Sunday, March 2, 2008

लघुकथा-रचना -प्रक्रिया

सुकेश साहनी

सबसे पहले किसी रचना ने मेरे भीतर कब और कैसे जन्म लिया? इस विषय में जब भी सोचता हूँ तो अपने नन्हें रूप को माँ के साथ रजाई में पाता हूँ और माँ से सुनी पहली कहानी दिमाग में घूमने लगती है....सात भाइयों की इकलौती बहन मेले में जाने के लिए अपनी भाभियों से बारी–बारी से दुपट्टा माँगती है। सब मना कर देती है । बहुत मिन्नतें करने पर एक भाभी दुपट्टा दे देती है। मेले में झूला झूलते हुए दुपट्टे पर एक कौआ बीट कर देता है। बहन की लाख कोशिशों के बाद भी दुपट्टे से बीट का वह दाग साफ नहीं होता। दुपट्टे पर बीट देखकर भाभी को बहुत बुरा लगता है। वह अपने पति से जिद करती है कि दुपट्टे को बहन के खून से रंग दे तभी उसे शांति मिलेगी। भाई अपनी पत्नी के कहने पर बहन को मारकर उसके खून से दुपट्टा रंग लेता है। बहन को कत्ल कर जिस जगह गाड़ दिया जाता है, वहाँ से आम का एक पेड़ निकल आता है। वहाँ से गुज़र रहा एक धोबी पेड़ के आम तोड़ने की कोशिश करता है तो पेड़ से आवाज़ आती है, ‘‘धोबिया वै धोबिया, अम्म न तोड़, सक्के वीरे मारा भाभी शालू गिदा बोड़!’’ जब भी कोई राहगीर उस पेड़ के नज़दीक आता तो पेड़ बोल उठता–‘‘सगे वीरे मारा भाभी....’’
उस समय पेड़ का बोलना और माँ का गाकर कहना बहुत भाता था और मैं माँ से बार–बार ज़िद करके यही कहानी सुनता था। अन्य बातों को समझने की मेरी उम्र ही नहीं थी।
उपयु‍र्क्त कहानी के बारे में सोचने की शुरूआत काफी बाद में हुई। माँ से मिलने आई कोई महिला कमरे में बैठी है–मैं भी वहीं हूँ। वह मुझसे पूछती है कि हम कितने भाई–बहन हैं। मुझे उत्तर देने में देर लगती है। अँगुलियों पर गिनता हूँ और फिर उत्तर देता हूं–‘‘छह भाई, तीन बहनें” इसने तो अपने चाचा–ताऊ के बच्चों को भी गिन लिया है।’’
मुझे अच्छी तरह याद है कि माँ के शब्दों से मैं हतप्रभ रह गया था। लगा जैसे कोई अमूल्य चीज़ छीन ली गई है। सारा दिन उदासी में डूबा रहा था। शील भइया मेरे भाई नहीं हैं? शम्मी मेरी बहन नहीं है? दिल मानने को कतई तैयार नहीं था। इसी उधेड़बुन के बीच एकाएक धमाके के साथ माँ से सुनी कहानी की पंक्तियाँ दिमाग में कौंध गई: ‘‘सगे वीरे मारा भाभी शालू गिदा बोड़।’’ उस दिन अपने नन्हें दिल पर पहली बार खरोंच महसूस की। चाचा–ताऊ के बच्चे सगे भाई–बहन नहीं होते है....सगा....चचेरा!....चचेरे....सगे! सगे भाई अपनी बहन को मारकर पत्नी के लिए दुपट्टा रंग लेता है! आखिर यह चक्कर क्या है? मुझे लगता है कि दिल पर पड़ी खरोंच और मेरी भावुकता- भरी सोच के साथ पहली रचना ने मेरे भीतर जन्म लिया था।
लघुकथा के संदर्भ में भी जीवन–यात्रा के विभिन्न पल छोटे–छोटे एहसासों के रूप में दिलोदिमाग पर छा जाते हैं। अनूकूल परिस्थितियाँ पाते ही जब इनमें साहित्यिक रूप के साथ जीवन का गर्म लहू दौड़ने लगता है, जब उसके साथ उससे सम्बंधित कुछ विचार व्यवस्थित होकर घुल–मिल जाते है, तभी लघुकथा कागज़ पर उतार पाता हूँ। मेरी एक लघुकथा है–यम के वंशज। अपनी बात शायद इस रचना के माध्यम से अधिक स्पष्ट कर पाऊँ। काफी कष्ट सहकर मेरी पत्नी ने अस्पताल में पुत्र को जन्म दिया था, जिसकी चौबीस घंटे बाद मृत्यु हो गई थी।स्टाफ़-नर्स ने बच्चे का शव सुपुर्द करने से पहले एक प्रमाण–पत्र पर हस्ताक्षर करवाए थे, जो इस प्रकार था–‘‘मैं अपने मृत बच्चे की लाश लिये जा रहा हूँ। मैं अस्पताल में दी गई चिकित्सा से संतुष्ट हूँ। मुझे यहाँ के किसी कर्मचारी से कोई शिकायत नहीं है।’’ बच्चे का शव अस्पताल से प्राप्त करते हुए मेरी मन:स्थिति क्या रही होगी, सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। प्रमाण–पत्र पर हस्ताक्षर करते समय लघुकथा लेखन या इस विषय पर गौर करने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता था। एक एहसास ज़रूर हुआ था जो दिमाग में कहीं अंकित हो गया था।
कुछ दिनों बाद अस्पताल में इमरजेंसी वार्ड में किसी सम्बन्धी को देखने जाना पड़ा। वहाँ नर्स और वार्ड ब्वाय का एक देहाती महिला के साथ दु्र्व्यवहार देखकर तबीयत खिन्न हो गई। अचानक प्रमाण–पत्र पर अपने हस्ताक्षर करने वाली घटना जीवंत होकर इस घटना के साथ घुल–मिल गई और इस प्रकार यम के वंशज के रूपमें एक लघुकथा ने जन्म लिया।
स्पष्ट है कि कथा की विषयवस्तु, लेखकीय दृष्टि एवं उससे संबंधित विचार मिलकर मुकम्मल रचना का रूप लेते हैं । मैंने यहाँ जानबूझकर रचना अथवा कथा शब्द का प्रयोग किया है ;क्योंकि उपयु‍र्क्त कथन साहित्य की किसी भी विधा के लिए प्रयोग किया जा सकता है। अधिकतर रचनाओं की विषयवस्तु हमें जीवन की हलचल से मिलती है। देखने में आ रहा है कि आज लिखी जा रही बहुत–सी लघुकथाओं में सिर्फ़ विषयवस्तु, घटना या एहसास का ब्योरा मात्र होता है। लघुकथा का भाग बनने के लिए ज़रूरी है कि इस घटना, एहसास या विचार को दिशा और दृष्टि मिले, लेखक उस पर मनन करे, उससे संबंधित विचार भी उसमें जन्म लें।
कोई स्थिति, घटना, एहसास या विचार ही हमें लिखने के लिए प्रेरित करता है। इसे हम किसी रचना के लिए कच्चा माल भी कह सकते हैं। वस्तुत: कच्चे माल के पकने की प्रक्रिया ही विषयवस्तु या घटना को दृष्टि मिलना है। लेखक के भीतर किसी रचना के लिए आवश्यक कच्चे माल के पकने की प्रक्रिया ही लेखक की रचना– प्रक्रिया है। मेरी दृष्टि में लघुकथा की रचना– प्रक्रिया में उपन्यास एवं कहानी को भाँति बरसों भी लग सकते हैं।
लघुकथा में लेखक को आकारगत लघुता की अनिवार्यता के साथ अपनी बात पाठकों के सम्मुख रखनी होती है। इसमें कहानी की भाँति कई घटनाओं, वातावरण–निर्माण एवं चरित्र–चित्रण द्वारा पाठकों को बाँधने या रिझाने का अवसर नहीं। होता है। लघुकथा का समापन–बिन्दु कहानी एवं उपन्यास की तुलना में अतिरिक्त श्रम एवं रचना–कौशल की माँग करता है। लघुकथा के समापन–बिन्दु को उस बिन्दु के रूप में समझा जा सकता है जहाँ रचना अपने कलेवर के मूल स्वर को कैरी करते हुए पूर्णता को प्राप्त होती है। मुझे लगता है कि लघुकथा की रचना–प्रक्रिया के दौरान लेखक को आकारगत लघुता एवं समापन–बिन्दु को ध्यान में रखकर ही ताने–बाने बुनने पड़ते हैं और यहीं लघुकथा की रचना– प्रक्रिया के दौरान ही पात्रों के चयन एवं लघुकथा के लिए उपयु‍र्क्त स्थल पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए। कभी–कभी कोई संवाद किसी भी पात्र से कहलवा देने से लघुकथा का उद्देश्य पूर्ण हो जाता है। वहीं इस बिन्दु पर किया गया अतिरिक्त मनन हमें उस संवाद को किसी बच्चे के मुँह से कहलवाने के निष्कर्ष पर पहुँचा सकता है। जिससे लघुकथा का प्रभाव और भी व्यापक हो जाता हो।
