी अंधा हो जाएगा---तब?---तब?---वह---क्या करेगा?---किसके पास रहेगा?---बेटों के पास? नहीं---नहीं! बारी-बारी से सबके पास रहकर देख लिया---हर बार अपमानित होकर लौटा है---तो फिर?---
“मैं यहाँ हूँ---मुझे पकड़ो!”
उसने दृढ़ निश्चय के साथ धीरे-से कदम बढ़ाए---हाथ से टटोलकर देखा---मेज---उस पर रखा गिलास---पानी का जग---यह मेरी कुर्सी और यह रही चारपाई---और –और---यह रहा बिजली का स्विच---लेकिन ---तब---मुझ अंधे को इसकी क्या ज़रूरत होगी?---होगी---तब भी रोशनी की ज़रुरत होगी---अपने लिए नहीं---दूसरों के लिए---मैंने कर लिया---मैं तब भी अपना काम खुद कर लूँगा!”
“बाबा, तुम मुझे नहीं पकड़ पाए---तुम हार गए---तुम हार गए!” बच्चा तालियाँ पीट रहा था।
बूढ़े की घनी सफेद दाढ़ी के बीच होंठों पर आत्मविश्वास से भरी मुस्कान थिरक रही थी।

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ऑक्सीजन

वह सड़क पर नज़रें गड़ाए बहुत ही सुस्त चाल से चल रहा था। मजबूरी में मुझे बहुत धीरे-धीरे कदम बढ़ाने पड़ रहे थे।
“भाई साहब---दो मिनट सुस्ता लें?” उसने पुलिया के नज़दीक रुकते हुए पूछा।
“हाँ---हाँ, जरूर ।” मैंने कहा।
“बहुत जल्दी थक जाता हूँ, लगता है जैसे शरीर में जान ही नहीं है।” वह निराशा से बुदबुदाया। फिर उसने एक सिगरेट सुलगा ली।
सुबह की सैर पर निकले लोग उसके सिगरेट पीने की हैरानी से देख रहे थे। तभी कुछ फौजी दौड़ते हुए हमारे सामने से गुज़रे।
“मैं आपको भी इन फौजियों की तरह दौड़ लगाते देखा करता था,” उसने कहा, “मेरी वजह से आप दौड़ नहीं पाते----।”
“नहीं---नहीं, आप गलत सोच रहे हैं,” मैंने उसकी बात काटते हुए जल्दी से कहा, “मुझे तो आपका साथ बहुत पसंद है।”
उसने मेरी ओर देखा। उसकी दाढ़ी बढ़ी हुई थी, आँखों से जीवन के प्रति घोर निराशा झाँक रही थी। चार दिन पहले गाँधी पार्क में टहलते हुए मेरा और उसका साथ हो गया था। ज़िदगी कुछ लोगों के साथ कितना क्रूर मज़ाक करती है, एक के बाद एक हादसों ने उसे तोड़कर रख दिया था।
हम फिर टहलने लगे थे, वह लगातार निराशाजनक बातें कर रहा था।
“मुझे थकान-सी महसूस हो रही है।” थोड़ी देर बाद मैंने उससे झूठ बोलते हुए कहा।
“आप थक गए? इतनी जल्दी!---मैं तो नहीं थका!!” उसकें मुँह से निकला।
“फिर भी दो मिनट बैठिए---मेरी खातिर!!”
“क्यों नहीं---क्यों नहीं!” इन चार दिनों में पहली बार उसके होंठों पर आत्मविश्वास भरी मुस्कान रेंगती दिखाई दी।
इस बार उसने सिगरेट नहीं सुलगाई बल्कि दो-तीन बार लंबी साँस खींचकर फेफड़ों में ताजी हवा भरने का प्रयास किया। थोड़ा सुस्ताने के बाद जब हम चले तो मैंने देखा, उसकी चाल में पहले जैसी सुस्ती नहीं थी।

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नंगा आदमी

आँख खुलते ही मैंने घर के सभी खिड़की-दरवाजे खोल दिए। वर्षों से बंद पड़े कमरे में हर कहीं चाँदनी छिटक गई। सात समुंदर का फैसला तय कर मुझ तक पहुँची हवा ने जैसे ही मुझे छुआ, मेरे शरीर में झुरझुरी-सी दौड़ गई। मैंने दो-तीन बार गहरी साँस ली, फिर न जाने किसे पराभूत मैंने एक-एक कर अपने सभी कपड़े उतार डाले। इनमें वे सभी पोशाकें जिन्हें मैं आज तक भिन्न-भिन्न ‘अवसरों’ पर पहनता रहा था।
मैं घर से बाहर सड़क पर आ गया । आसमान में चाँद चाँदी-सा चमक रहा था। सड़क पर खूब हलचल थी।
सबसे पहले मुझे बहुत-सी औरतें आती दिखाई दीं। हरेक की गोद में एक नन्हा सूरज था। उन नन्हें सूर्यों को अपनी जैसी हालत में देखकर मुझे खुशी हुई। उनमें से किसी ने मुझ पर धयान नहीं दिया। जब वे मेरे पास से गुज़रीं तो मैं उनके वात्सल्य की ऊष्मा में नहा गया।
सामने से लड़के-लड़कियों का झुंड चला आ रहा था।वे अपने सपनों की बातें करते हुए मेरे पास से निकल गए। कई सालों बाद मैं जाग्रत अवस्था में सपने देखने लगा।
कारखाने से लौट रहे कामगरों की आँखों में दिनभर की मेहनत से कमाई गई तृप्त थकान थी। उन्होंने भी मेरी ओर ध्यान नहीं दिया। जब वे मेरे पास से गुज़रे तो मैं पसीने से नहा गया।
आगे सड़क का सन्नाटा था। दोनों ओर के मकानों के खिड़की-दरवाजे ही नहीं रोशनदान भी मजबूती से बंद थे। बड़े-बड़े लोहे के गेटों के उस पार विदेशी नस्ल के खतरनाक कुत्ते थे, जो मुझे देखते ही ज़ोर-ज़ोर से भौंकने लगे। देखते ही देखते काँच की दीवारों के पीछे तरह-तरह की पोशाकों में लिपटे लोग नमूदार हो गए। मुझे इस हालत में देखकर उनके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। वे सब सपने अपने घरों में दुबक गए।
घर लौटने पर वर्षों बाद मीठी नींद सोया ।
सुबह खिड़की से झाँककर देखा। बाहर वही लोग जमा थे, जो रात मुझे देखकर छिप गए थे। इस समय उन सभी ने सफेद कपड़े पहन रखे थे।
मेरे बाहर आते ही उनमें से एक आगे बढ़कर आदेश्भरे अंदाज़ में बोला, “तुम ऐसा नहीं कर सकते---लो, इन्हें पहन लो।”
मैंने देखा, उसके पास वही कपड़े थे जिन्हें बीती रात उतार फेंका था।


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