Friday, May 16, 2008

खलील ज़िब्रान: जीवन एवं लघुकथाएँ

खलील ज़िब्रान: जीवन एवं लघुकथाएँ

सुकेश साहनी

ख़लील जिब्रान ने लेबनान में तुर्क आथमन वंश के अति कठोर शासन काल में होश सँभाला था। उन दिनों देश की अर्थ व्यवस्था पंगु हो गई थी। लोग भूख और गरीबी से त्रस्त थे। तुर्क शासकों की अनीति के कारण जनता का जीना दूभर हो गया था। धर्मान्धता एवं सामाजिक रूढि़यों के जाल में फँसकर आम आदमी का जीवन पूरी तरह जड़ एवं चेतनाहीन हो गया था। ख़लील जिब्रान अपने चारों ओर हो रहे इस अन्याय एवं शोषण को देख रहे थे। पादरियों को आम जनता का खून चूसने वाले शासकों का साथ देते देख उनके मन में भयानक आक्रोश जन्म लेने लगा था। यह आक्रोश उनकी पहली पुस्तक 'रिपरिट्स रिबेलियंस' में अभिव्यक्त हुआ। इसमें ख़लील जिब्रान ने धार्मिक पाखण्ड और शासकों के अत्याचार की कठोर भर्त्सना की थी। इस पुस्तक के आते ही लेबनान में तहलका मच गया। 'मेरनाइट कैथोलिक चर्च' ख़लील जिब्रान के प्राणों का प्यासा हो गया। पुस्तक की सभी उपलब्ध प्रतियों को जलाकर नष्ट कर दिया गया और ख़लील जिब्रान को देश से निष्कासित कर दिया गया।

इस घटना के बाद ख़लील जिब्रान का आक्रोश और भी प्रचण्ड रूप में सामने आया, जिसे उन्होंने अपनी कविताओं, उपन्यासों, कहानियों और चित्रों में अभिव्यक्ति दी। इसी समय ख़लील जिब्रान ने लघु आकार वाली गद्य रचानाएँ भी लिखीं। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो ख़लील जिब्रान को 'लघु कलेवर' में अपनी बात कहने की आवश्यकता महसूस हुई। इस प्रकार उन्होंने लघु आकार वाली एक नई शैली को जन्म दिया। अपनी इन लघु रचनाओं में उन्होंने छोटी से छोटी बात को बहुत ही प्रभावशाली ढंग से अभिव्यक्त किया। आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री के अनुसार, ''मैं ख़लील जिब्रान को लघुकथा का जनक मानता हूँ....ख़लील जिब्रान के पास जो अन्तर्दृष्टि या उच्चकोटि की प्रतिभा थी, मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि वर्तमान में हमारे यहां वह अन्तर्दृष्टि या उच्चकोटि की प्रतिभा अभी किसी के पास नहीं है।'' (लघुकथा: बहस के चौराहे पर : सं. सतीशराज पुष्करणा)

ख़लील जिब्रान ने आज लिखी जा रही लघुकथाओं की तरह पहले तय करके लघु आकार की गद्य रचनाएँ नहीं लिखी होंगी। उनका इस विधा में रचनाकर्म 'आवश्यकता अविष्कार की जननी है' की तर्ज पर हुआ। यही वजह है कि उनकी लघुकथाएँ आज भी उतनी ही प्रभावशाली एवं प्रासंगिक हैं।

ख़लील जिब्रान की प्रारम्भिक शिक्षा लेबनान एवं अमेरिका में हुई थी। जिस समय उनको 'देश निकाला' दिया गया, उन दिनों वे पेरिस में रह रहे थे। फ़्राांस का सुप्रसिद्ध चित्रकार रोदिन उनका मित्र था। उसी के पास रहकर वे चित्रकला का अभ्यास कर रहे थे। घरेलू परिस्थितियों के कारण उन्हें अमेरिका जाना पड़ा। वहां जाकर वे चित्रकला एवं साहित्य सृजन में लीन हो गए। ख़लील जिब्रान ने अरबी एवं अंग्रेजी दोनों भाषाओं में महारत हासिल कर ली थी। सन् 1910 में ख़लील जिब्रान ने न्यूयार्क में अपना स्टूडियो खोल लिया था और फिर जीवन के अंत (1931) तक वहीं रहे। ख़लील जिब्रान की अंग्रेजी में लिखी गई पहली पुस्तक' दि मैडमैन' थी। इस पुस्तक का प्रकाशन सितम्बर 1918 में हुआ। लघुकथाओं की दृष्टि से इस पुस्तक का महत्त्व है। इस पुस्तक के बाद उनका अधिकांश लेखन अंग्रेजी में ही हुआ। लघु रचनाओं की दृष्टि से दो अन्य महत्वपूर्ण पुस्तक हैंदि फॉरनर एवं दि वाण्डरर । ये दोनों पुस्तकें अंग्रेजी में लिखी गई थीं। इनका प्रकाशन क्रमश: 1920 एवं 1932 में हुआ। लघु रचनाओं की दृष्टि से ख़लील जिब्रान का चौथा महत्त्वपूर्ण संग्रह हैसन एण्ड फोम। इसमें ख़लील जिब्रान के महत्त्वपूर्ण विचार कहीं तो शुद्ध रूप में और कहीं रोचक किस्सों के रूप में अभिव्यक्त हुए हैं। इस तरह 'सन एण्ड फोम' में खलील जिब्रान की अनेक कालजयी लघुकथाओं से साक्षात्कार होता है।

