Saturday, November 24, 2007

ऊँचाई

रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

पिताजी के अचानक आ धमकने से पत्नी तमतमा उठी, “लगता है बूढ़े को पैसों की ज़रूरत आ पड़ी है, वर्ना यहाँ कौन आने वाला था। अपने पेट का गड्‌ढा भरता नहीं, घर वालों का कुआँ कहाँ से भरोगे?”
मैं नज़रें बचाकर दूसरी ओर देखने लगा। पिताजी नल पर हाथ-मुँह धोकर सफर की थकान दूर कर रहे थे। इस बार मेरा हाथ कुछ ज्यादा ही तंग हो गया। बड़े बेटे का जूता मुँह बा चुका है। वह स्कूल जाने के वक्त रोज़ भुनभुनाता है। पत्नी के इलाज़ के लिए पूरी दवाइयाँ नहीं खरीदी जा सकीं। बाबू जी को भी अभी आना था।
घर में बोझिल चुप्पी पसरी हुई थी। खान खा चुकने पर पिताजी ने मुझे पास बैठने का इशारा किया। मैं शंकित था कि कोई आर्थिक समस्या लेकर आए होंगे। पिताजी कुर्सी पर उकड़ू बैठ गए। एकदम बेफिक्र, “सुनो” -कहकर उन्होंने मेरा ध्यान अपनी ओर खींचा। मैं साँस रोककर उनके मुँह की ओर देखने लगा। रोम-रोम कान बनकर अगला वाक्य सुनने के लिए चौकन्ना था।वे बोले, “खेती के काम में घड़ी भर की फ़ुर्सत नहीं मिलती है। इस बखत काम का जोर है। रात की गाड़ी से ही वापस जाऊँगा। तीन महीने से तुम्हारी कोई चिट्ठी तक नहीं मिली। जब तुम परेशान होते हो, तभी ऐसा करते हो।”
उन्होंने जेब से सौ-सौ के दस नोट निकालकर मेरी तरफ़ बढ़ा दिए- “रख लो। तुम्हारे काम आ जाएँगे। इस बार धान की फ़सल अच्छी हो गई है। घर में कोई दिक्कत नहीं है। तुम बहुत कमज़ोर लग रहे हो। ढंग से खाया-पिया करो। बहू का भी ध्यान रखो।”
मैं कुछ नहीं बोल पाया। शब्द जैसे मेरे हलक में फँसकर रह गए हों। मैं कुछ कहता इससे पूर्व ही पिताजी ने प्यार से डाँटा- “ले लो। बहुत बड़े हो गए हो क्या?”“नहीं तो” - मैंने हाथ बढ़ाया। पिताजी ने नोट मेरी हथेली पर रख दिए। बरसों पहले पिताजी मुझे स्कूल भेजने के लिए इसी तरह हथेली पर इकन्नी टिका दिया करते थे, परन्तु तब मेरी नज़रें आज की तरह झुकी नहीं होती थीं।

Friday, November 9, 2007

बाल मनोविज्ञान पर आधारित लघुकथाएँ :

:सुकेश साहनी
मेरा बचपन संयुक्त परिवार में बीता है। एक घटना याद आ रही है। सुबह उठ कर देखता हूँ–माँ रसोई में नहीं है बल्कि रसोई के बाहर बने स्टोर में अलग–थलग बैठी हैं। दादी माता जी को वहीं चाय नाश्ता दे रही है। मुझे हैरानी होती है। माँ तो बहुत सबेरे उठकर काम में लग जाती है हम रसोई उनके पास बैठकर ही नाश्ता करते हैं। हमें खिलाने–पिलाने के बाद ही खुद खाती हैं।
‘‘आपको क्या हुआ है?’’ मैं माँ से पूछता हूँ।
‘‘कुछ भी नहीं।’’ माँ कहती है।
‘‘तो आज आप यहाँ क्यों बैठी हैं, दादी खाना क्यों बना रही है?’’
‘‘वैसे ही, मेरी तबीयत ठीक नहीं है।’’ माँ हँसते हुए कहती हैं।
मेरा बाल मन सोच में पड़ जाता है– माँ बीमार भी नहीं लग रहीं,तबीयत खराब होने की बात हँसते हुए कह रही है? मैं खेलकूद में लग जाता हूँ और इस बात को भूल जाता हूँ। दोपहर में खाने के समय फिर मेरा ध्यान इस ओर जाता है। दादी माता जी को रोटी हाथ में दे रही हैं, किसी बर्तन में नहीं।
‘‘आप प्लेट में रोटी क्यों नहीं खा रही ?’’ मैं पूछता हूँ।
माँ मेरी ओर देखते हुए कुछ नहीं कहतीं। मैं अपना सवाल फिर दोहराता हूँ।
‘‘आज मैं गंदी हो गई हूँ।’’ माँ फिर हँसती हैं।
‘‘मतलब?’’
‘‘दरअसल आज जमादारिन को डिब्बे में पानी डालते समय कुछ छींटे मुझपर पड़ गए थे।’’
‘‘तो फिर?’’ मेरी समझ में कुछ नहीं आता।
‘‘जाओ खेलो, तुम अभी छोटे हो कुछ नहीं समझोगे।’’
माँ कहती हैं और दादी और ताई हँसने लगती है।
बात बहुत पुरानी है लेकिन मुझे अच्छी तरह याद है। बाल मन कितनी गहराई से सोचता है, इसी को स्मरण करते हुए इस घटना के बारे में लिख रहा हूँ। मुझे याद है इस बात पर मैंने काफी माथापच्ची की थी अपने बड़े भाइयों से भी पूछा था।
दरअसल माँ मासिक धर्म से थीं। उन दिनों उनका रसोई में प्रवेश वर्जित था। देखने की बात यह है कि मेरे द्वारा उठाए गए सवाल पर माँ ने जो उत्तर दिया उससे मेरे बाल मन पर क्या प्रभाव पड़ा? उन दिनों हमारे यहाँ आधुनिक टायलेट नहीं थे। मैला उठाने जमादारिन आती थी। माँ द्वारा मासिक धर्म की बात न बता सकने की विवशता के चलते जो कारण दिया गया, उससे बाल मन पर दलितों के अपवित्र होने की बात कहीं गहरे अंकित हो जाती है। बहुत सी बातें धीरे–धीरे खुद ही समझ में आने लगती है।
अकसर हम बच्चों को बहलाने के लिए लापरवाही से कुछ भी कह जाते हैं; जबकि बच्चे हमारी बातों को काफी गम्भीरता से लेते हैं। बाल मनोविज्ञान पर आधारित संचयन के अध्ययन से यह बात और भी स्पष्ट होकर सामने आती है। आज भी स्थितियों में बहुत बदलाव नहीं आया है। भूपिन्दर सिंह : रोटी का टुकड़ा, नीलिमा टिक्कू : नासमझ, मीरा चन्द्रा : बच्चा जैसी लघुकथाओं में बच्चों द्वारा पूछे जा रहे प्रश्न आज भी अनुत्तरित है। इतना अंतर अवश्य आया है कि शहरी क्षेत्रों में दलित वर्ग का बच्चा अब अपने शोषण के प्रति जागरूक है (कमल चोपड़ा : खेलने दो, रंगनाथ दिवाकर : गुरु दक्षिणा )
विषयों के आधार पर लघुकथा के विभिन्न संचयनों को तैयार करते समय लघुकथा की ताकत का अहसास होता है। लघुकथा लेखक उस विषय की कितनी गहन पड़ताल करने में सक्षम हैं, इसे वर्तमान संचयन में भी देखा जा सकता है।
प्रस्तुत संग्रह की लघुकथाओं को अध्ययन की दृष्टि से निम्न प्रकार वर्गीकृत किया जा सकता है–

