सशक्त लघुकथाओं की तलाश
सुकेश साहनी
काफी पहले की बात है। मैं अपने एक बुजुर्ग मित्र के साथ बैठा बातें कर रहा था, जो लघुकथाओं से बहुत चिढ़ते थे। मेज पर उसी समय डाक से आई पत्रिका का अंक रखा था। बातें करते हुए उन्होंने उसे उठा लिया और एक दो पन्ने पलटने के बाद जोर–जोर से पढ़ने लगे, ‘‘ऊपर बड़े–बड़े अक्षरों में लिखा था–शराब जहर है। शराब एक रोग है। इसे हाथ न लगाएँ। उसी के नीचे एक पोस्टर था–खुशखबरी!.... खुल गया... खुल गया...आपके शहर में अंग्रेजी शराब का ठेका,...आइए... पधारिए!’’ पढ़कर रुके,मेरी ओर देखा और फिर ठहाका लगाकर हँस पड़े । हँसते–हँसते उन्होंने अपनी सिगरेट की डिब्बी मेरी ओर बढ़ाई थी, ‘‘ये लो...मेरी भी एक लघुकथा–सिगरेट स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है!.....अहा!.... हर कश के साथ एक नई ताजगी...नया जोश.... कुछ कर गुजरने की ललक...जवाँ मर्दों की किंग साइज सिगरेट!
‘‘आप भी चुन–चुनकर लघुकथाएँ पढ़ते हैं। मैं अभी आपको ऐसी लघुकथा पढ़वा सकता हूँ कि आप लोहा मान जाएंगे।’’
‘‘अच्छा!’’ वे व्यंग्य से मुस्कराए थे, ’’अच्छी लघुकथा ढूँढकर पढ़वानी पड़ती हैं।...च...च्च....च...बड़े दुख की बात हैं...’’
यह घटना लगभग अठारह साल पहले की है। इस बीच लघुकथा ने अपनी विकास यात्रा के कई सोपान तय किए हैं लेकिन लघुकथा के नाम पर इस प्रकार के ब्योरे आज भी बहुतायत में दिखाई देते हैं। दो परस्पर विरोधी घटनाओं वाली लघुकथाओं से यह क्षेत्र पटा पड़ा है।
लघुकथा की लोकप्रियता के पीछे उसकी आकारगत लघुता प्रमुख है। यही आकारगत लघुता उसके लिए अभिशाप भी बनी हुई है। आसान विधा जानकर हर नया लेखक इसमें हाथ आजमाता हैं। फास्ट फूड की तर्ज पर सैकड़ों लघुकथाओं का निर्माण रोज हो रहा है। ऐसी असंख्य लघुकथाओं की उपस्थिति के कारण सशक्त लघुकथाओं का अस्तित्व भी खतरे में पड़ जाता है। पाठकों में लोकप्रियता के कारण पत्र–पत्रिकाओं के सम्पादक लघुकथाओं को ससम्मान छापना चाहते हैं,पर अधिकतर की शिकायत यही है कि सशक्त लघुकथाएँ बहुत कम उपलब्ध हो पाती हैं।
कथादेश अखिल भारतीय लघुकथा प्रतियोगिता 2007 के परिणाम की घोषणा की जा चुकी है। रचनाएँ पाठकों के सम्मुख हैं। इस प्रतियोगिता के आयोजन का मुख्य उद्देश्य सशक्त लघुकथाओं की तलाश एवं इस विधा में सक्रिय प्रतिभाओं को प्रोत्साहित करना रहा है। गत वर्ष पुरस्कृत रचनाओं को पढ़कर ‘अनुगूँज’ में कुछ पाठकों की प्रतिक्रिया थी कि इससे अच्छी रचनाएँ तो उन्हें सामान्य अंकों में पढ़ने को मिल जाती हैं । देश भर से आई सैकड़ों लघुकथाओं में से निर्णायकों द्वारा चुनी गई चंद लघुकथाओं को पाठकों की अपेक्षा के अनुरूप होना ही चाहिए परन्तु यह प्रतियोगिता हेतु प्राप्त रचनाओं की गुणवत्ता पर ही निर्भर करता है। निर्णायकों को उसी में से चयन करना होता है, जो उपलब्ध कराया जाता है। रचनाओं के साथ न्याय हो सके इसके लिए भाई हरिनारायण बहुत श्रम करते हैं। निर्णय होने तक निर्णायकों एवं स्वयं सम्पादक–कथादेश को कथाकारों के नाम तक पता नहीं होते।