प्रस्तुत संग्रह में उपयु‍र्क्त चारों पुस्तकों से रचनाओं का चयन कर उन्हें हिन्दी में अनूदित कर पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत करने का विनम्र प्रयास किया गया है। ख़लील जिब्रान की प्रत्येक रचना बेजोड़ है, अपने आप में पूर्ण कलाकृति है। अत: रचनाओं के चयन के विषय में कोई भी दावा पेश करना उचित नहीं है। इस संकलन हेतु रचनाओं का चयन करते समय उन रचनाओं को वरीयता दी गई है जो आज हिन्दी में लिखी जा रही लघुकथाओं के लिए आदर्श (मॉडल) हैं। संकलन में कुछ ऐसी रचनाएँ भी सम्मिलित की गई हैं ;जो लघुकथाएँ नहीं है। इनमें ख़लील जिब्रान के महत्वपूर्ण विचारों की अभिव्यक्ति हुई है। इनमें लघुकथा के लिए अनिवार्य 'कथा' तत्व अनुपस्थित है। लघुकथाएँ न होते हुए भी इन्हें इस संग्रह में शामिल किया गया है क्योंकि इन रचनाओं में ख़लील जिब्रान का रचनाकौशल देखते ही बनता है। लघुकथा के विद्यार्थी के रूप में मैं इन कथाओं को बहुत महत्त्वपूर्ण मानता हूँ, इनसे गागर में सागर भरने की तकनीक सीखी जा सकती है। वैसे भी शोधार्थियों की बात छोड़ दी जाए तो पाठक को ये रचनाएँ मुकम्मल कृति का आनन्द देती हैं।

प्रस्तुत संग्रह की रचनाओं को निम्न में वगीकृत किया जा सकता है

एक: सामाजिक असमानता, आम आदमी के शोषण और दुखदर्द के खिलाफ संघर्ष के लिए प्रेरित करती लघुकथाएँ-

पीढ़ी दर पीढ़ी शारीरिक एवं आर्थिक शोषण की चक्की में पिसते आम आदमी ने गुलामी को अपनी नियति मान लिया है। राज सिंहासन पर सो रही बूढ़ी रानी को चार दास खड़े पंखा झल रहे थे। यहाँ बूढ़ी रानी गुलामी का प्रतीक है। ख़लील जिब्रान इन दासों को बिल्ली की घुरघुराहट के माध्यम से झकझोरते हुए संघर्ष के लिए प्रेरित करते हैं

सोते हुए रानी उतनी बदसूरत नहीं लग रही है जितना तुम जागते हुए अपनी गुलामी में।

हाँ, वह तुम्हारे बापदादाओं और बड़े हो रहे बच्चों के सपने देख रही है।

कमज़ोर लोगों की ही बलि चढ़ाई जाती है।

बिल्ली घुरघुराई और बोली, ''हवा करते रहो, पंखा झलते रहो मूर्खो। तुम आग को हवा देते रहो ताकि वह तुम्हें जलाकर राख कर दे।' (गुलामी)

अमीरगरीब, छोटाबड़ा, हिन्दूमुस्लिमसिखईसाई का भेद समाप्त होना चाहिए; ऐसा हम सभी मानते हैं। पर क्या हम अपने दिलों से इस भेदभाव, नफरत की भावना को निकाल पाए हैं? 'हम सब एक हैं'– 'हम सब भाईभाई हैं' जैसे नारों से दीवारों को रँगने और रेडियोदूरदर्शन पर दिनरात दोहराने की ज़रूरत हमें क्यों पड़ती है? इस स्थिति पर ख़लील जिब्रान गरुड़ और चकवे के माध्यम से बहुत तीखा व्यंग्य करते हैंचकवे द्वारा गरुड़ पक्षी का अभिवादन करने पर गरुड़ स्वयं को अपमानित महसूस करता है और चकवे से कहता है, ''तुम्हें मालूम होना चाहिए कि तुम पक्षियों के राजा से बात कर रहे हो। जब तक हम बात शुरू न करें तुम्हें हमसे बात शुरू करने की गुस्ताखी नहीं करनी चाहिए।'' इस पर चकवा खुद को एवं गरुड़ को एक ही परिवार का बताता है। दोनों में झगड़ा होने लगता है। चकवा उड़कर गरुड़ की पीठ पर बैठ जाता है और उसके पर नोचने लगता है। गरुड़ असहाय हो जाता है। तभी एक कछुआ वहाँ आ जाता है और उन दोनों की ओर देखकर हँसने लगता है। गरुड़ द्वारा हँसी का कारण पूछे जाने पर कहता है, ''यह हँसने की बात नहीं है कि आपको घोड़ा बनाकर एक छोटासा पक्षी आपकी पीठ पर सवारी कर रहा है।'' इस पर गरुड़ कहता है, ''अबे जा, अपना काम कर! यह तो मेरे भाई चकवे का और मेरा घरेलू मामला है।'' (भाईभाई)