अपनी बात को और अधिक स्पष्ट करने के लिए एक घटना का उल्लेख करना चाहूँगा। मैं और भाई रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ जी दिल्ली से बरेली लौट रहे थे। रेल–ट्रेक में किसी खराबी के कारण हमारी ट्रेन चंदौसी स्टेशन पर पहुँच गई थी। हमें चंदौसी स्टेशन पर पाँच घंटे व्यतीत करन पड़े थे। वहाँ प्रतीक्षालय में बहुत से कॉलेज के लड़के जमा थे। वे जुआ खेल रहे थे, अश्लील चुटकुले सुना रहे थे, वहीं आसपास के माहौल से बेखबर एक स्कूली लड़का अपना होमवर्क पूरा करने में जुटा था। मैंने उससे बातचीत की थी। उसने बताया था कि वह पास के गाँव से रोज़ पढ़ने आता है। अन्य डेली पैसेंजर्स की तरह वह भी प्रतीक्षा कर रहा था। उसने यह भी बताया था कि घर में केवल उसकी माँ है। पिता बंबई में कहीं नौकरी करते हैं और साल में एक बार घर आते हैं । जुआ खेलते कॉलेज के लड़कों के बीच कच्ची उम्र के इस लड़के के संतुलित व्यवहार ने मुझे सोचने पर विवश कर दिया था। मुझे उसी समय लगा था, किसी लघुकथा के लिए कच्चा माल मिल गया है। कुछ महीनों बाद इस स्थिति पर मैंने ‘स्कूल’ लघुकथा लिखी–
“तुम्हें बताया न, गाड़ी लेट हैं,’’ स्टेशन मास्टर ने झुँझलाते हुए कहा–“छह घंटे से पहले तो आ नहीं जाएगी, अब जाओ....कल से नाक में दम कर रखा है तुमने!’’
“बाबूजी,गुस्सा न हों,’’ वह ग्रामीण औरत हाथ जोड़कर बोली–मैं बहुत परेशान हूँ, मेरे बेटे को घर से गए हुए तीन दिन हो गए हैं....उसे कल ही आ जाना था! पहली दफा घर से अकेला निकला है....’’
‘‘पर तुमने बच्चे को अकेला भेजा ही क्यों?’’ औरत की गिड़गिड़ाहट से पसीजते हुए उसने पूछ लिया।
‘‘मति मारी गई थी मेरी,’’ सह रूआँसी हो गई–‘‘बच्चे के पिता नहीं हैं, मैं दरियाँ बुनकर घर का खर्चा चलाती हूँ। पिछले कुछ दिनों से जिद कर रहा था कि वह भी कुछ काम करेगा। टोकरी–भर चने लेकर घर से निकला है....’’
‘‘घबराओ मत....आ जाएगा!’’ उसने तसल्ली दी।
‘‘बाबूजी.....वह बहुत भोला है, उसे रात में अकेले नींद भी नहीं आती है....मेरे पास ही सोता है। हे भगवान!....दो रातें उसने कैसे काटी होगी? इतनी ठंड में उसके पास ऊनी कपड़े भी तो नहीं हैं....’’ वह सिसकने लगी।
स्टेशन मास्टर अपने काम में लग गया था। वह बेचैनी से प्लेटफार्म पर टहलने लगी। उस गाँव के छोटे से स्टेशन पर चारों ओर अंधकार छाया हुआ था। उसने मन ही मन तय कर लिया था कि भविष्य में वह अपने बेटे को कभी भी अपने से दूर नहीं होने देगी।
आखिर पैसेंजर ट्रेन शोर मचाती हुई उस सुनसान स्टेशन पर आ खड़ी हुई। वह साँस रोके,आँखें फाड़े डिब्बों की ओर ताक रही थी।
एक आकृति दौड़ती हुई उसके नज़दीक आई। नज़दीक से उसने देखा–तनी हुई गर्दन....बड़ी–बड़ी आत्मविश्वास भरी आँखें....कसे हुए जबड़े....होंठों पर बारीक मुस्कान....
‘‘माँ,तुम्हें इतनी रात गए यहाँ नहीं आना था।’’ अपने बेटे को गंभीर,चिंताभरी आवाज़ उसके कानों में पड़ी।
वह हैरान रह गई। उसे अपनी आँखों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था–इन तीन दिनों में उसका बेटा इतना बड़ा कैसे हो गया?
यदि इस लघुकथा की मूल घटना से तुलना करें तो पता चलता है कि रचना–प्रक्रिया के दौरान इसमें घटना–स्थल, क्रम, पात्र आदि बिल्कुल बदल गए हैं। ऐसा लघुकथा के लिए अनिवार्य आकारगत लघुता एवं समापन बिन्दु को ध्यान में रखते हुए अधिक प्रभावी प्रस्तुति के लिए किया गया है ।
अपनी बात को रचना-प्रक्रिया पर केन्द्रित कर लघुकथा-प्रेमियों के कुछ प्रश्नों का उत्तर देने का विनम्र प्रयास किया है ।


