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सुकेश साहनी रात काफी बीत चुकी थी , पर उस हॉल में बैठे लोगों की आँखों से नींद कोसों दूर थी। रोज की तरह न तो उनके कहकहे गूंज रहे थे और न ही उनके बीच एक – दूसरे को किस्से सुनाने की होड़ थी। वे सब शहर के बाहर स्थित चूजे ( चिकेन ) तैयार करने वाली फैक्ट्री के वर्कर थे। दिन भर काम करने के बाद रात में वे फैक्ट्री के बेसमेंट में जमा हो जाते थे। फिर शुरू होता था हँसी – मजाक , किस्से – कहानियां सुनने – सुनाने का सिलसिला , जो देर रात तक जारी रहता था। जब उनकी आँखें झपकने लगतीं , जबान साथ छोड़ देती , तभी वे सोने का नाम लेते थे। इस तरह वे वर्षो से एक परिवार की तरह वहां रहते आ रहे थे। इसी परिवार के सबसे वरिष्ठ सदस्य – मास्टर ने आज अचानक नौकरी से इस्तीफा दे दिया था। उसने इस्तीफे की वजह किसी को नहीं बताई थी। जिस व्यक्ति ने अपने जीवन के बीस बेशकीमती वर्ष फैक्ट्री को दिए हों , उसका एकाएक इस तरह बिना कुछ कहे नौकरी छोड़कर चल देना , किसी के गले नहीं उतर रहा था। इस घटना ने उन सबको उदास कर दिया था। मास्टर की निजी जिंदगी के बारे में उसके साथी भी अधिक कुछ नहीं जानते थे। फैक्ट्री में उसका दबदबा था , मालिक उसकी कद्र करते थे। ब्राइलर इंडस्ट्री के कुछ अति महत्वपूर्ण काम मास्टर के जिम्मे थे , जिनमें उसे मास्टरी हासिल थी। शायद इसी वजह से उसका नाम मास्टर पड़ गया था। फैक्ट्री में असेम्बली लाइनों और कन्वेयर बेल्टों के माध्यम से हजारों चूजों को मांस के लिए रोज मारा जाता था। इस काम को करने में दूसरे वर्कर कतराते थे , पर मास्टर इसे ' मोगैम्बो खुश हुआ ' की तर्ज पर करने को हरदम तैयार रहता था। गोदाम में चूजों को पंक्तिबद्व क्रेटों में जिस तरह ठूंस – ठूंसकर रखा जाता था , उसमें उनके एक – दूसरे को चोंच मार – मारकर मार डालने का खतरा बना रहता था। इस समस्या के समाधान के लिए चूजों के पैदा होते ही उनकी चोचों को गर्म ब्लेड वाली मशीन ( डिबीकर ) से काट दिया जाता था। यह काम भी मास्टर के जिम्मे था। चोचें काटने का काम वह इतनी तेजी से करता था कि देखने वाले दंग रह जाते थे। यह काम करते हुए उसके होठों पर सदैव एक क्रूर मुस्कान चिपकी रहती थी। पिछले हफ्ते मास्टर को मालिकों के आदेश पर अंडों से लदे ट्रकों के साथ लखनऊ जाना पड़ा था। वहां से लौटने के बाद वह काफी बदला – बदला नजर आने लगा था। रात की महफिलों में उसकी रुचि खत्म हो गई थी। ब्लेड से चूजों की चोंचें काटते हुए उसके होठों पर रेंगने वाली चिरपरिचित क्रूर मुस्कान नदारद थी , हाथ कांपने लगे थे। उसकी इस कमजोरी की वजह से बहुत से चूजों के मुंह में फफोले पड़ गए थे , जीभें कट गई थीं। इस घटना ने उसे इतना विचलित कर दिया था कि वह घंटों गुमसुम – सा बैठा रहा था। इसी घटना के बाद उसने इस्तीफा दे दिया था। बेसमेंट में जलते बल्ब की रोशनी सीधे मास्टर के चेहरे