लघुकथा को सुगठित होना चाहिए, उसमें दोहों जैसी बारीक–खयाली होनी चाहिए, लघुकथा को सांकेतिक, प्रतीकात्मक या अभिव्यंजनात्मक होना चाहिए, कथ्य प्रकटीकरण का समायोजन सशक्त होना चाहिए, लघुकथा को चरमोत्कर्ष पर समाप्त होना चाहिए आदि आदि न जाने कितने निकष हैं, जिन पर लघुकथा को खरा उतरना चाहिए। आम पाठक के लिए इन बातों का कोई महत्त्व नहीं है। उसे तो रचना पढ़कर मुकम्मल कृति का स्वाद मिल गया तो रचना सफल अन्यथा बेकार। लेकिन लघुकथा लेखन में लगे रचनाकारों को इन बिन्दुओं पर गम्भीरता से विचार करना चाहिए। इस कसौटी पर पुरस्कृत लघुकथाओं को कसा जाए तो तकनीक का धमाका (जावेद आलम), ये कैसी डगर है (मार्टिन जॉन),बिन शीशों का चश्मा (राम कुमार आत्रेय), खून (राघवेन्द्र कुमार शुक्ल), खंडन (हरि मृदुल) और चटसार (पंकज कुमार चौधरी) दूसरी रचनाओं की तुलना में शिल्प की दृष्टि से कहीं अधिक अनुशासित दिखाई देती हैं। फिर भी ‘तकनीक का धमाका’ को छोड़कर अन्य रचनाएँ प्रथम तीन में स्थान बनाने में सफल नहीं हुई। ‘खून’ धनाढय किसानों के पास गुलामी करते श्रमिकों की पीड़ा एवं विद्रोह को उजागर करती है। इस कथा से लघुकथा में नेपथ्य के महत्व को रेखांकित किया जा सकता है। नेपथ्य में महिला पात्रों की उपस्थिति अनायास ही नारी शोषण की दारूण कथा की ओर हमारा ध्यान खींच लेती हैं। यह लघुकथा सम्प्रेषणीयता के संकट के चलते सभी निर्णायकों का ध्यान नहीं खींच पाई। गाँधीगीरी के इस चर्चित दौर में गाँधी जी की प्रतिमा को प्रतीक के तौर पर लिखी गई रामकुमार आत्रेय की लघुकथा ‘बिन शीशों का चश्मा अस्पष्टता के कारण निर्णायकों की पहली पसन्द नहीं बन सकी। ये कैसी डगर है, चटसार और खंडन सामान्य विषयवस्तु (कांटेन्ट)के कारण अपेक्षाकृत कम अंक प्राप्त कर सकीं।
कोई स्थिति, घटना अहसास या विचार ही हमें लिखने के लिए प्रेरित करता है। इसे हम किसी रचना के लिए कच्चा माल भी कह सकते हैं। देखने में आता है कि कई नये लेखक इस घटना या अहसास के चित्रण को ही मुकम्मल लघुकथा मान लेते हैं। वस्तुत: कच्चे माल के पकने की प्रक्रिया ही विषय वस्तु या घटना को दृष्टि मिलना है। इसके लिए लेखक को धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करनी चाहिए। इस प्रतीक्षा की अवधि कुछ दिनों से लेकर वर्षों तक की हो सकती है। अपनी सृजन यात्रा के दौरान लेखक का साक्षात्कार किसी ऐसी घटना से होता