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6 comments:

Arvind Aditya said...

वाह सुकेश साहब ,कितनी खूबसूरती के साथ लिखा है आपने । रचना प्रक्रिया को बड़े ही प्यार से समझाया है आपने । काफी समय बाद एक सार्थक ब्लॉग पढ़ने को मिला । आपकी अभिव्यक्ति खूबसूरत है । ऐसे ही लिखते रहें ।

मसिजीवी said...

इस लेख के लिए आभार। इसका प्रयोग हम जैसे अध्‍यापक अपनी कक्षाओं में रचना प्रक्रिया को स्‍पष्‍ट करने के लिए आसानी से कर सकते हैं।

मैं अपने शिक्षण ब्‍लॉग पर इसकी चर्चा कर रहा हूँ। देखें

ghughutibasuti said...

पढ़कर बहुत अच्छा लगा . बिल्कुल ऐसा ही होता है । कोई छोटी सी घटना घटती है और वह व्यक्ति और यहाँ तक कि दर्शक पर एक गहरा प्रभाव छोड़ जाती है । जो कभी कहानी या कविता का रूप ले लेती है तो कभी जीवन दर्शन का ।
घुघूती बासूती

Anonymous said...

सुकेस जी मै नेपालसे लिख रहाहुँ । मै नेपाली भाषामे लघुकथा कि इक वेबसाइट चलाता हुँ । मुझे हिन्दी बहुत कम आता है । आपका लेखन मुझे अच्छा लगा ।

Anonymous said...

सुकेस जी मै नेपालसे लिख रहाहुँ । मै नेपाली भाषामे लघुकथा कि इक वेबसाइट चलाता हुँ । मुझे हिन्दी बहुत कम आता है । आपका लेखन मुझे अच्छा लगा ।

Anonymous said...

सुकेस जी मै नेपालसे लिख रहाहुँ । मै नेपाली भाषामे लघुकथा कि इक वेबसाइट चलाता हुँ । मुझे हिन्दी बहुत कम आता है । आपका लेखन मुझे अच्छा लगा ।