बच्चे और शिक्षा
होश संभालते ही हर माँ–बाप बच्चे को शिक्षित करना चाहता है। सबकी सोच अलग–अलग होती है। बालक, अभिभावक और शिक्षक के बीच एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है ।शिक्षा की कोई भी विधि -प्रविधि ,पाठ्यक्रम-पाठ्यचर्या लागू करने से पहले बच्चे को समझना होगा।कोई भी तौर-तरीका बच्चे से ऊपर नहीं है और न हो सकता है ।कोई भी व्यक्ति या संस्था इसके ऊपर नहीं है ,वरन् इसके लिए है ।यह बात सदैव ध्यान में रखनी होगी ।
गिजु भाई की लघुकथा तुम क्या पढ़ोगे उन अभिभावकों पर करारा व्यंग्य है जो आनंद लेकर अक्षर ज्ञान प्राप्त कर रहे बच्चे को बाल पोथी पढ़ने के लिए विवश कर पढ़ाई के प्रति अरुचि पैदा करते हैं। आज हमारे स्कूल बच्चों के लिए यातना गृह हो गए हैं (श्याम सुन्दर अग्रवाल : स्कूल)। ऐसे पिंजरों में बंद बच्चे अपनी बाल सुलभ जिज्ञासाओं एवं इच्छाओं से विमुख होकर मशीन बन जाते हैं। ऐसे में जब किसी पाठशाला में बच्चे से खुश होकर कुछ मांगने के लिए कहा जाता है तो यदि वह ‘लड्डू’ की माँग करता है तो श्रीचन्द्रधर शर्मा गुलेरी आश्वस्त होते है उन्हें लगता है कि बच्चा बच गया, उसके बचने की आशा है। स्कूल के अध्यापकों एवं अभिभावकों ने बच्चे की जन्मजात प्रवृत्तियों का गला घोंटने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। प्रेम भटनागर की शिक्षाकाल उस विडम्बना से परिचय कराती है जहाँ स्कूल वाले बच्चे की प्रतिभा को सम्मानित करना चाहते है परन्तु स्कूल में अभिभावकों को बुलाने का एक ही अभिप्राय समझा जाता है कि बच्चे ने कोई शरारत की होगी। इस पर अभिभावक बच्चे की डायरी में लिख भेजते हैं –हमने कल रात को उसकी जम कर पिटाई कर दी है। उसने वादा किया है कि वह आगे से कोई शिकायत का मौका नहीं देगा। आशा है अब सम्पर्क की आवश्यकता नहीं रह गई है। बच्चों के मन में स्कूल के प्रति डर का बीजारोपण जाने अनजाने माता–पिता द्वारा भी कर दिया जाता है (सुरेश अवस्थी : स्कूल)। शिक्षा को कंधों पर भार के रूप में ढोता बच्चा युनिवर्सिटी तक की पढ़ाई समाप्त करने के पश्चात् खूब–खूब खेलने के सपने देखता है (अशोक भाटिया : सपना)। जहाँ शिक्षक अपने दायित्व के प्रति समर्पित हैं वहाँ बच्चा शिक्षा ग्रहण करते हुए अपने मन की गाँठें गुरुजन के आगे खोलने में देर नहीं करता (सतीशराज पुष्करणा : अन्तश्चेतना) । इस श्रेणी की अन्य लघुकथाएं हैं अहमद निसार : पद चिह्न, भगीरथ : शिक्षा, बलराम अग्रवाल : जहर की जड़े, यादवेन्द्र शर्मा चन्द्र : जिज्ञासा, शैलेन्द्र सागर : हिदायत ।


बच्चे और परिवार
बच्चे अपना अधिकांश समय घर और स्कूल में बिताते हैं। ऐसे में माता–पिता की जिम्मेवारी और भी बढ़ जाती है। बच्चों का कोमल मस्तिष्क चीजों को बहुत जल्दी ग्रहण करता है। आज भागम–भाग के दौर में काम काजी माता–पिता के पास बच्चों के लिए अवकाश नहीं है। विभिन्न कारणों से टूटते पति–पत्नी के रिश्ते बच्चों के मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव डालते हैं। आधुनिकता की दौड़ में बच्चों को कान्वेंट स्कूल में पढ़ाने वाले माता–पिता बच्चों की प्रतिभा की नुमाइश करते हुए गर्व महसूस करते हैं ऐसे अभिभावकों की पोल बहुत जल्दी खुल जाती है (महेन्द्र रश्मि : कान्वेंट स्कूल)। अक्सर माता–पिता बच्चों के प्रतिकूल आचरण हेतु टी.वी. को दोषी मानते हैं, जबकि बच्चा उनके आचरण का अनुसरण करता है (माघव नागदा : असर)। ऐसे माता–पिता की परस्पर विरोधी विचारधाराओं के बीच नन्हा बचपन पिसता रहता है (बलराम : गंदी बात)। हमारा आचरण किसी नन्हें बच्चे के मस्तिष्क में साम्प्रदायिकता के विष बीज का रोपण कर सकता है (सूर्यकांत नागर : विष बीज)। बच्चों के मानसिक विकास में आर्थिक कारण बड़ी बाधा के रूप में सामने आते हैं। गरीबी की रेखा के नीचे जीवन जीता आम आदमी बच्चे को पाठ पढ़ाते हुए सेब और अनार के बारे में बता तो सकता है लेकिन बच्चे के प्रश्नों के आगे खुद को लाचार महसूस करता है (सुभाष नीरव : बीमार)। पारस दासोत की भूख में उस माँ की पीड़ा को महसूस किया जा सकता है जो यह कहती है कि दौड़ने कूदने से भूख अच्छी नहीं अधिक लगती है इस श्रेणी की अन्य लघुकथाएं हैं –सतीश दुबे : विनियोग, नासिरा शर्मा : रुतबा, प्रेम जनमजेय : जड़, अमरीक सिंह दीप : जिंदा बाइसस्कोप, उर्मि कृष्ण : अमानत, हरदर्शन सहगल : गंदी बातें, अनूप कुमार : मातृत्व, निर्मला सिंह : आक्रोश, विजय बजाज : संस्कार, काली चरण प्रेमी : चोर,
बच्चे और समाज
बच्चों के चरित्र निर्माण में समाज का बहुत बड़ा योगदान होता है। यह दुनिया सबसे बड़ी पाठशाला है। (सुकेश साहनी : स्कूल)। आर्थिक कारणों से घर छोड़ कर कमाने निकला बालक जीवन संघर्ष करता हुआ समाज के कथाकथित ठेकेदारों को मुँह तोड़ उत्तर दे सकता है। संग्रह में सम्मिलित अधिकतर रचनाएं बच्चों के प्रति समाज की उपेक्षा को चित्रित करती है। यहाँ तक कि वक्त कटी के लिए किसी भिखारी बच्चे तमाम सवाल किए जाते हैं, बिना उसकी परिस्थितियाँ जाने। ऐसे उजबकों को बच्चा निरुत्तर कर देता है जब वह यह कहता है कि माँ को बेटा कमा कर नहीं खिलायागा तो कौन खिलाएगा (हीरालाल नागर : बौना)। समाज के निर्मम रवैये के चलते बच्चों में अपराध की प्रवृत्ति बढ़ रही है। हमारी जरा सी चूक किसी बच्चे की जीवन दिशा बदल सकती है इसे रावी की लघुकथा भिखारी और चोर में देखा जा सकता है। हरीश करमचंदाणी की लूट उन गरीब बच्चों के दर्द को रेखांकित करती है जो पतंग न खरीद पाने के कारण कटकर आई पतंग उड़ाना चाहते हैं पर यहाँ भी किसी बड़ी कोठी की छत पर खड़ा बच्चा पतंग की डोर थाम उन्हें इस खुशी से वंचित कर देता है।
छोटी उम्र में काम के लिए निकलना पड़ना जहाँ गरीब तबके के बच्चों की नियति है वहीं समाज के सक्षम तबके द्वारा आर्थिक लाभ कमाने के लिए भोलेभाले बचपन को बाल श्रम में झोंक दिया जाता है। सरकारी मशीनरी इस समस्या पर खानापूरी कर पल्ला झाड़ लेती है और यह अंतहीन सिलसिला (विक्रम सोनी) चलता रहता है। मजदूरी के लिए विवश ऐसे बच्चे सपनों (देवांशु वत्स) में जीने को विवश है। सपने और सपने (रामेश्वर काम्बोज ‘हिंमाशु’) में बहुत ही मार्मिक ढंग से इस हकीकत को रेखांकित किया गया है कि सपनों से जीवन नहीं चलता, भूख तो रोटी से ही शांत होगी। इस श्रेणी की अन्य लघुकथाएं हैं–हरिमोहन शर्मा : सिद्धार्थ, भारत यायावर : काम, कुमार नरेन्द्र : अवमूल्यन, दीपक घोष : रोटी, यशपाल : सीख, अवधेश कुमार : मेरे बच्चे, दिनेश पाठक शशि : लक्ष्य, चित्रा मुद्गल : नसीहत, जोगिन्दर पाल : चोर, नीता सिंह : टिप, मुकीत खान : भीख।
बाल मन की गहराइयाँ
बाल मन की गहराई को रेखांकित करती अनेक लघुकथाएं यहाँ उपस्थित है। कामगार का बच्चा अपने पिता की परिस्थितियों से भली–भाँति वाकिफ है (रमेश बतरा : कहूं कहानी)। डॉ. तारा निगम की लघुकथा में बच्ची माँ से गुड़िया न लेने की बात कहती है क्योंकि उसे पता है कि आगे चलकर उसे गुड़िया नहीं बनना है। राजेन्द्र कुमार कन्नौजिया की लघुकथा की लड़की उस घरौंदे को बार–बार तोड़ देती है जिसपर लड़का सिर्फ़ अपना नाम लिखता है। वह उससे कहती है कि तू इस पर मेरा नाम क्यों नहीं लिखता। इस श्रेणी में राजेन्द्र यादव की अपने पार उत्कृष्ट रचना है। इस श्रेणी की अन्य लघुकथाएं हैं–विष्णु नागर : बच्चा और गेंद, अनिंन्दिता : सपने, रमेश गौतम : बारात, जगदीश कश्यप : जन–मन–गण, पूरन मृद्गल : जीत, विनायक : नाव, प्रबोध कुमार गोविल : माँ, श्याम सुन्दर दीप्ति : बदला, राजकुमार घोटड़ : जन्मदिन का तोहफा, कमलेश भट्ट कमल : प्यास।
संग्रह में शामिल रचनाओं का संक्षिप्त वर्गीकरण प्रस्तुत है। देशान्तर में विभिन्न देशों की लघुकथाएं भी शामिल की गई हैं ।बच्चों को प्यार करने वाले लोग इन कथाओं पर चिन्तन ज़रूर करेंगे । यहाँ प्रस्तुत रचनाओं को पुस्तकाकार प्रकाशित करने की भी योजना है, आपके अमूल्य सुझावों की प्रतीक्षा रहेगी।
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Thursday, October 25, 2007

