Saturday, August 14, 2010

अथ उलूक कथा

सुकेश साहनी

शिकार की ताक में घंटों एक टांग पर खड़े रहने के बावजूद जब उसके हाथ कुछ नहीं लगा, तो वह किसी दूसरे सरोवर की तलाश में निकल पड़ा।

रास्ते में हर कहीं खुशहाली थी। सब अपनेअपने काम में इस कदर मग्न थे कि किसी ने सिर उठाकर उसकी ओर देखा तक नहीं। यह देखकर वह गहरी चिंता में डूब गया।

एक पेड़ के नीचे से गुजरते हुए उसे दो उल्लू झगड़ते हुए दिखाई दिए।

‘‘इस इमारत का मालिक मैं हूँ !’’ पहला उल्लू।

‘‘क्या बकते हो?’’ दूसरा उल्लू, ‘‘इसे तो हमारे पूर्वजों ने बनवाया था।’’

‘‘तुम्हारे पूर्वज कितने बड़े लुटेरे थे, यह सभी जानते हैं।’’ पहले ने तीर छोड़ा।

‘‘जबान संभाल कर बात करो, नहीं तो.....’’ दूसरा गुर्राया।

दोनों झगड़ने लगे।

उसने दोनों को शांत कराया और फिर बड़ी गंभीरता से क्षेत्र का निरीक्षण करने लगा। दूरदूर तक किसी इमारत का नामोनिशान तक न था। वैसे भी, वह यह सोचकर दंग था कि उल्लू दिन में कब से देखने लगे।

वह उल्लुओं को समझाते हुए बोला, ‘‘आप दोनों की तीव्र दृष्टि एवं कुशाग्र बुद्धि काबिले -तारीफ है। अपनीअपनी जगह आप दोनों ही सही हैं। इमारत किसकी है, इसका फैसला आम सहमति से जल्दी ही हम कर देंगे।’’ कहकर उसने दोनों को पहचान के लिए अलगअलग रंग की टोपियाँ पहना दी।

उल्लू बिरादरी में यह खबर आग की तरह फैल गई। दिनभर उसके पास उल्लुओं का जमघट लगा रहने लगा। अब वह बाकायदा कुर्सी पर बैठकर उनको टोपियाँ पहनाने लगा।

अगली बार वह जब क्षेत्रीय भ्रमण पर निकला, तो हर शाख पर टोपीवाले उल्लू बैठे थे और उस अदृश्य इमारत को लेकर आपस में झगड़ रहे थे।

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