पर पड़ रही थी। साथियों ने उसे घेर रखा था। वे सब उससे इस्तीफे की वजह जानना चाहते थे। पहले मास्टर टाल – मटोल करता रहा था , पर अंत में उनकी जिद के आगे उसने हथियार डाल दिए थे। उसकी आँखें बंद थीं , माथे पर बल पड़े हुए थे , मानो समझ न पा रहा हो कि अपनी बात कहां से शुरू करे। बाहर शाम से ही तेज हवाएँ चल रही थीं , अब आंधी चलने लगी थी। एकाएक बत्ती गुल हो गई और वहाँ घुप्प अंधेरा छा गया। मास्टर को अपनी राम – कहानी सुनाने के लिए जैसे अँधेरे का सहारा चाहिए था। उसका गंभीर स्वर बेसमेंट में गूंजने लगा। सालों पहले एक मामूली – सी बात पर नाराज होकर मैं घर से भाग आया था। उस समय घरवालों के प्रति मन में इतना गुस्सा भरा हुआ था कि मैंने फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा था। शुरू – शुरू में अक्सर मां की याद आती थी , तब मैं खुद को काम में इस कदर झोंक देता था कि उसके बारे में सोचने की कोई गुंजाइश ही नहीं बचती थी। इस तरह मैंने कोशिश कर उनकी याद को पूरी तरह दिल से बाहर निकाल फेंका था। अगर मैनेजर साहब उस दिन मुझे अंडों की सप्लाई के साथ लखनऊ न भेजते तो शायद जीते – जी मेरे मन में नौकरी से इस्तीफा देकर घर लौट जाने की बात कभी न आती। ट्रकों के काफिले के साथ लखनऊ रवाना होते ही मैं घरवालों के बारे में सोचने लगा था ... मां और बाबूजी कैसे होंगें ? मां तो अक्सर बीमार रहती थीं , कहीं उन्हें कुछ हो न गया हो ? ... चमकती आंखों वाला मेरा भाई ! ... अब तो उसकी शादी भी हो गई होगी .... यादों की रीलें दिमाग में सरपट दौड़े जा रही थीं। कैसरबाग गोदाम पर ट्रकों को अनलोडिंग के लिए छोड़ने के बाद मेरे पास एक दिन का समय था। घर जाऊं कि न जाऊं , यही मेरे भीतर चल रहा था। माँ की ममतामयी सूरत याद कर जो उत्साह मन में पैदा होता था , बाबूजी की याद आते ही ठंडा पड़ जाता था। अंत में मैंने यही फैसला किया कि दूर से ही उन्हें देखकर लौट आऊंगा , भीतर नहीं जाऊंगा। मोहल्ला ठीक वैसा ही था , जैसा मेरे बचपन के दिनों में था। बस , सड़क पहले से कुछ तंग ( संकरी ) मालूम हो रही थी। कई परिचित चेहरे दिखाई देने लगे थे , किसी ने मुझे नहीं पहचाना। वहां की एकमात्र जनरल मचे र्ण्ट की दुकान पर मेरे बचपन का दोस्त बैठा हुआ था। दुकान के सामने मैं एक पल के लिए ठिठका , उसने उचटती – सी नजर मुझ पर डाली और काम में लग गया। मतलब साफ था इन बीस वर्षो में मैं अपनी पहचान खो बैठा था। तिमंजिले पर स्थित घर की सीढि़यां चढ़ते हुए मैं बुरी तरह हाँफने लगा था। ये वही सीढि़यां थीं , जिन्हें मैं एक सांस में दौड़ते हुए तय कर लेता था। मैं सोच में पड़ गया था – माँ और बाबूजी ये सीढि़यां कैसे चढ़ते – उतरते होंगे ? भीतर से किसी बच्चे के रोने की आवाज आ रही थी। मैं बहुत देर तक असमंजस की स्थिति में दरवाजे के बाहर खड़ा रहा। फिर यह सोचकर कि मुझे वैसे भी कोई नहीं पहचानेगा , मैंने दरवाजा