ख़लील जिब्रान अमरीका में रह रहे थे, वहां भी उनकी पैनी दृष्टि बड़े देशों द्वारा किए जा रहे छोटे, अविकसित देशों के शोषण पर टिकी हुई थी। युद्ध में इसे बहुत सशक्त तरीके से उजागर किया गया है।

दो: धर्मान्धता, कुरीतियों एवं सामाजिक रूढि़यों के विरुद्ध लिखी गई लघुकथाएँ-

इस श्रेणी में ख़लील जिब्रान की वे रचनाएँ आती हैं जिनमें धर्मान्धता एवं कुरीतियों का सशक्त तरीके से विरोध किया गया है। ये रचनाएँ मानवमूल्यों की स्थापना के लिए प्रेरित करती हैं। ख़लील जिब्रान कहते है, ''धर्म? यह क्या है? मैं तो केवल जीवन को पहचानता हूँ। जीवन का मतलब है...खेत..अंगूर का बाग और करघा।'' जीवन और जीवन का सारा कर्म ही ख़लील जिब्रान का धर्म था। उनकी रचनाएँ भी उनकी इसी सोच की वकालत करते हुए कर्म करने की प्रेरणा देती हैं

उस नगर में पहुँचकर कथानायक हैरान रह जाता है, वहाँ के सभी नागरिक एक आँख और एक हाथ वाले थे। वहाँ के लोग भी उसकी दो आँखों और दो हाथों को देखकर आश्चर्य में डूब जाते हैं, इस विषय पर पूछने पर वे लोग कथानायक को एक मन्दिर में ले जाते हैं, यहाँ हाथों और आँखों का ढ़ेर लगा होता है। नागरिक गर्व से बताते हैं कि ईश्वर के आदेश पर ही उन्होंने अपने भीतर की बुराई पर विजय पाई है। वे कथानायक को एक ऊँचे स्थान पर ले जाते हैं, जहाँ पर एक शिलालेख पर लिखा होता है, ''अगर तुम्हारी दाहिनी आँख अपराध करे तो उसे बाहर निकाल फेंको, क्योंकि जीते जी सशरीर नरक झेलने से बेहतर है कि अंग नष्ट हो जाए। यदि तुम्हारा दाहिना हाथ अपराध करे तो उसे तत्काल काट फेंको; क्योंकि उससे पूरा शरीर तो नरक में नहीं जाएगा।' कथानायक उस पवित्र नगर से भाग जाता है। (पवित्र नगर)

इस रचना के माध्यम से ख़लील जिब्रान उन धर्मान्ध लोगों पर चोट करते हैं जो स्वर्ग की कामना में अपना वर्तमान भी नारकीय बना लेते हैं। पवित्र नगर से कथानायक का भागना वस्तुत: कर्महीन धर्मान्धता से पलायन है।

विद्वान लघुकथा में ख़लील जिब्रान ने उन मठाधीशों को बेनकाब किया है जो खोखले अहं के कारण अपने द्वारा रचे गए काल्पनिक स्वर्ग में आँखें मीचे सम्पूर्ण जीवन गुज़ार देते हैं

एक प्राचीन शहर में दो विद्वान् रहते थे, जो एक दूसरे की विचारधारा को नापसन्द करते थे। उनमें से एक ईश्वर के अस्तित्व को नकारता था, जबकि दूसरा आस्तिक था। एक दिन उन दोनों में ईश्वर के अस्तित्व को लेकर बहस छिड़ गई। अपनेअपने अनुयाइयों के बीच वे आपस में झगड़ पड़े। उस शाम नास्तिक पहली बार मन्दिर गया और ईश्वर के आगे गिरकर अपनी पिछली हठधर्मी के लिए क्षमा माँगने लगा। उधर दूसरे विद्वान् ने अपनी पूज्य पुस्तकें जला डालीं, अब उसे ईश्वर के अस्तित्व पर विश्वास नहीं था।