है जो पहली लघुकथा को मायने देती है। लेखक के भीतर किसी रचना के लिए आवश्यक कच्चे माल के पकने की प्रक्रिया ही लेखक की रचना प्रक्रिया है। लघुकथा की रचना प्रक्रिया में उपन्यास या कहानी की भांति बरसों लग सकते हैं। लघुकथा में कहानी की भांति कई घटनाओं, वातावरण निर्माण एवं चरित्र चित्रण द्वारा पाठकों को बांधने या रिझाने का अवसर नहीं होता है। अधिकतम दो घटनाओं वाला कथानक लघुकथा के लिए आदर्श होता है। यहाँ दूसरी घटना को पहली घटना का पूरक होना चाहिए। इस कसौटी पर आनंद की ‘धरोहर’ खरी उतरती है, वहीं लघुकथा का गठन लेखक से अधिक श्रम की मांग करता है। शुरूआत में संग्रहालय वाले भाग को और अधिक कसने की जरूरत थी। यहाँ रचना में लेखक की उपस्थिति अखरती है। ‘जबकि देश में ज्यादातर लोगों का वर्तमान भी बिगड़ा जा रहा था।’ अथवा ‘देश का ज्यादातर बचपन गर्मियों में गर्म रेत पर नंगे पैरों जल रहा होगा, जबकि सर्दियों में ठंठी रेत पर ठिठुर रहा होगा।’ जैसी टिप्पणियाँ रचना को कमजोर करती है क्योंकि कथानायक की पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में पाठक को शुरू में ही पता चल जाता है जबकि इसे कथ्य विकास के साथ धीरे–धीरे पता चलना चाहिए। इन कमियों के बावजूद लघुकथा ‘विषय की नवीनता एवं निर्वाह’ के कारण प्रथम स्थान पाने में सफल रही है। कथा की विषयवस्तु, लेखकीय दृष्टि एवं उसमें संबंधित विचार मिलकर ‘धरोहर’ के रूप में सामने आते हैं। इस प्रकार की रचनाओं में लेखक के सृजनात्मक श्रम की आँच को महसूस किया जा सकता है।
तकनीक का धमाका (जावेद आलम) का कथानक लघुकथा के लिए उपयुक्त हैं। हवा की रफ्तार से उड़ते हुए बाइक सवार सोचता है कि लेजर पावर की किरण से आगे चल रहे बाइक सवार को जरा भी दायें तरफ खिसका दे तो वह रेलिंग में घुस जाए (पहली घटना)। अगले ही पल वह अपनी विध्वंसक सोच पर हैरान रह जाता है, ‘हे भगवान! यह मैं क्या सोच रहा था।’ तभी उसके पीछे चल रहा बाइक सवार लेजर पावर के जरिए उसे दायें खिसका देता है (दूसरी घटना)। एक धमाके के साथ पहले बाइक सवार की जीवन लीला समाप्त हो जाती है (चरमोत्कर्ष)। इस कथा को पढ़कर हमारा ध्यान कम्प्यूटर के सामने बैठे उन तमाम बच्चों की ओर चला जाता है जो काल्पनिक पात्रों को गोलियों से भूनते और मोटर रेस में अपने आगे चल रही गाडि़यों को नेस्तनाबूद कर गर्वित होते हैं। लेखक ने बहुत प्रभावी ढंग से पाठकों का ध्यान आने वाले संकट की ओर खींचा है।
तृतीय स्थान पर पुरस्कृत ‘खच्चर’ (रविन्द बतरा) में बड़ा कालखण्ड है, कई घटनाएँ हैं। ऐसे कथानक लघुकथा के लिए आदर्श नहीं कहे जा सकते। कई घटनाओं के संक्षिप्त ब्योरों के कारण इन्हें कहानी का सार कहा जा सकता है। कथाकार इस पर सशक्त कहानी भी लिख सकता है, जबकि ‘धरोहर’ एवं ‘तकनीक का धमाका’ में इस तरह के विस्तार की कोई गुंजाइश नहीं है। लघुकथा में प्रयोग की असीम संभावनाओं को देखते हुए इसे किसी चौहद्दी