खटखटा दिया था। अब बाहर आंधी तो नहीं चल रहीं थी , पर पानी बरसने लगा था। मास्टर ने थोड़ी देर की चुप्पी के बाद एक सिगरेट सुलगाई और जोरों का कश खींचा। '' फिर क्या हुआ ?'' अंधेरे में से कोई बोला। '' मास्टर , तुम किस बात पर नाराज होकर घर से भागे थे ?'' किसी दूसरे ने पूछा। वे अब आगे की कहानी सुनने को अधीर हो रहे थे। मास्टर के हाथ में सुलगती सिगरेट का सिरा अंधेरे में चमक रहा था। उसने उन्हें शांत करते हुए कहा भाइयो , मैं उसी बात पर आ रहा हूँ – ये सब बताए बगैर बात पूरी नहीं होगी। हॉं , तो मैं दरवाजे के बाहर चुपचाप खड़ा था , दिल तेजी से धड़क रहा था। सोच रहा था कि इतने बरसों बाद पहले किसे देखूंगा ? मगर दरवाजा माँ ने खोला था। मेरी नजर उनकी ठुड्डी पर ठहर गई थी। दांत गिर जाने से वह भाग कुछ अलग – सा लग रहा था। वह पहले से काफी बूढ़े लगने लगी थी। माँ को मुझे पहचानने में एक क्षण भी नहीं लगा था। उनके लिए मैं अभी भी बच्चा था। वह मुझसे लिपटकर रोने लगी थी। उनके पास से वैसी खुशबू आ रही थी , जिससे मैं रजाइयों के ढेर में से माँ की रजाई को सूंघकर पहचान लिया करता था। '' कहां रहा इतने बरस ?'' मुझे कुछ कहते नहीं बना। '' कितना पक्का दिल है तेरा। '' मैं चुप रहा। '' तुझे हमारी जरा भी याद नहीं आई ?'' मैंने थूक गटका। इतने बरसों में एक बार भी मां की सुध लेने का ख्याल नहीं आया। माँ से। तो मेरी कोई नाराजगी भी नहीं थी। मैं खुद को धिक्कारने लगा था। मां सवाल – पर – सवाल किए जा रही थी , मुझे कुछ सूझ ही नहीं रहा था। मैं उन दिनों में पहुँच गया था , जब मैं मुँह में अगूंठा डाले मां की गोद में लेटा रहता था। '' कौन आया है ?'' ड्योढ़ी के उस पार से बाबूजी की आवाज सुनाई दी , इतने बरसों बाद भी पीठ में झुरझुरी – सी दौड़ गई। बाबूजी का गुस्सा बहुत तेज था। उनके डर से पेड़ों पर बैठे पक्षी तक खामोश हो जाते थे। उन दिनों वह जितनी देर तक घर में रहते थे , हम दोनों भाई चूहों की मानिंद अपने – अपने बिलों में दुबके रहते थे। उनके सामने तो सांस भी सोच – समझकर लेनी पड़ती थी। मां के साथ कमरे में आया तो उन्हें देखता ही रह गया ... बूढ़ा चेहरा .. भीगी आंखें .... कांपता स्वर ... । कहाँ गया उनका तेज – तर्रार , दबंग व्यक्तित्व। मैंने आगे बढ़कर उनके पांव छुए । उन्होंने दोनों हाथों से टटोलकर मुझे महसूस किया , होठों में कुछ बुदबुदाए , जो मेरी समझ में नहीं आया। शून्य में ताकती उनकी आँखें भर आई थीं। वे बहुत असहाय – से लग रहे थे। वह अभी भी अपने आप से बातें किए जा रहे थे। मैंने हैरानी से माँ की ओर देखा ... । '' बेटा , इनकी आंखों की रोशनी चली गई है ,'' मां ने बताया , '' तेरे जाने के बाद हम पर तो मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा था। '' माँ सिसकने लगी थी। '' थका होगा , आराम करने दो। '' बाबूजी के स्वर की कोमलता पर मैं दंग था ... क्या यह वही बाबूजी