मैग्मा

आंखों पर तेज रोशनी पड़ती है, एक पल के लिए कुछ दिखाई नहीं देता। प्रकाश के स्रोत की ओर नजरें गड़ाकर देखता हूं। धीरे–धीेरे सब कुछ स्पष्ट दिखाई देने लगता है–एक बड़ा–सा गोला है, जो अपने–आप में किसी लट्टू की तरह घूमता हुआ चक्कर लगा रहा है। इस गोले का केंद्रीय भाग ठोस न होकर पिघला हुआ है, पिघले भाग के तापमान का अनुमान इसी से हो जाता है कि यह भाग खौल रहा है, अंगारे–सा दहक रहा है। इसी भाग से प्रकाश फूट रहा है।
एकाएक उस गोले से नंगा आदमी निकलकर मेरे सामने खड़ा हो जाता है। गोले से फूटते प्रकाश में उसका शरीर जगमग कर रहा है। ऐसा लगता है, मानव उसका शरीर क्वाट्र्ज का है और प्रकाश उसके भीतर से फूट रहा है। उसके सीने वाले भाग में उस गोले जैसा खौलता द्रव पदार्थ है। मुझे लगता है कि मैंने इस तरह का दृश्य पहले भी कहीं देखा है। दिमाग पर जोर डालता हूँ तो याद आता है कि बरसों पहले जियोलॉजिकल स्टडी टुअर के दौरान इलेक्ट्रिक फरनेस में देखने का अवसर मिला था, जिसमें उच्च तापमान में लोहे को पिघलाया जा रहा था। भट्ठी में पिघला लोहा सोने–सा दमक रहा था, लेकिन उस पिघले लोहे को अधिक देर तक नंगी आंखों से देखना संभव नहीं था। कुछ ही पलों में हम पसीने से नहा गए थे... ठीक वैसा ही दृश्य है, पर इस गोले और आदमी के भीतर के पिघले द्रव को लगातार देख पा रहा हूँ।
सामने खडे आदमी का चेहरा किसी बच्चे जैसा है। लगता है, इसे अच्छी तरह जानता हूँ.... पर उसका नाम–पता याद नहीं आता।
गोले की सतह दर्पण सी चमक रही है।
बडा–सा मैदान है। जहां तक नजर जाती है .... रेत –ही–रेत है.... पेड पौधौं का नामोनिशान तक नहीं है .... कोई जीव जन्तु भी दिखाई नहीं देता.....रेत पर नंगे आदमी के पैरों की छाप स्पष्ट दिखाई दे रही है। जहां–जहां उसके पैर पडते हैं, नन्हीं घास उग आती है। वह एक जगह जमीन में गड्ढा खोदता है, वहां से फव्वारे के रूप में पानी फेट पड़ता है। जगह–जगह नन्हें पौधे दिखाई देने लगते हैं। वह पौधे को छूता है.... पौधा पेड़ में तब्दील हो जाता है। पेड़ को छूता है.... पेड़ फलों से लद जाता है। वह किसी बैले डांसर की तरह इधर से उधर थिरक रहा है। देखते ही देखते वो रेगिस्तानी भाग भरे–पूरे जंगल में बदल जाता है। उस आदमी के सीने का खौलता द्रव वहां के सभी प्राणियों में दिखाई देने लगता है, ठीक किसी सेल (कोशिका) के न्यूकलिअस की तरह।
सोचता हूँ, इस नंगे आदमी और उसके सीने की आग को कैमरे में कैद कर लेना चाहिए। पूरी दुनिया में धूम मच जाएगी, एक–एक फोटोग्राफ लाखों का बिकेगा।
कैमरे को आंख से लगाकर लेंस को फोकस करता हूँ .....हरा–भरा जंगल तो दिखाई देता है, पर नंगा आदमी गायब हो जाता है। फिर कोशिश करता हूँ .... इस बार कोई दूसरा दिखाई देता है, उसने ठीक मेरे जैसा सूट पहन रखा है। मुझे निराशा घेर लेती है, क्योंकि उसके सीने में वो आग दिखाई नहीं देती। मै कैमरा एक ओर रख देता हूँ ।
उस आदमी के सीने की आग के प्रति मन में विचित्र–सी प्यास जाग जाती है। सोचता हूँ ––वह आदमी नंगा था, जंगल के दूसरे जीव जंतु भी नंगे थे। क्यों न अपने कपड़े उतार कर देखूँ....शायद मेरे भीतर भी वैसी ही आग हो।
मन में आशा बंधती है।
मै एक–एक कर अपने कपडे़ उतारने लगता हूँ ,पर कपड़े हैं कि खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहे है,ं प्याज के छिलकों की तरह एक के बाद एक निकलते आ रहे हैं। जल्दी ही थक जाता हूँ। सोचता हूँ कि मुझे कपड़े उतारने में समय बर्बाद नहीं करना चाहिए, बल्कि उस नंगे आदमी को ही खोजना चाहिए।
जंगल में भटक रहा हूँ .... जहां–जहां मेरे पैर पड़ते हैं , वहां–वहां की घास जलकर राख हो जाती है। जिस चीज को छूता हूँ मिट्टी हो जाती है। पानी पीने के लिए जिस जल–स्रोत की ओर हाथ बढा़ता हूँ वह सूख जाता है। घबराकर मै रोने लगता हूँ ।
कंधे पर स्नेहिल स्पर्श से मैं चौक पड़ता हूँ। सिर उठाकर देखता हूँ––मुझसे थोडी़ दूरी पर वह खड़ी है। उसके बाल चांदी –से चमक रहे हैं, चेहरे पर वात्सल्य है। उसके सीने में भी खौलता हुआ द्रव है।
‘‘तुम रो क्यों रहे थे?’’ वह पूछती है।
‘‘वो मैं...’’ मैं संभलकर जवाब देता हूँ ‘‘शायद मैंने कोई बुरा सपना देखा था।’’
वह कुछ नहीं कहती, एकटक मेरी ओर देखती है। उसके चेहरे पर गहरी उदासी है, बहुत देर तक हममें कोई बात नहीं होती।
‘‘आओ, मैं तुम्हारे सीने में फिर से खौलते द्रव (मैग्मा1) की आग भर दूं। ’’ वह अपनी बांहें मेरी ओर फैला देती है।
मैं डरकर पीछे की ओर खिसकता हूँ।
यहीं जाग जाता हूँ। कमरे में नाइट बल्ब की धुंधली रोशनी है। दिल की धड़कन अभी तक असामान्य है। सीने में अजीब–सी सुलगन है। कमरा काफी गर्म है ।
सपने में अपने रोने की बात याद कर राहत–सी महसूस करता हूँ । कहते हैं––सपने में रोना शुभ होता है। उठकर एयरकंडीशनर की गति बढ़ा देता हूँ कमरा बिल्कुल पहले जैसा हो जाता है .... एकदम ‘ठंडा’।
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मैग्मा 1 पृथ्वी के भीतर सदैव पिघली अवस्था में रहने वाला द्रव पदार्थ बहुत–सी प्रक्रियाओं के लिए उत्तरदायी । यहीं द्रव जब धरती की सतह पर निकल आता है, तो लावा कहलाता है।