में बाँधना उपयुक्त न होगा। इस कमी को लेखक ने अपने रचना कौशल से साध लिया है। रवीन्द्र बतरा ने इस बात का पूरा ध्यान रखा है कि फोकस खच्चर पर ही रहे और कथा का प्रवाह बाधित न हो। कांटेन्ट के लिहाज से इस रचना ने निर्णायकों को प्रभावित किया है। आजादी के बाद आज युवा पीढ़ी जो कुछ कर रही है, उसने हमारे राजनैतिक,सामाजिक, सांस्कृतिक एवं नैतिक मूल्यों को उहापोह की स्थिति में पहुँचा दिया है। इस दौड़ में संस्कारगत चेतना परम्परागत मूल्य बेमानी और हास्यास्पद हो गए हैं। रामलाल और उसकी पत्नी के पास उनके दोनों बेटे नहीं रहते। वे खच्चर को संतान की तरह प्यार देते है। रामलाल का शरीर जवाब दे जाता है, खच्चर की जरूरत न रहने पर भी वे उसे बेचने की नहीं सोचते और उसे अपने साथ ही रखते हैं। बेटे इस स्थिति का मखौल उड़ाते हैं। बेटों की नजर पैतृक सम्पत्ति पर है।
लघुकथा का समापन बिन्दु कहानी एवं उपन्यास की तुलना में अतिरिक्त श्रम एवं रचना कौशल की माँग करता है। लघुकथा के समापन बिन्दु को उस बिन्दु के रूप में समझा जा सकता है जहाँ रचना अपने कलेवर के मूल स्वर को कैरी करते हुए पूर्णता को प्राप्त होती है। ‘खच्चर’ में रविन्द्र बतरा इस प्रयोग में सफल हुए हैं। समापन बिन्दु से पूरी रचना संतुलित और महत्वपूर्ण हो गई है–जिन बेटों के कभी बाप की परवाह नहीं की, जो खच्चर बेचने के लिए बार–बार दबाव डालते रहे, वे ही अब झगड़ रहे थे कि खच्चर की देखभाल वे ही करेंगे। लेखक ने ‘खच्चर’ के माध्यम से माता पिता की सम्पत्ति पर गिद्ध– दृष्टि रखने वाले कपूतों की अच्छी खबर ली है।
प्रतियोगिता के जरिए चयनित ये लघुकथाएँ अपने वास्तविक निर्णायकों (पाठकों)के समक्ष प्रस्तुत हैं। लेखकों,सम्पादकों के लिए उन्हीं की टिप्पणी/प्रतिक्रिया का महत्त्व है। रचनाओं पर ऊपर की गई टिप्पणी लघुकथा के क्षेत्र में आने वाले नये लेखकों को ध्यान में रखकर की गई है। अंत में इतना ही कि लघुकथा कागज पर या पत्र–पत्रिका में भले ही छोटी सी जगह लेती है लेकिन इसकी रचना प्रक्रिया बहुत जटिल है जो लेखक से अत्यधिक धैर्य,श्रम और समय की माँग करती है।
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अंत में इतना ही कि लघुकथा कागज पर या पत्र–पत्रिका में भले ही छोटी सी जगह लेती है लेकिन इसकी रचना प्रक्रिया बहुत जटिल है जो लेखक से अत्यधिक धैर्य,श्रम और समय की माँग करती है।
सुविवेचना से परिपूर्ण रोचक एवं साहित्यिक लेख।
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