हैं , जिनकी डांट से ही मेरी पैंट गीली हो जाया करती थी ? घर की हालत खस्ता नजर आ रही थी। हर चीज से आर्थिक संकट जैसे बाहर झांक रहा था। मेरी नजर छोटे भाई पर पड़ी। वह अपने बेटे को चुप कराने में लगा हुआ था , जो न जाने कब से रोए जा रहा था। भाई की आँखों में पहले जैसी चमक दिखाई नहीं दे रही थी। मुझे देखकर उसके चेहरे पर खुशी का कोई चिह्न नजर नहीं आया। एकबारगी मुझे लगा उसकी आँखें अपनी बेरोजगारी के लिए मुझे उलाहना दे रही हैं। उसने मुझसे बात नहीं की। थोड़ी – थोड़ी देर बाद बुझी – बुझी आँखों से मेरी ओर देख लेता था , बस। '' चिडि़या !... मेरी चिडि़या !!'' बच्चा रोते – रोते कहे जा रहा था। इसी बीच भाई की पत्नी ने आकर मेरे पांव छुए। पति की बेरोजगारी ने उसे भी निचोड़कर रख दिया था। सबका ध्यान बच्चे की तरफ था। '' अच्छे बच्चे रोते नहीं हैं , अभी मिल जाएगी तुम्हारी चिडि़या। '' भाई ने कहा। '' कहीं बक्सों के नीचे न चली गई हो ?'' माँ ने संभावना व्यक्त की। '' एक बार सारा सामान हटाकर देख तो लो। '' बाबूजी ने सुझाया। '' हर कहीं देख लिया है , बाबूजी !'' भाई ने बताया। '' थोड़ी देर पहले मैंने उसे यहीं दरवाजे के पास पानी पिलाया था। '' बबलू ने रोते हुए बताया। हुआ ये था कि बबलू को पड़ोस के मंदिर में चिडि़या का बच्चा पड़ा मिला था। बच्चे ने अभी उड़ना नहीं सीखा था। कोई कुत्ता – बिल्ली उसे खा न जाए , इसलिए वह उसे घर ले आया था। पिछले दो दिनों से उसकी सारी दुनिया चिडि़या के उस बच्चे के इर्द – गिर्द ही सिमट आई थी। थोड़ी देर पहले अचानक वह कहीं गुम हो गया था। इसी वजह से बबलू रोए जा रहा था। अब पूरा घर उस चिडि़या के बच्चे को लेकर परेशान था। अंधेरे में कोई खी – खी कर हंसने लगा। '' एक चिडि़या के बच्चे के लिए ... वाह !'' दूसरा हंसा। '' मास्टर ! हमें भी बच्चा समझा है क्या ?'' किसी और ने खिल्ली उड़ाई। '' चुप रहो !'' चौथे ने सबको डांटा , '' इसका भी कोई मतलब होगा। मास्टर तुम आगे कहो , हम सुन रहे हैं। '' मास्टर ने उसकी उसकी हंसी की परवाह किए बिना अपनी बात जारी रखी। हम यहाँ सैकड़ों चूजों को रोज मार देते हैं। उन सबको वहां एक चिडि़या के बच्चे के लिए परेशान देखकर मुझे भी हैरानी हुई थी। लगा था , वे सब अपना मानसिक संतुलन खो बैठे हैं। वर्षों बाद मैं घर लौटा था और वे सब मुझे भूलकर एक चिडि़या को ढूंढ़ रहे थे ... । '' हम अपने बेटे को दूसरी चिडि़या ला देंगे। '' बहू ने बबलू को बहलाया। '' '' नहीं !'' वह बोला , '' मुझे वही चिडि़या चाहिए। '' '' चलो , एक बार फिर स्टोर में देख लेते हैं। '' भाई ने कहा। भाई उसे स्टोर में ले गया। '' थोड़ी देर पहले मैंने यहां एक बिल्ली को घूमते देखा था। '' माँ ने उनके जाते ही बाबूजी के के कान में धीरे से कहा। '' क्या कहती हो ?'' बाबूजी बेचैन हो उठे थे , '' यह बात बबलू को मत बताना। '' मैं हैरान था , क्या ये वही बाबूजी हैं , जिनकी दहशत से घर में चिड़िया भी पर नहीं मार सकती थी। '' मिल गया !'' तभी बबलू खुशी से चिल्लाया। ' शुक्र है भगवान का। '' बाबूजी बुदबुदाए। '' कहां मिला ? '' भाई ने पूछा। '' यहां चौखट के नीचे खोखल में। '' '' मुझे पता था , यहीं कहीं होगा। '' माँ हँसी। '' मैंने कहा था , मिल जाएगा !' बाबूजी चहके। पूरा घर खुशी से झूमने लगा था। सब चौखट के पास जमा हो गए थे। बच्चा खोखली जगह में काफी पीछे की ओर चला गया था। उसकी हल्की चीं – चीं की आवाज सुनकर बबलू ने उसे ढूंढ़ लिया था। वे उसे सुरक्षित बाहर निकालने की तरकीबें सोच रहे थे। मुझे हंसी आ रही थी , मेरे लिए तो यह चुटकियों का काम था। मैंने कहा भी –'' रसोई से चिमटा ला दो , मैं अभी बाहर निकाले देता हूँ। '' पर बाबूजी को मेरा तरीका पसंद नहीं आया , उन्हें इसमें चिडि़या को चोट – चपेट लगने का खतरा दिखाई दे रहा था। उनका मानना था कि बच्चा अपने आप खाने – पीने के लिए कोटर से बाहर जरूर आएगा। यदि नहीं आएगा , तो बढ़ई को बुलाकर चौखट काटकर उसे बाहर निकाल लिया जाएगा। वे चिडि़या को बाहर निकालने के मामले में कोई रिस्क नहीं लेना चाहते थे। बाबूजी के इस रूप की मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी । मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि एकाएक बाबूजी मोम की तरह मुलायम कैसे हो गए .... । रात को मेरा बिस्तर वहीं लगा दिया गया था , जहां मैं बचपन में सोया करता था। बिस्तर पर लेटते ही मेरी नजर बगल की दीवार पर पड़ी , फिर वहीं गड़ी रह गई। आँखों के आगे चिंगारियां छूटने लगीं। बात थी ही ऐसी। बीस साल पहले की वो घटना आँखों के आगे कौंध गई , जिसकी वजह से मैं घर से भागा था। उस दिन बाबूजी ने मुझे दीवार को लोहे के तार से खरोंचते हुए रंगे हाथों पकड़ लिया था। उन्होंने मुझे इतनी बुरी तरह पीटा था कि मैं इसी बात पर नाराज होकर मैं घर से भाग आया था। नहीं , कुछ नहीं बदला था ... दीवार पर की वो बरसों पहले की खरोंच ज्यों की त्यों थी। हालांकि , इन बीस बरसों में घर की कई बार पुताई और मरम्मत हुई थी , पर मेरे द्वारा खरोंचा गया दीवार का वह हिस्सा हर बार बिना पोते छोड़ दिया गया था। खरोंच वाला भाग चिकना और मैला हो गया था , जैसे कोई उस पर अँगुलियां फेरता रहा हो .... मैं स्तब्ध था। खरोंच पर मेरी आँखें बर्फ की तरह जमी हुई थीं। पिछले बीस साल अचानक मेरी मुट्ठी से रेत की तरह फिसल गए। उस खरोंच के एक ओर गर्म ब्लेड से चूजों की चोंच काटता मैं था , तो दूसरी ओर बूढ़ी अंगुलियों के पोरों से खरोंच को टटोलते अंधे बाबूजी थे .... इतना कहकर मास्टर खामोश हो गया था। बाहर बारिश तो थम गई थी , पर पेड़ों के पत्तों पर ठहरा पानी अभी भी टपक रहा था। सुनने वाले एकदम चुप थे। कोई कुछ नहीं पूछ रहा था। नहीं , उनमें से कोई भी नहीं सोया था। दरअसल , मास्टर की कहानी की उस खरोंच को सभी अपने दिलों पर महसूस कर रहे थे।