ख़लील जिब्रान कहते हैं, ''धर्म तो तुम्हारे अन्दर मौजूद है और तुम खुद उसके पुरोहित हो। सबसे महत्त्व की बात है...मुक्त आत्मा।'' उनके अनुसार मुक्त आत्मा का निर्माण ही धर्मभावना का कार्य है। इसे प्राप्त करने वाला व्यक्ति ही विश्वप्रेम एवं मानवकल्याण की बात कर सकता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि खलील जिब्रान धर्म के बुनियादी सिद्धान्तों पर प्रहार नहीं करते। वे धर्म में ही निहित मानवप्रेम के आदर्शों की दुहाई देकर आम आदमी को उसका हक दिलवाने की चेष्टा करते हैं। 'वज्रपात' में ख़लील जिब्रान का आक्रोश उस पादरी पर फट पड़ा है जो धर्म भावना (मानवप्रेम) से रहित हैएक औरत गिरजाघर में पादरी के सामने जाकर अपने जीवन की नारकीय यातनाओं से मुक्ति का मार्ग पूछती है। पादरी उस औरत की कोई मदद नहीं करता क्योंकि उस औरत ने विधिवत् ईसाई धर्म की दीक्षा नहीं ली थी। पादरी द्वारा उस औरत को मना करते ही तेज गड़गड़ाहट के साथ आसमान से बिजली गिरती है और सम्पूर्ण क्षेत्र आग की लपटों में घिर जाता है। नगरवासी उस औरत को तो बचा लेते हैं पर पादरी की मृत्यु हो जाती है।

तीन: कूपमण्डक सोच एवं सामाजिक जड़ता के विरूद्ध लिखी गई रचनाएँ।

ख़लील जिब्रान कर्म के प्रति अटूट श्रद्धा रखते थे। ईश्वर अथवा प्रकृति भी कर्म करने वालों का साथ देती है, वे इस सिद्धान्त के पक्षधर थे। भाग्य के भरोसे निठल्ले पड़े रहने वालों की उन्होंने तीव्र आलोचना की हैपहले जब मैं एक अनार के दिल में रहता था, मैंने एक बीज को कहते सुना, ''हमारी सारी आशाएँ व्यर्थ थीं!''

तीसरे ने कहा, ''हमारा कोई भविष्य ही नहीं है!''

चौथे ने कहा, ''बिना उज्ज्वल भविष्य के हमारा जीवन एक मज़ाक बनकर रह जाएगा।''

पाँचवाँ बोला, ''हमें अपने वर्तमान के बारे में ही नहीं पता तो भविष्य की बात करना बेकार है।''

छठे ने कहा, ''हमारी तो ऐसे ही कट जाएगी!''

सभी बीज वादविवाद में जुट गए। शोर के कारण मुझे कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा था।

मैं उसी दिन अनार के दिल से निकलकर सख्त पीले बेल के दिल में बैठ गया। यहाँ के बीज पीले और कमज़ोर हैं, पर निराशावादी नहीं। यही वजह है कि वे संख्या में थोड़े हैं और ज्यादातर शान्त ही रहते हैं। (ईश्वर ने कहा)

इस श्रेणी में अन्य सशक्त लघुकथाएँ हैंमूर्खो के बीच,कूपमण्डूक, मेंढक, सावन के अंधे, असंतुष्ट, काल्पनिक नरक आदि।

चार: जीवन की विसंगतियों पर प्रहार करती लघुकथाएँ

इस श्रेणी में निद्राजीवी उल्लेखनीय रचना है। एक शान्त रात में नींद में चलते हुए माँबेटी का सामना हो गया। माँ बेटी की ओर देखकर बोली, ''तू? मेरी दुश्मन! मेरी जवानी तुझे पालनेपोसने में ही बर्बाद हो गई। तूने बेल बनकर मेरी उमंगों का वृक्ष ही सुखा डाला। काश! मैंने तुझे जन्मते ही मार दिया होता।'' इस पर बेटी ने कहा, ''ए स्वार्थी बुढ़िया! तू मेरे सुखों के रास्ते के बीच दीवार की तरह खड़ी है। काश! तू मर गई होती।'' तभी मुर्गे ने बाँग दी और वे दोनों जाग पड़ीं। माँ ने चकित होकर कहा, ''अरे मेरी प्यारी बेटी तुम!'' बेटी ने भी आदर से कहा,––''हाँ, मेरी प्यारी माँ!''

इस सशक्त लघुकथा में ख़लील जिब्रान ने उन लोगों की मानसिकता का चित्रण किया है जो विभिन्न अच्छेबुरे दबावों के कारण जीवन पर्यन्त दोहरा जीवन जीते हैं। यह लघुकथा हमें ख़लील जिब्रान की कलम की ताकत से परिचित कराती है।

इसी श्रेणी की एक अन्य लघुकथा है 'बड़ा पागलखाना'पागलखाने में एक युवक की दूसरे से भेंट होती है। पहला दूसरे से पागलखाने में आने की वजह पूछता है। दूसरा युवक बताता हैउसके पिता और चाचा उसे बिल्कुल अपने जैसा देखना चाहते हैं, माँ उसे अपने प्रसिद्ध पिता जैसे बनाना चाहती है, बहन उसे अपने नाविक पति जैसा और भाई खिलाड़ी बनाना चाहता है। उसके शिक्षक उसमें अपनी छवि देखना चाहते हैं। चूंकि उसने उनके आगे समर्पण नहीं किया इसलिए उसे पागलखाने में आना पड़ा।