Saturday, July 7, 2007

सुकेश साहनी का लघुकथा संसार


जगदीश कश्यप
आठवें दशक में हिन्दी लघुकथा के पुनरुत्थान में जिन हस्ताक्षरों ने अपनी लेखकीय अस्मिता को दाँव पर लगाया और उसे साहित्यिक ऊँचाई प्रदान की, उनमें से अधिकतर किसी–न–किसी परिस्थितिवश लघुकथा क्षेत्र से तिरोहित होते दीखते हैं। मोहन राजेश, रमेश बतरा, सिमर सदोष, कमलेश भारतीय,मधुप मगधशाही, लक्ष्मेन्द्र चोपड़ा व कृष्ण कमलेश इसी कोटि में रखे जा सकते है। भगीरथ,डॉ0 सतीश दुबे, बलराम अग्रवाल,नीलम जैन, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ जैसे इने–गिने नाम ही रह गए हैं ,जो लघुकथा के विकास में अब भी सक्रिय हैं।
ऐसे में लघुकथा नौवें दशक के लघुकथा लेखकों में अपना भविष्य स्थापित करने को बेचैन दिखाई देती है। नौवें दशक के शुरू में कुछ ऐसे नाम उभर कर सामने आए हैं, जिन्होंने आठवें दशक के लेखकों द्वारा लघुकथा के स्थापित मानदण्डों को और सुदृढ़ किया है। ऐसे इने–गिने नामों में सुकेश साहनी का नाम बेहिचक लिया जा सकता है।
सुकेश साहनी नये यद्यपि आठवें दशक में ही लघुकथा लेखन आरम्भ कर दिया था, जब उनकी रचनाएँ डॉ0 हरिवंशराय बच्चन के अतिथि सम्पादन में अक्ष–1977 में छपी थीं लेकिन साहनी का लघुकथा लेखन में क्रमबद्ध शुरूआत 1984 से ही मानी जानी चाहिए, जब सारिका के लघुकथा विशेषांक में डरे हुए लोग शीर्षक लघुकथा छपी थी; जो काफी सराही गई।
सुकेश ने तेरह वर्ष की आयु में ही लिखना शुरू कर दिया था। पन्द्रह वर्ष की आयु में सुकेश साहनी को पाकेट बुक्स जगत के दो दिग्गज उपन्यासकारों, सर्वश्री ओमप्रकाश शर्मा एवं वेद प्रकाश काम्बोज का सत्संग एवं मार्गदर्शन मिला। उस दौर में सुकेश ने आठ उपन्यास लिखे जिनमें से दो ज्ञानाश्रय प्रकाशन से प्रकाशित भी हुए। तार्किक स्तर की बाल–रचनाएँ धर्मयुग ने लगातार छापीं तथा कहानियों की शुरूआत मुक्ता से हुई। इस तरह के लेखन से सुकेश कतई संतुष्ट नहीं थे और व्यावसायिक दृष्टिकोण वाले लेखन को छोड़कर इन्होंने लघुकथा में चुनौतीपूर्ण लेखन करने की सोची, जिसमें राष्ट्रीय व प्रादेशिक स्तर पर साहित्यिक पहचान की गुंजाइश भी अपेक्षाकृत कम है। इस मायने में सुकेश का लघुकथा–लेखन वास्तव में उनकी लघुकथा के प्रति सच्ची प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
1984 में ही मिनीयुग पत्रिका के कारण सुकेश का मुझसे सम्पर्क हुआ तो लगा कि बहुत बरसों बाद मुझे ऐसा लेखक मिला, जो एक दिन लघुकथा की मर्यादा को नयी ऊँचाई देगा। मेरी इस अवधारणा को सुकेश ने साकार कर दिखाया है। नौवें दशक के निराशाजनक लघुकथा–लेखन में सुकेश की लघुकथाएँ कीचड़ में कमल की तरह खिली नजर आती हैं, जिन का प्रस्फुटन नैसर्गिक और मुग्धकारी है।
सुकेश साहनी ने जानबूझकर लघुकथा को ही अपने लेखन का आधार बनाया है। अत: इनकी तमाम रचनाओं में कहानी की–सी विराट शक्ति, काव्य के अद्भुत बिम्ब, ढहते हुए सामाजिक मूल्यों पर चिंता, ग्राम संस्कृति का भोला–भाला जीवन, जहरीले रेडियम की तरह चमकती शहरी सभ्यता के खोखले अहम् के पीछे भागते कस्तूरी मृग जैसे लोग व निम्न मध्यवर्ग की सारी पीड़ा और निराशा के साक्षात् दर्शन होते है। ऐसा इस कारण भी सम्भव हो पाया है कि इन्होंने विश्व के प्रसिद्ध लेखकों के कथा–साहित्य का भरपूर अवगाहन किया है।
सुकेश साहनी की सारी रचनाएँ अलग–अलग दिशाओं के मील के वे पत्थर हैं जहाँ से भारतीय समाज की सोच, उत्थान–पतन और अधिकारी वर्ग की नैतिकता को परखा जा सकता है।
इस संग्रह की तमाम रचनाओं पर टिप्पणी करना न तो सम्भव है और न ही वांछनीय है। कारण, इन रचनाओं को पढ़ते वक्त आपको लगेगा कि रचनाओं के पात्र आपसे रू–ब–रू हैं। चूंकि लघुकथा को आज भी हिन्दी के समीक्षक एक अनचाहे रूप में लेने का मजबूर हैं, अत: सुकेश की रचनओं पर टिप्पणी करना और भी जरूरी हो जाता है।
सुकेश साहनी की तमाम रचनाएँ पढ़ने के बाद यही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि इन्होंने सीधी–सादी रचनाओं में एक प्रकार का प्रयोग किया है, जो इन्हें दूसरे लघुकथा लेखकों से अलग करता है। इनका अंदाजे–बयां मूलत: लघुकथा का ही है–बेशक उसमें कोई लम्बी कहानी तलाश ली जाए या पुरजोर बहस छेड़ दी जाए। सम्प्रेषणीयता को बनाए रखने की बेचैनी इनकी रचनाओं का प्रतिपाद्य है।
यद्यपि सुकेश साहनी का रचना संसार दस वर्ष से भी कम का है, लेकिन इनकी एक–एक रचना अपने–आप में बहस का विषय है। इनकी लघुकथाओं को निम्न में वर्गीकृत किया जा सकता है।
एक–जड़बद्ध सामाजिक रूढि़यों पर चोट और निम्न मध्यमवर्गीय कुण्ठा जनित विवशताओं का उद्घाटन: गोश्त की गंध,आदमजाद, तृष्णा,पितृत्व, दादाजी, स्कूटर आदि।
दो–रागात्मक सम्बन्धों के खोखलेपन, झूठे स्टेटस सिंवल की विवशता और सांस्कृतिक चारित्रिक संकट के प्रति अभिव्यक्ति: मोहभंग, गाजर घास, इमीटेशन, हारते हुए, तंगी, पैण्डुलम, अपने–अपने सन्दर्भ आदि।
तीन–राजनैतिक/प्रशासनिक दबाबों की बानगी के बहाने भ्रष्ट प्रशासन और योजनातंत्र पर चोट: भेडि़ये, सोडावाटर, नीति–निर्धारक, श्रेयपति, टेक इट इजी, यम के वंशज, जनता का खून, चतुर गांव, चक्रव्यूह, मास्टर प्लान आदि।
चार–सामाजिक मनोविज्ञान को अपने ढंग से पढ़ने की नायाब कोशिश: दृष्टि, तंगी, नपुंसक, कैक्टस और कुकुरमुत्ते, अपने लोग, प्रदूषण, यही सच है, मुखौटा हुड, सांसों के ठेकेदार आदि।
