Friday, April 9, 2010

गोल्डन बैल्ट-

ख़लील ज़िब्रान

अनुवाद : सुकेश साहनी

सालामिस शहर की ओर जाते हुए दो आदमियों का साथ हो गया। दोपहर तक वे एक नदी तक आ गए, जिस पर कोई पुल नहीं था। अब उनके पास दो विकल्प थेतैरकर नदी पार कर लें या कोई दूसरी सड़क तलाश करें।

‘‘तैरकर ही पार चलते हैं,’’ वे एक दूसरे से बोले, ‘‘नदी का पाट कोई बहुत चौड़ा तो नहीं है।’’

उनमें से एक आदमी, जो अच्छा तैराक था, बीच धारा में खुद पर नियंत्रण खो बैठा और तेज बहाव की ओर खिंचने लगा। दूसरा आदमी, जिसे तैरने का अभ्यास नहीं था,आराम से तैरता हुआ दूसरे किनारे पर पहुंच गया । वहाँ पहुँचकर उसने अपने साथी को बचाव के लिए हाथ पैर मारते हुए देखा तो फिर नदी में कूद पड़ा और उसे भी सुरक्षित किनारे तक ले आया।

‘‘तुम तो कहते थे कि तुम्हें तैरने का अभ्यास नहीं है, फिर तुम इतनी आसानी से नदी कैसे पार गए?’ पहले व्यक्ति ने पूछा।

‘‘दोस्त,’’ दूसरा आदमी बोला, ‘‘मेरी कमर पर बंधी यह बैल्ट देखते हो, यह सोने के सिक्कों से भरी हुई है, जिसे मैंने साल भर मेहनत कर अपनी पत्नी और बच्चों के लिए कमाया है। इसी कारण मैं आसानी से नदी पार कर गया। तैरते समय मैं अपने पत्नी और बच्चों को अपने कन्धे पर महसूस कर रहा था।’’

-00-

तूलिका

-सुकेश साहनी

अनुवाद-डॉ आत्म देव मिश्र

ॠतु: हेमन्त: ।सायंकालस्य वेला ।शैत्यं संवर्धनयन् शीत: वायु: प्रवहति स्म ।सर्वे जना: तूलिकया आवृता: आसन् ।पक्षिण: अपि स्वकीयेषु निर्मितेषु नीडेषु सुखेन वसन्ति स्म। अस्मिन् शीते सहसा पार्श्वर्तिन: भार्या शीला आगत्य प्रार्थितवती-भगिनि !अद्य मम गृहे चत्वार: अतिथय: आगता: कृपया मह्यं स्वकीया तूलिकां देहि ।अहं असत्यं अवदम् मम पत्यु: मित्रमपि आगन्ता अस्ति ।अत: दातुम अस्मि असमर्था । सा गता। अहं प्रत्यागत्य स्व पत्यु: पुरतो अकथयम्-नित्यमेव तूलिकां याचमाना इयं लज्जां नानुभवति ।इदं श्रुत्वा मम पति अवदत्-शोभनम् , मिथ्या भाषणमेव निदानम् ।

क्षणं तूष्णीक: मम पति उक्तवान्-प्रिये!अद्य तु अति शीत: अस्ति । तूलिका अपि हिममिव प्रतीयते ।भवतु ,हसन्तीम् आनयामि इत्युक्त्वा अहं आनीतवती । आवां हसन्त्या: समीपे अतिष्ठाव ।मम पति: अभाषत्-शीतेऽस्मिन् पार्श्ववर्तिनी शीला कथं शैत्यं सहते ?तूलिका तु अस्त्येव ।एकस्य दिनस्य प्रयोगेण क्षीणा तु नैव भविष्यति ।दत्वा शीघ्रमेव आगच्छामि इत्युक्त्वा अहं तस्या गृहम् गता । यदा प्रत्यागता मम पतिसुखेन सुप्त: आसीत् ।अहमपि तत्क्षणमेव प्रसुप्ता ।



ऊँचाई


सुकेश साहनी

उदघाट्न समारोह में बहुत से रंगबिंरगे, खुबसूरत, गोलमटोल गुब्बारों के बीच एक काला, बदसूरत गुब्बारा भी था, जिसकी सभी हँसी उड़ा रहे थे।
‘‘देखो, कितना बदसूरत है,’’ गोरे चिट्टे गुब्ब्बारे ने मुँह बनाते हुए कहा, ‘‘देखते ही उल्टी आती है।’’
‘‘अबे, मरियल!’’ सेब जैसा लाल गुब्बारा बोला, ‘‘तू तो दो कदम में ही टें बाल जाएगा, फूट यहाँ से!’’
‘‘भाइयों! ज़रा इसकी शक्ल तो देखो,’’ हरेभरे गुब्बारे ने हँसते हुए कहा, ‘‘पैदाइशी भुक्खड़ लगता है।’’
सब हँसने लगे, पर बदसूरत गुब्बारा कुछ नहीं बोला। उसे पता था ऊँचा उठना उसकी रंगत पर नहीं बल्कि उसके भीतर क्या है, इस पर निर्भर है।
जब गुब्बारे छोड़े गए तो काला, बदसूरत गुब्बारा सबसे आगे था।

-00-