इस लघुकथा के माध्यम से ख़लील जिब्रान सवाल उठाते हैंअसली पागल कौन हैं? वे जो सैकड़ों जन्मजात प्रतिभाओं को कुचलकर उन पर अपना व्यक्तित्व थोपना चाहते हैं अथवा वे जो इन दबावों के आगे आत्मसमर्पण न करते हुए अपने जन्मजात व्यक्तित्व को सुरक्षित रखना चाहते हैं। नन्हें बच्चों से संवाद स्थापित न कर पाने की पीड़ा को बहुत ही प्रभावशाली ढंग से 'असंवाद' में अभिव्यक्त किया गया है।

पांच: मानवकल्याण एवं विश्व बंधुत्व का संदेश देती लघुकथाएँ-

मानव कल्याण ही ख़लील जिब्रान के चिन्तन का सार है। वे मनुष्य के दिल में प्रेम और करुणा की भावना जगाकर विश्वबंधुत्व का संदेश देते हैं। मनुष्य का मनुष्य से प्रेम ही ईश्वर की सच्ची उपासना हैपहले -पहल मनुष्य ने जब बोलना सीखा तो ऊँचे पर्वत पर चढ़कर ईश्वर से कहा, ''भगवन्, मैं आपका दास हूँ...आपका हर आदेश सिर आँखों पर!''

ईश्वर ने कोई उत्तर नहीं दिया और न ही मनुष्य के पास आया।

मनुष्य ने पुन: ईश्वर से कहा, ''हे विधाता, मैं आपकी सृष्टि हूँ। आपने मिट्टी से मेरा निर्माण किया है, जो कुछ भी है, सब आपका है।''

इस पर भी ईश्वर चुप रहा।

हज़ार वर्ष बाद मनुष्य ने फिर ईश्वर से कहा, ''मेरे परमात्मा, मैं आपकी संतान हूं। दया करके आपने मुझे जन्म दिया। प्यार एवं भक्तिभाव से ही मैं आपके राज्य का उत्तराधिकारी बनूँगा।''

ईश्वर ने कोई जवाब नहीं दिया।

एक हज़ार साल बाद मनुष्य ने फिर ईश्वर से कहा, ''मेरे प्रभु! मेरे लक्ष्य...मैं आपका बीता हुआ कल और आप मेरा भविष्य हैं। धरती में मैं आपकी जड़ हूँ और आकाश में आप मेरे पुष्प! हम दोनों ही सूर्य के प्रकाश में साथसाथ पलते- बढ़ते हैं।''

तब ईश्वर मनुष्य पर झुका, मनुष्य के कानों में उसके शब्द झरे और जिस तरह समुद्र नदीनालों को अपने आगोश में ले लेता है, ईश्वर ने मनुष्य को अपने सीने से लगा लिया।

जब मनुष्य पहाड़ से नीचे उतरकर घाटियों और मैदानों में आया तो उसने ईश्वर को वहाँ भी पाया....हरेक में। (बंधुत्व)

आपने पवित्र पर्वत के बारे में जरूर सुना होगा।

यह संसार का सबसे ऊँचा पर्वत है।

अगर आप उसकी चोटी पर पहुँच सकें तो आपकी एक ही इच्छा होगी कि वहाँ से उतरें और जीवन की मुख्य धारा से जुड़े लोगों के साथ घाटी में रहने लगें। (ऊँचाई)

ख़लील जिब्रान की दृष्टि में असली महात्मा वही है जिसके दिल में मानव के लिए प्रेम की भावना हो। उनकी दृष्टि में मानवकल्याण के लिए बोला गया झूठ 'झूठ' की श्रेणी में नहीं आता हैएक डाकू सन्त के आगे घुटनों के बल झुककर स्वीकार करता है कि वह लुटेरा, पापी और कातिल है। सन्त बिना आश्चर्य व्यक्त किए डाकू को बताता है कि वह खुद भी बहुत बड़ा अपराधी, लुटेरा और कातिल है। संत द्वारा बोला गया झूठ प्रायश्चित की ओर अग्रसर डाकू को निश्चिंत कर देता है। डाकू खुशीखुशी लौट जाता है। दूर से उसके गाने की आवाज़ सुनाई देती है। ख़लील जिब्रान इस लघुकथा का अंत इस प्रकार करते हैंउसके गीत की गूँज ने घाटी को खुशी से भर दिया। यहां हम ख़लील जिब्रान से 'गागर में सागर' भरने की तकनीक सीख सकते हैं। सामान्य लेखक रचना का अंत इस प्रकार करताडाकू अच्छा आदमी बन गया, घाटी में उसका आतंक खत्म हो गया, डाकू के अच्छे कार्य व्यवहार ने घाटी को खुशियों से भर दिया। ख़लील जिब्रान एक चुस्त वाक्य से उस डाकू के भविष्य का चित्र खींच देते हैं।