पाँच–जीवन के अन्य विविध पक्षों पर शैलीगत प्रयोग: कस्तूरीमृग, आइसबर्ग, उजबक, आधे–अधूरे, शासक और शासित, आखिरी पड़ाव का सफर, धूप–छाँव, जहाँ के तहाँ, रिश्ते के बीच, मृत्युबोध आदि।
जैसा मैं कह चुका हूँ–इनकी हर रचना में कोई न कोई प्रयोग है। लेखक ने ऐसा सम्भवत: इस कारण भी किया है कि दहेज, भ्रष्टाचार आदि पर न जाने कितने लेखकों ने अपनी कलम चलाई है। सुकेश ने अपनी प्रयोगधर्मिता से इस तरह के विषयों पर भी आदर्श लघुकथाएँ उल्लेखनीय हैं।
अब मैं सुकेश साहनी की कुछ रचनाओं पर चर्चा करूँगा:
एक– इस वर्ग में इनकी प्रतिनिधि रचना गोश्त की गंध ली जा सकती है।
हमारे निम्न मध्यम वर्गीय परिवारों में दामाद को अभी भी भगवान या वी0आई0पी0 जैसा दर्जा दिया जाता है। यह वर्ग लड़की की शादी में निचुड़ कर भी दामाद के स्वागत में पलकों के पाँवड़े बिछाए रहने को तैयार रहता है– खुशी–खुशी। बेशक अपने लिए सूखी रोटी भी मयस्तर न हो, लेकिन दामाद के लिए अच्छी सब्जी, घी के पकवान परोसना यह वर्ग अपना अहोभाग्य समझता है। ऐसे ही एक दिन का दृश्य लेखक ने चित्रित किया है। जब उसे पनीर की सब्जी पेश की जाती है। तो उसे लगता है कि उसमें माँस के टुकड़े तैर रहे है। वे माँस के टुकड़े जो साले की टाँग के हैं, ससुर के गाल और सास की कलाइयों के हैं। क्या उसे इतने दिनों तक ये लोग अपना माँस परोसते रहे? वह हैरत में आ जाता है। पत्नी उसे बताती है कि प्लेट की सब्जी शाही पनीर की है। तब दामाद ऐसी आवभगत से आतंकित होकर स्वयं में ही शर्मिदा होकर खुद को सास–ससुर का बेटा घोषित करता है। लगता है जैसे सास–ससुर को जिन्दगी भर की खुशी मिल गई हो। इस प्रकार रचना का समापन एक सुखांत मोड़ पर हो जाता है।
लेखक इस दामाद के बहाने उन सभी दामादों पर चोट करता है जो सास–ससुर से जिन्दगी भर आवभगत करवाने में नहीं हिचकते और उसे अपना विशेषधिकार मानते हैं। यह समस्या निम्न मध्यम परिवारों में सनातन रूप से विद्यमान है और न जाने कब तक चलती रहेगी। लेखक इस अनदेखे पहलू को जिस रूप् में विचित्र करता है, वह गोश्त की गंध है। ऐसी गोश्त की गंध हमें पहले ही क्यों नहीं महसूस होती?
दो–इस वर्ग में सुकेश की कई रचनाएँ सार्थक टिप्पणी की मांग करती हैं। मोहभंग जैसी सैकड़ों रचनाएँ लिखी जा चुकी हैं लेकिन लेखक ने रागात्मक सम्बन्धों के मोहभंग को कुशलता से चित्रित किया है। छोटा भाई मद्रास से शिक्षा समाप्त कर अपने स्व0 पिता की फैक्टरी को अपने तकनीकी ज्ञान से लाभान्वित करने घर आता है। यद्यपि उसके टीचर ने मद्रास में ही उसे शहर के लगाव के कारण उनका यह प्रस्ताव ठुकरा देता है। एक सुबह भाई ने उसके साथ जिस तरह का अनपेक्षित व्यवहार किया, उससे उसका मोहभंग हो जाता है। भाई उसे नौकरी पर ही देखना चाहता है और बड़े भाई होने की अहंमन्यता से ग्रसत होकर उससे हिकारत से पेश आता है जिससे छोटे भाई का पूरा अस्तित्व ही हिल जाता है और वह अनायास ही मद्रास वापस जाने का मन बना लेता है। आज के युग में हमारे खून के रिश्ते स्वार्थवश किस कदर औपचारिक हो गए है, इस कथन को बड़े ही मनोयोग से लेखक ने विकसित किया है।
इस वर्ग की एक और प्रतिनिधि रचना गाजर घास है– तथाकथित प्रगति ने हमारे सामाजिक/सांस्कृतिक मूल्यों पर जो चोट की है, उससे हमारे समाज का परम्परागत ढांचा ही चरमरा गया है। एक प्रकार की सुविधाभोगी संस्कृति ने हम सबको जकड़ लिया है। संयम से परिपूर्ण भारतीय दर्शन की उर्वरा धरती पर अवमूल्यन की गाजर घास तेजी से पनपती जा रही है, जिस कारण एक प्रकार की सामाजिक शृंखला चारों ओर व्याप्त हो गई है। लेखक ने अपना दायित्व निभाते हुए अपनी इस रचना से हम सबका ध्यान बरबस अपनी ओर खींच लिया है। रिटायर्ड बुजुर्ग, जिसमें एक आम आदमी की तरह पारिवारिक दायित्व बोध है, वह अपने ही परिवार में एक अजनबी बनकर रह गया है। चित्रहार के वक्त वह किस तरह आधे घण्टे का समय बिताने के लिए ठण्डी रात में घर से निकलने के लिए बाध्य है। पनवाड़ी के यहाँ दो युवकों की अश्लील बातचीत और साइकिल सवारों का फूहड़ व्यवहार नई पीढ़ी के चारित्रिक पतन को रेखांकित करते हैं।
तब वह एक पुलिया पर जाकर बैठ जाता है। जिसके पास उगा बेशर्म का झाड़ उसे दिखाई देता है। वस्तुत: अंत में लेखक ने रचना की सारी मानसिकता का एक विश्वसनीय बिम्ब उभार दिया है, जो एक श्रेष्ठ जीवन काव्य है–साथ ही हमारे समाज के भावी रूप का एक खाका भी उभर कर सामने आ जाता है।
इसी संकट को और आगे वह इमीटेशन में उठाता है। पति–पत्नी अपनी विलासिता के लिए वीडियो में जिस तरह ब्ल्यू फिल्में देखते हैं उससे बच्चों पर क्या असर पड़ सकता हैं, इसे बहुत ही बोल्ड तरीके से लेखक ने दिखाया है, जिसे कोई बोल्ड सम्पादक हीर छाप सकता है।
तीन–इस वर्ग में सोडावाटर रचना उल्लेखनीय है। जिस तरह सोडावाटर की बोतल का ढक्कन खोलते ही सोडावाटर उफनता है लेकिन कुछ क्षणों में बुलबुले शांत होकर खत्म हो जाते हैं, उसी प्रकार चीफ जब एक मातहत अधिकारी की भ्रष्टता की जाँच करने आते हैं तो भ्रष्ट पात्र उनका उबाल शांत करने को जो तरीके अख्तियार करता है, उसे लेखक ने बड़े ही सटीक ढंग से उजागर किया है। चीफ साहब को फाइव स्टार होटल में ठहराने, अपने घर उन्प्हें खाने के लिए तैयार कर तरह–तरह के उपहार और उनकी लड़की की शादी की दुहाई देकर दस हजार का इंतजाम कर चीफ को जाल में फँसाकर गद्गद कर देता है। इस प्रकार उसे चीफ उसे ईमानदारी का फतवा भी दे देता है और आश्वस्त करता है कि सेक्रेटरी से कहकर मामले को ठीक करा देगा।