विश्व शान्ति में सबसे बड़े बाधक के रूप में कुछ सिरफिरे राष्ट्र नेता होते हैं, जो अपने अडि़यल रवैये के कारण निरीह जनता को भी युद्ध की आग में झोंक देते हैं। हैरत होती है कि जब ख़लील जिब्रान की किसी रचना में ऐसे सिरफिरों से निपटने के लिए संदेश छिपा मिलता हैएक निर्जन पहाड़ पर दो साधु रहते थे। उनके पास मिट्टी का एक कटोरा था और यही उनकी पूँजी थी। एक दिन बूढ़े साधु के मन में कुछ आया और उसने छोटे साधु से कटोरे को बाँट लेने की बात कही। सुनकर छोटा साधु उदास हो गया, बड़े साधु से बोला, ''चूंकि हम इसे बाँट नहीं सकते, इसे आप ही रख लो।'' बड़ा साधु कटोरे को बाँटने के लिए अड़ा ही रहा। छोटा साधु पासा फेंककर तय करने का सुझाव देता है। दूसरा साधु इस प्रस्ताव को भी अस्वीकार कर देता है। तब छोटा साधु कहता है, ''अगर आपको कोई विकल्प मंजूर नहीं है तो क्यों न इस झगड़े की जड़ कटोरे को तोड़कर नष्ट ही कर दें।''

यह सुनकर बड़ा साधु आगबबूला हो उठा, ''ओ नामर्द! कायर!! तू मुझसे झगड़ता क्यों नहीं?'' (अच्छाई)

छह : स्त्रीपुरुष संबंधों की लघुकथाएँ।

ख़लील जिब्रान समाज से भागने में विश्वास नहीं रखते थे। उन्होंने जीवन को समग्र रूप में जीने का संदेश दिया। उनके अनुसार स्त्री और पुरूष मिलकर पूर्ण मानव बनता है। स्त्री और पुरूष की पूर्णता के लिए उन्हें एक दूसरे की आवश्यकता होती है। प्रेम से ही मनुष्य का हृदय शुद्ध होता हैसभी पशु पक्षी जोड़ों में उस साधु के पास आते थे। साधु उन्हें उपदेश देता था। वे खुशीखुशी उसे सुनते थे और उसके पास से जाने का नाम नहीं लेते थे। एक दिन वह दाम्पत्य जीवन में प्यार के बारे में बता रहा था। एक तेंदुए ने उससे पूछा, ''आप हमें प्यार के बारे में बता रहे हैं, हम जानना चाहते हैं कि आपकी पत्नी कहाँ है?'' साधु ने कहा, ''मैंने तो विवाह ही नहीं किया, मेरी कोई प्रेयसी नहीं है।'' इस पर पशु पक्षियों के झुण्ड में आश्चर्य भरा शोर गूँज उठा। वे आपस में कह रहे थे, ''भला वह हमें प्रेम और दाम्पत्य के बारे में क्या बता सकता है जब वह स्वयं इस विषय में कुछ नहीं जानता है!'' वे सब अवज्ञा भरे अंदाज़ में वहां से उठकर चले गए। (इस दुनिया में)

इस रचना में ख़लील जिब्रान ने इस सच को उजागर किया है कि इस दुनिया में कुछ करने के लिए पहली शर्त हैइसी दुनिया में जीना, आम आदमी के दुखदर्द को आत्मसात् करना। इस दुनिया से भागकर लोगों का रास्ता दिखाने वाले जन्मांध मठाधीश की पोल बहुत जल्दी खुल ही जाती है।

घर परिवार में रहते हुए ख़लील जिब्रान के जीवन पर उनकी माँ कामिला रहीमी एवं बहन मरिआना का बहुत प्रभाव पड़ा। उनकी माँ बचपन में तरहतरह के गीत सुनाया करती थी। हारुनउलरशीद की कहानियाँ और अरबी जीवन की लोककथाएँ ख़लील जिब्रान ने अपनी माँ से ही सुनी थीं। कामिला रहीमी ने ही ख़लील जिब्रान के दिल में मानव प्रेम और करुणा भरे संस्कारों की नींव डाली थी। 1903 में भाई और माँ के देहान्त के बाद ख़लील जिब्रान दुनिया में अपनी बहन मरिआना के साथ अकेले रह गए थे। बहन मरिआना की प्रेरणा से ही ख़लील जिब्रान ने अपना ध्यान पुन: साहित्यसृजन पर केन्द्रित किया। इसी दौरान उनका प्रेम सलमा करीमी नामक युवती से हो गया। किन्हीं कारणवश ख़लील जिब्रान आजीवन अविवाहित रहे। उनके लेखन में इस असफल प्रेम के अनेक छायासंकेत देखे जा सकते हैं।

उसने पुरुष से कहा, ''मैं तुम्हें प्रेम करती हूँ।''

पुरुष ने कहा, ''मैं भी तुम्हारा प्रेम पाने को लालायित रहा हूं।''

स्त्री ने कहा, ''लगता है तुम मुझे नहीं चाहते।''

सुनकर आदमी ने ध्यान से उसकी ओर देखा, पर कहा कुछ भी नहीं।

इस पर वह औरत चीख पड़ी, ''मुझे तुमसे नफरत है।''

पुरुष ने कहा, ''मेरी दिली इच्छा है कि किसी तरह तुम्हारी नफरत ही पा सकूँ।'' (सच्चा प्यार)

ख़लील जिब्रान स्त्रीपुरुष सम्बंधों में 'पवित्र प्रेम' को प्रमुख मानते हैं। उनके अनुसार यदि स्त्रीपुरुष के एक दूसरे की ओर आकर्षित होने का कारण मात्र शारीरिक है तो यह गलत है। शरीर माध्यम हो सकता है, पर प्रेम अनिवार्य है। स्त्रीपुरुष के प्रेम की 'आध्यात्मिक पवित्रता' के संदर्भ में 'शरीर और आत्मा' नामक लघुकथा देखेंवे दोनों बालकनी में बनी खिड़की में एक दूसरे से सटकर बैठे हुए थे। लड़की ने कहा, ''आई लव यू। यू आर हैं'सम। तुम्हारे पहनावे पर कौन न मर मिटे, फिर तुम्हें किस बात की कमी है।''

लड़के ने कहा, ''मैं भी तुम्हें प्यार करता हूं, तुम किसी खूबसूरत विचार की तरह हो, जो हाथ से पकड़ी नहीं जा सकती। तुम मेरे स्वप्नों में तैरते गीत जैसी हो।''

लड़की झटके से अलग हो गई और तुनककर बोली, ''रहने दो! मैं न तो कोई विचार हूँ और न ही तुम्हारे स्वप्नों में घूमने वाली चीज। मैं एक लड़की हूँ। मैं समझती थी कि तुम मुझे अपनी पत्नी और होने वाले बच्चों की माँ के रूप में चाहते हो।''

दोनो अलग हो गए।

लड़के ने मन ही मन कहा, 'एक और सुन्दर सपना गहरी धुंध में बदलकर रह गया।'

लड़की कह रही थी, 'अच्छा हुआ, ऐसे आदमी का क्या भरोसा जो मुझे विचार और गीत के रूप में देखता है।'

इस श्रेणी में ख़लील जिब्रान की अन्य महत्त्वपूर्ण लघुकथाएँ हैंमेले में, गोल्डन बैल्ट, संसर्ग, प्रेमगीत आदि।

ख़लील जिब्रान की मृत्यु 10 अप्रैल 1931 को न्यूयार्क में एक मोटर दुर्घटना के कारण हुई। उस समय उनकी आयु केवल अड़तालीस वर्ष थी। इस समय उनकी रचनाशीलता अपने शिखर पर थी। दो दिन तक उनके पार्थिव शरीर का दर्शन करने वालों का ताँता लगा रहा। उनकी अंतिम इच्छा के अनुसार उनके ताबूत को लेबनान ले जाया गया, जहां उन्हें अपने गाँव की कब्रगाह में सम्मानपूर्वक दफनाया गया। ख़लील जिब्रान जैसा व्यक्ति कभी भी नहीं मरता। मानव कल्याण के लिए कुछ कर गुज़रते की भूख उनमें इतनी अधिक थी कि वे कहते हैंमैं फिर आऊँगा।

इस संकलन से पूर्व भाई भूपाल सूद जी (अयन प्रकाशन, दिल्ली) द्वारा 'खलील जिब्रान की लघुकथाएँ' 1995 में प्रकाशित की गई थी जिसमें मेरे द्वारा अनूदित खलील जिब्रान की 75 लघुकथाएं संकलित थी। प्रस्तुत पुस्तक में वर्ष 95 के पश्चात मेरे द्वारा समयसमय पर किए गए अनुवाद शामिल किए गए हैं। मैं प्रदीप मोघे जी का बहुत आभारी हूं , जिन्होंने मेरा ध्यान ख़लील जिब्रान की अनेक छोटीछोटी किन्तु अति महत्त्वपूर्ण रचनाओं की ओर आकृष्ट कराया, जिन्हें मैंने अब इस संग्रह में शामिल किया है । खलील जिब्रान की रचनाओं का हिन्दी अनुवाद करने में बहुत सुख मिला। उनके रचना संसार में डुबकी लगाने से मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला। मैंने प्रयास किया है कि ख़लील जिब्रान की रचनाएँ मूल की भाँति ही हिन्दी के पाठकों तक पहुँचे। लघुकथाओं के मूलस्वर को यथावत् बनाए रखने के लिए शीर्षकों में कुछ परिवर्तन किए हैं।