भ्रष्ट लोगों की जांच किस तरह टाँय–टाँय फिस्स हो जाती है और भ्रष्टाचार को किस तरह सरकारी विभागों में पाला–पोसा जा रहा है, इसका नग्न चित्रण लेखक ने बड़े ही सहज ढंग से किया है। लेखक इस तरह की रचना से स्वयं संतुष्ट नहीं रहा। वह इस तरह के भ्रष्टाचार का कतई समर्थन नहीं करता। अपनी इस तकलीफ को लेखक ने टेक इट ईजी में और आगे दिखाया है। जब अधिकारी अपने छोटे अधिकारी से कहता है कि ग्राम नैना की रिग मशीन (ट्यूबबेल निर्माण में प्रयोग की जाने वाली) ग्राम मेवा में भेजी जाए तो कनिष्ठ अधिकारी इसे बात का विरोध करता है और बताता है कि ग्राम मेवा में तो पहले ही नहरों का जाल बिछा है जबकि नैना गाँव के लोगों की हालत पानी न मिलने के कारण खराब हे, पर वरिष्ठ अधिकारी कहता है कि मंत्री के आदेश से ही रिन मशीन मेवा गांव में भिजवाई जा रही है। जब वह अधिकारी के कमरे से बाहर निकलता है तो उसे सुनाई देता है–टेक इट ईजी। वस्तुत: लेखक ने सरकारी मशीनरी में नेताओं की दखलअंदाजी और अधिकारियों की घुटने टेक नीति पर तीव्र व्यंग्य किया है। इसे बड़ी सहजता से लिया जाता है लेकिन इस ईमानदार और अपने कर्तव्य के प्रति सचेष्ट अधिकारी इस सबको किस प्रकार सहजता से ले, लेखक ने प्रश्न उठाया है।
नरभक्षी,नीति निर्धारक,श्रेयपति में भी लेखक ने इसी तरह के तथ्यों को उजागर किया है।
चार– इस वर्ग में नपुंसक रचना विचारणीय है। हम शिक्षा में पाश्चात्य शिक्षा पद्धतियों की नकल और एक प्रकार की शैक्षिक गुण्डागर्दी को बढ़ावा दे रहे हैं, जिसमें आमूल–चूल परिवर्तन की जरूरत है। विश्वविद्यालय में शिक्षा के नाम पर क्या–क्या कुकर्म हो सकते हैं या हो रहे है, टी0 वी0 के आने से इनको काफी लोगों ने अपने आंखों से देखा होगा। कालिज के ये शोहदे किस तरह इस रचनामें मैं पात्र सहित एक मजबूर लड़की के साथ मजा लेना चाहते हैं और एक–एक करके निबटते हैं। मैं पात्र लड़की के साथ कुछ नहीं करता। वह अपने हाव–भाव से ही लड़कों को बता देता है– बड़ा मजा आया। पात्र का मैं उसे नपुंसक कहकर धिक्कारता है, क्योंकि वह अपने साथियों की कुत्सित योजना का विरोध न करके उसी का एक हिस्सा बनकर स्वयं को मर्द कहलाना पसंद करता है। ऐसे तमाम मर्दो पर लेखक ने रचना रचकर थूक दिया है।
प्रदूषण रचना भी उल्लेखनीय है जिसमें पात्र महानगर के प्रदूषण से ऊबकर कश्मीर की वादियों में सुकून की तलाश में जाता है। वहां भी कैसे–कैसे उसका शोषण होता है। वहां पर भी महानगर के प्रदूषण को पैर पसारे देखकर उसका जी खिन्न हो जाता है। पर्यावरण संकट को लेखक ने जिस आसन्न संकट के रूप में हमारे सामने रखा है, वह एक भयावह स्थिति है। इससे किस तरह निबटा जाएगा, यही लेखक कहना चाहता है।
पांच– इस वर्ग में जो रचनाएँ मैंने चुनी है उनमें आइसबर्ग और कस्तूरीमृग शैली के दृष्टिकोण से उत्कृष्ट रचनाएँ हैं।
आइसबर्ग में लेखक ने यह दिखाया है कि दंगों में एक आम आदमी के फंस जाने और उससे निकलने के बीच की भयावह स्थिति को किस तरह झेलना पड़ता है। श्रीमती गांधी की हत्या की प्रतिक्रिया में भड़के दंगों के बीच वह पात्र फँस जाता है। किसी तरह वह अपने घर पहुँच जाना चाहता है। स्टेशन पर खड़ी गाड़ी में बैठ जाता है। उसके सामने जो लोग बैठते हैं, उन्हें देखकर वह अपने हाथ में पहना लोहे का कड़ा छिपा लेता है ताकि उसे सिक्ख न समझ लिया जाए और सिक्खों के अत्याचार की मनगढ़न्त कहानी सुनाकर स्वयं को उनके विश्वाअ में ले ल्लेता है।जब वे इटावा स्तेशन पर उतर जाते हैं तो उसी डिब्बे में चार –पाँच सिक्ख चढ़ आते हैं, बचते–बचाते। अब वह अपने हाथ के छिपे कड़े को बाहर निकालकर उनसे पंजाबी में बात करता है और सिक्खों पर हुए अत्याचार की फर्जी कहानी सुना देता है। जब उसे विश्वास हो जाता है कि वे लोग उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकेंगे तो आराम से पसरकर अपने बच्चे की याद कर मुस्कराने लगता है।
लेखक ने यहाँ दो बातें उठाई हैं। एक, समाज में फर्जी खतरे पैदा करने की प्रक्रिया दंगों में तेज हो जाती है, ऐसे खतरों से बचा जाए। दूसरे, एक निर्दोष आदमी, जिसका इन दंगों से कुछ लेना–देना नहीं होता, अपनी जान–माल की क्षति कर बैठता है–अकारण ही। लेखक ने इस नाजुक विषय को जिस शैली में प्रस्तुत किया है, वैसी रचनाएं हजार में एकाध दिखाई पड़ती हैं।
सुकेश साहनी ने अपनी रचनाओं से यह सिद्ध किया है कि लघुकथा लेखन में कथानक उठाना, कथ्य का विकास करना, भाषा शैली का निरूपण कहानी, कविता व औपन्यासिक अंदाज में नहीं किया जा सकता बल्कि लघुकथा के लिए नए प्रकार के अनुशासन की जरूरत है। इसकी एक निश्चित टैकनीक है जिसे व्यावहारिक रूप में सुकेश की रचनाओं में देखा जा सकता है। चूंकि लघुकथा के आलोचना पक्ष को पुष्ट करने वाले स्वयं लघुकथाकार ही हैं और लघुकथा की एक निश्चित रचनाधर्मिता भी एक निश्चित दिशा निर्धारित कर चुकी है, जिसे मैंने मिनीयुग के हर अंक में दिया है अत: लोगों की यह चिन्ता बेमानी है कि लघुकथा में समीक्षक न होने से इसका स्वतन्त्र मूल्याकंन किया जाना संभव नहीं है। अगर ऐसे लोगों को सुकेश साहनी की लघुकथाएँ मूल्यांकन करने को दी जाएँ तो वे निश्चित ही सुकेश साहनी को कहानी की कसौटी पर कस देंगे।
मेरा यह दृढ़ मत है कि सुकेश साहनी का यह लघुकथा–संग्रह लघुकथा से परहेज करने वाले समीक्षकों और विद्वानों को लघुकथा–समीक्षा की नई भाषा लिखने के लिए मजबूर करेगा।

मेरी रचना प्रक्रिया


सुकेश साहनी

सबसे पहले किसी रचना ने मेरे भीतर कब और कैसे जन्म लिया? इस विषय में जब भी सोचता हूतो अपने नन्हें रूप् को माँ के साथ रजाई में पाता हूं और मां से सुनी पहली कहानी दिमाग में घूमने लगती है....सात भाइयों की इकलौती बहन मेले में जाने के लिए अपनी भाभियों से बारी–बारी से दुपट्टा मांगती है। सब मना कर देती है। बहुत मिन्नतें करने पर एक भाभी दुपट्टा दे देती है। मेले में झूला झूलते हुए दुपट्टे पर एक कौआ बीट कर देता है। बहन की लाख कोशिशों के बाद भी दुपट्टे से बीठ का वह दाग साफ नहीं होता। दुपट्टे पर बीट देखकर भाभी को बहुत बुरा लगता है। वह अपने पति से जिद करती है कि दुपट्टे को बहन के खून से रंग दे तभी उसे शांति मिलेगी। भाई अपनी पत्नी के कहने पर बहन को मारकर उसके खून से दुपट्टा रंग लेता है। बहन को कत्ल कर जिस जगह गाड़ दिया जाता है, वहाँ से आम का एक पेड़ निकल आता है। वहां से गुज़र रहा एक धोबी पेड़ के आम तोड़ने की कोशिश करता है तो पेड़ से आवाज़ आती है, ‘‘धोबिया वै धोबिया, अम्म न तोड़, सक्के वीरे मारा भाभी शालू गिदा बोड़!’’ जब भी कोई राहगीर उस पेड़ के नज़दीक आता तो पेड़ बोल उठता–‘‘सगे वीरे मारा भाभी....’’
उस समय पेड़ का बोलना और मां का गाकर कहना बहुत भाता था और मैं मां से बार–बार जि़द करके यही कहानी सुनता था। अन्य बातों केा समझने की मेरी उम्र ही नहीं थी।
उपयु‍र्क्त कहानी के बारे में सोचने की शुरूआत काफी बाद में हुई। माँ से मिलने आई कोई महिला कमरे में बैठी है–मैं भी वहीं हूँ। वह मुझसे पूछती है कि हम कितने भाई–बहन हैं। मुझे उत्तर देने में देर लगती है। अँगुलियों पर गिनता हूँ और फिर उत्तर देता हूं–‘‘छह भाई, तीन बहनें।’’ इसने तो अपने चाचा–ताऊ के बच्चों को भी गिन लिया है।’’
मुझे अच्छी तरह याद है कि माँ के शब्दों से मैं हतप्रभ रह गया था। लगा जैसे कोई अमूल्य चीज़ छीन ली गई है। सारा दिन उदासी में डूबा रहा था। शील भइया मेरे भाई नहीं हैं? शम्मी मेरी बहन नहीं है? दिल मानने को कतई तैयार नहीं था। इसी उधेड़बुन के बीच एकाएक धमाके के साथ मां से सुनी कहानी की पंक्तियां दिमाग में कौंध गई: ‘‘सगे वीरे मारा भाभी शालू गिदा बोड़।’’ उस दिन अपने नन्हें दिल पर पहली बार खरोंच महसूस की। चाचा–ताऊ के बच्चे सगे भाई–बहन नहीं होते है....सगा....चचेरा!....चचेरे....सगे! सगे भाई अपनी बहन को मारकर पत्नी के लिए दुपट्टा रंग लेता है! आखिर यह चक्कर क्या है? मुझे लगता है कि दिल पर पड़ी खरोंच और मेरी भावुकता भरी सोच के साथ पहली रचना ने मेरे भीतर जन्म लिया था।
लघुकथा के संदर्भ में भी जीवन–यात्रा के विभिन्न पल छोटे–छोटे एहसासों के रूप् में दिलोदिमाग पर छा जाते हैं। अनूकूल परिस्थितियाँ पाते ही जब इनमें साहित्यिक रूप के साथ जीवन का गर्म लहू दौड़ने लगता है, जब उसके साथ उससे संबंधित कुछ विचार व्यवस्थित होकर घुल–मिल जाते है, तभी लघुकथा कागज़ पर उतार पाता हूं। मेरी एक लघुकथा है–यम के वंशज। अपनी बात शायद इस रचना के माध्यम से अधिक स्पष्ट कर पाऊँ। काफी कष्ट सहकर मेरी पत्नी ने अस्पताल में पुत्र को जन्म दिया था जिसकी चौबीस घंटे से पहले एक प्रमाण–पत्र पर हस्ताक्षर करवाए थे, जो इस प्रकार था–‘‘मैं अपने मृत बच्चे की लाश लिए जा रहा हूँ। मैं अस्पताल में दी गई चिकित्सा से संतुष्ट हूँ। मुझे यहाँ के किसी कर्मचारी से कोई शिकायत नहीं है।’’ बच्चे का शव अस्पताल से प्राप्त करते हुए मेरी मन:स्थिति क्या रही होगी, सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। प्रमाण–पत्र पर हस्ताक्षर करते समय लघुकथा लेखन या इस विषय पर गौर करने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता था। एक एहसास ज़रूर हुआ था जो दिमाग में कहीं अंकित हो गया था।
कुछ दिनों बाद अस्पताल में इमरजेंसी वार्ड में किसी संबंधी को देखने जाना पड़ा। वहां नर्स और वार्ड ब्वाय का एक देहाती महिला के साथ दु्र्व्यवहार देखकर तबीयत खिन्न हो गई। अचानक प्रमाण–पत्र पर अपने हस्ताक्षर करने वाली घटना जीवंत होकर इस घटना के साथ घुल–मिल गई और इस प्रकार यम के वंशज के रूपमें एक लघुकथा ने जन्म लिया।
स्पष्ट है कि कथा की विषयवस्तु, लेखकीय दृष्टि एवं उससे संबंधित विचार मिलकर मुकम्मल रचना का रूप् लेते हैं। मैंने यहां जानबुझकर रचना अथवा कथा शब्द का प्रयोग किया है क्योंकि उपयु‍र्क्त कथन साहित्य की किसी भी विधा के लिए प्रयोग किया जा सकता है। अधिकतर रचनाओं की विषयवस्तु हमें जीवन की हल–चल से मिलती है। देखने में आ रहा है कि आज लिखी जा रही बहुत–सी लघुकथाओं में सिफ‍र् विषयवस्तु, घटना या एहसास का ब्योरा मात्र होता है। लघुकथा का भाग बनने के लिए ज़रूरी है कि इस घटना, एहसास या विचार को दिशा और दृष्टि मिले, लेखक उस पर मनन करे, उससे संबंधित विचार भी उसमें जन्म लें।
कोई स्थिति, घटना, एहसास या विचार ही हमें लिखने के लिए प्रेरित करता है। इसे हम किसी रचना के लिए कच्चा माल भी कह सकते हैं। वस्तुत: कच्चे माल के पकने की प्रक्रिया ही विषयवस्तु या घटना को दृष्टि मिलना है। लेखक के भीतर किसी रचना के लिए आवश्यक कच्चे माल के पकने की प्रक्रिया ही लेखक की रचना– प्रक्रिया है। मेरी दृष्टि में लघुकथा की रचना– प्रक्रिया में उपन्यास एवं कहानी को भाँति बरसों भी लग सकते हैं।
लघुकथा में लेखक को आकारगत लघुता की अनिवार्यता के साथ अपनी बात पाठकों के सम्मुख रखनी होती है। इसमें कहानी की भांति कई घटनाओं, वातावरण–निर्माण एवं चरित्र–चित्रण द्वारा पाठकों को बाँधने या रिझाने का अवसर नहीं। होता है। लघुकथा का समापन–बिन्दु कहानी एवं उपन्यास की तुलना में अतिरिक्त श्रम एवं रचना–कौशल की मांग करता है। लघुकथा के समापन–बिन्दु को उस बिन्दु के रूप में समझा जा सकता है जहां रचना अपने कलेवर के मूल स्वर को कैरी करते हुए पूर्णता को प्राप्त होती है। मुझे लगता है कि लघुकथा की रचना–प्रक्रिया के दौरान लेखक को आकारगत लघुता एवं समापन–बिन्दु को ध्यान में रखकर ही ताने–बाने बुनने पड़ते हैं और यहीं लघुकथा की रचना– प्रक्रिया के दौरान ही पात्रों के चयन एवं लघुकथा के लिए उपयु‍र्क्त स्थल पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए। कभी–कभी कोई संवाद किसी भी पात्र से कहलवा देने से लघुकथा का उद्देश्य पूर्ण हो जाता है। वहीं इस बिन्दु पर किया गया अतिरिक्त मनन हमें उस संवाद को किसी बच्चे के मुँह से कहलवाने के निष्कर्ष पर पहुँचा सकता है। जिससे लघुकथा का प्रभाव और भी व्यापक हो जाता हो।
अपनी बात को और अधिक स्पष्ट करने के लिए एक घटना का उल्लेख करना चाहूँगा। मैं और भाई रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ जी दिल्ली से बरेली लौट रहे थे। रेल–ट्रेक में किसी खराबी के कारण हमारी ट्रेन चंदौसी स्टेशन पर पहुँच गई थी। हमें चंदौसी स्टेशन पर पाँच घंटे व्यतीत करन पड़े थे। वहाँ प्रतीक्षालय में बहुत से कॉलेज के लड़के जमा थे। वे जुआ खेल रहे थे, अश्लील चुटकुले सुना रहे थे, वहीं आस–पास के माहौल से बेखबर एक स्कूली लड़का अपना होमवर्क पूरा करने में जुटा था। मैंने उससे बातचीत की थी। उसने बताया था कि वह पास के गाँव से रोज़ पढ़ने आता है। अनय डेली पैसेंजर्स की तरह वह भी प्रतीक्षा कर रहा था। उसने यह भी बताया था कि घर में केवल उसकी मां है। पिता बंबई में कहीं नौकरी करते हैं और सल में एक बार घर आते हैंं जुआ खेलते कॉलेज के लड़कों के बीच कच्ची उम्र के इस लड़के के संतुलित व्यवहार ने मुझे सोचने पर विवश कर दिया था। मुझे उसी समय लगा था, किसी लघुकथा के लिए कच्चा माल मिल गया है। कुछ महीनों बाद इस स्थिति पर मैंने ‘स्कूल’ लघुकथा लिखी–
‘‘तुम्हें बताया न, गाड़ी लेट हैं,’’ स्टेशन मास्टर ने झुँझलाते हुए कहा–‘‘छह घंटे से पहले तो आ नहीं जाएगी, अब जाओ....कल से नाक में दम कर रखा है तुमने!’’
‘‘बाबूजी,गुस्सा न हों,’’ वह ग्रामीण औरत हाथ जोड़कर बोली–मैं बहुत परेशान हूँ, मेरे बेटे को घर से गए हुए तीन दिन हो गए हैं....उसे कल ही आ जाना था! पहली दफा घर से अकेला निकला है....’’
‘‘पर तुमने बच्चे को अकेला भेजा ही क्यों?’’ औरत की गिड़गिड़ाहट से पसीजते हुए उसने पूछ लिया।
‘‘मति मारी गई थी मेंरी,’’ सह रूआँसी हो गई–‘‘बच्चे के पिता नहीं हैं, मैं दरियाँ बुनकर घर का खर्चा चलाती हूँ। पिछले कुछ दिनों से जिद कर रहा था कि वह भी कुछ काम करेगा। टोकरी–भर चने लेकर घर से निकला है....’’
‘‘घबराओ मत....आ जाएगा!’’ उसने तसल्ली दी।
‘‘बाबूजी.....वह बहुत भोला है, उसे रात में अकेले नींद भी नहीं आती है....मेरे पास ही सोता है। हे भगवान!....दो रातें उसने कैसे काटी होगी? इतनी ठंड में उसके पास ऊनी कपड़े भी तो नहीं हैं....’’ वह सिसकने लगी।
स्टेशन मास्टर अपने काम में लग गया था। वह बेचैनी से प्लेटफार्म पर टहलने लगी। उस गाँव के छोटे से स्टेशन पर चारों ओर अंधकार छाया हुआ था। उसने मन ही मन तय कर लिया था कि भविष्य में वह अपने बेटे को कभी भी अपने से दूर नहीं होने देगी।
आखिर पैसेंजर ट्रेन शोर मचाती हुई उस सुनसान स्टेशन पर आ खड़ी हुई। वह साँस रोके,आँखें फाड़े डिब्बों की ओर ताक रही थी।
एक आकृति दौड़ती हुई उसके नज़दीक आई। नज़दीक से उसने देखा–तनी हुई गर्दन....बड़ी–बड़ी आत्मविश्वास भरी आँखें....कसे हुए जबड़े....होंठों पर बारीक मुस्कान....
‘‘माँ,तुम्हें इतनी रात गए यहां नहीं आना चाहिए था।’’ अपने बेटे को गंभीर,चिंताभरी आवाज़ उसके कानों में पड़ी।
वह हैरान रह गई। उसे अपनी आँखों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था–इन तीन दिनों में उसका बेटा इतना बड़ा कैसे हो गया?
यदि इस लघुकथा की मूल घटना से तुलना करें तो पता चलता है कि रचना–प्रक्रिया के दौरान इसमें घटना–स्थल, क्रम, पात्र आदि बिल्कुल बदल गए हैं। ऐसा लघुकथा के लिए अनिवार्य आकारगत लघुता एवं समापन बिन्दु को ध्यान में रखते हुए अधिक प्रभावी प्रस्तुति के लिए किया गया है।



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Tuesday, June 5, 2007

हद

श्याम सुन्दर 'दीप्ति'
एक अदालत में मुकदमा पेश हुआ । “साहब, यह पाकिस्तानी है। हमारे देश में हद पार करता हुआ पकड़ा गया है। तू इस बारे में कुछ कहना चाहता है ? मजिस्टेट ने पूछा । मैंने क्या कहना है, सरकार! मैं खेतों में पानी लगाकर बैठा था। हीर के सुरीले बोल मेरे कानों में पड़े। मैं उन्हीं बोलों को सुनता चला आया। मुझे तो कोई हद नजर नहीं आई।

मरुस्थल के वासी

श्याम सुन्दर अग्रवाल


गरीबों की एक बस्ती में लोगों को संबोधित करते हुए मंत्रीजी ने कहा, “इस साल देश में भयानक सूखा पड़ा है। देशवासियों को भूख से बचाने के लिए जरूरी है कि हम सप्ताह में कम से कम एक बार उपवास रखें।”
मंत्री के सुझाव से लोगों ने तालियों से स्वागत किया।
“हम सब तो हफते में दो दिन भी भूखे रहने के लिए तैयार हैं। भीड़ में सबसे आगे खड़े व्यक्ति ने कहा।
मंत्रीजी उसकी बात सुनकर बहुत प्रभावित हुए और बोले, “जिस देश में आप जैसे भक्त लोग हों, वह देश कभी भी भूखा नहीं मर सकता।
मंत्रीजी चलने लगे जैसे बस्ती के लोगों के चेहरे प्रश्नचिह्न बन गए हों।
उन्होंने बड़ी उत्सुकता के साथ कहा, ‘अगर आपको कोई शंका हो तो दूर कर लो।
थोड़ी झिझक के बाद एक बुजुर्ग बोला, साब! हमें बाकी पाँच दिन का राशन कहां से मिलेगा ?
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