सुकेश साहनी

www.laghukatha.com

Wednesday, May 14, 2008

सशक्त लघुकथाओं की तलाश

सशक्त लघुकथाओं की तलाश

सुकेश साहनी

काफी पहले की बात है। मैं अपने एक बुजुर्ग मित्र के साथ बैठा बातें कर रहा था, जो लघुकथाओं से बहुत चिढ़ते थे। मेज पर उसी समय डाक से आई पत्रिका का अंक रखा था। बातें करते हुए उन्होंने उसे उठा लिया और एक दो पन्ने पलटने के बाद जोरजोर से पढ़ने लगे, ‘‘ऊपर बड़ेबड़े अक्षरों में लिखा थाशराब जहर है। शराब एक रोग है। इसे हाथ न लगाएँ। उसी के नीचे एक पोस्टर थाखुशखबरी!.... खुल गया... खुल गया...आपके शहर में अंग्रेजी शराब का ठेका,...आइए... पधारिए!’’ पढ़कर रुके,मेरी ओर देखा और फिर ठहाका लगाकर हँस पड़े । हँसतेहँसते उन्होंने अपनी सिगरेट की डिब्बी मेरी ओर बढ़ाई थी, ‘‘ये लो...मेरी भी एक लघुकथासिगरेट स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है!.....अहा!.... हर कश के साथ एक नई ताजगी...नया जोश.... कुछ कर गुजरने की ललक...जवाँ मर्दों की किंग साइज सिगरेट!

‘‘आप भी चुनचुनकर लघुकथाएँ पढ़ते हैं। मैं अभी आपको ऐसी लघुकथा पढ़वा सकता हूँ कि आप लोहा मान जाएंगे।’’

‘‘अच्छा!’’ वे व्यंग्य से मुस्कराए थे, ’’अच्छी लघुकथा ढूँढकर पढ़वानी पड़ती हैं।...च...च्च....च...बड़े दुख की बात हैं...’’

यह घटना लगभग अठारह साल पहले की है। इस बीच लघुकथा ने अपनी विकास यात्रा के कई सोपान तय किए हैं लेकिन लघुकथा के नाम पर इस प्रकार के ब्योरे आज भी बहुतायत में दिखाई देते हैं। दो परस्पर विरोधी घटनाओं वाली लघुकथाओं से यह क्षेत्र पटा पड़ा है।

लघुकथा की लोकप्रियता के पीछे उसकी आकारगत लघुता प्रमुख है। यही आकारगत लघुता उसके लिए अभिशाप भी बनी हुई है। आसान विधा जानकर हर नया लेखक इसमें हाथ आजमाता हैं। फास्ट फूड की तर्ज पर सैकड़ों लघुकथाओं का निर्माण रोज हो रहा है। ऐसी असंख्य लघुकथाओं की उपस्थिति के कारण सशक्त लघुकथाओं का अस्तित्व भी खतरे में पड़ जाता है। पाठकों में लोकप्रियता के कारण पत्रपत्रिकाओं के सम्पादक लघुकथाओं को ससम्मान छापना चाहते हैं,पर अधिकतर की शिकायत यही है कि सशक्त लघुकथाएँ बहुत कम उपलब्ध हो पाती हैं।

कथादेश अखिल भारतीय लघुकथा प्रतियोगिता 2007 के परिणाम की घोषणा की जा चुकी है। रचनाएँ पाठकों के सम्मुख हैं। इस प्रतियोगिता के आयोजन का मुख्य उद्देश्य सशक्त लघुकथाओं की तलाश एवं इस विधा में सक्रिय प्रतिभाओं को प्रोत्साहित करना रहा है। गत वर्ष पुरस्कृत रचनाओं को पढ़कर अनुगूँज में कुछ पाठकों की प्रतिक्रिया थी कि इससे अच्छी रचनाएँ तो उन्हें सामान्य अंकों में पढ़ने को मिल जाती हैं । देश भर से आई सैकड़ों लघुकथाओं में से निर्णायकों द्वारा चुनी गई चंद लघुकथाओं को पाठकों की अपेक्षा के अनुरूप होना ही चाहिए परन्तु यह प्रतियोगिता हेतु प्राप्त रचनाओं की गुणवत्ता पर ही निर्भर करता है। निर्णायकों को उसी में से चयन करना होता है, जो उपलब्ध कराया जाता है। रचनाओं के साथ न्याय हो सके इसके लिए भाई हरिनारायण बहुत श्रम करते हैं। निर्णय होने तक निर्णायकों एवं स्वयं सम्पादककथादेश को कथाकारों के नाम तक पता नहीं होते।

लघुकथा को सुगठित होना चाहिए, उसमें दोहों जैसी बारीकखयाली होनी चाहिए, लघुकथा को सांकेतिक, प्रतीकात्मक या अभिव्यंजनात्मक होना चाहिए, कथ्य प्रकटीकरण का समायोजन सशक्त होना चाहिए, लघुकथा को चरमोत्कर्ष पर समाप्त होना चाहिए आदि आदि न जाने कितने निकष हैं, जिन पर लघुकथा को खरा उतरना चाहिए। आम पाठक के लिए इन बातों का कोई महत्त्व नहीं है। उसे तो रचना पढ़कर मुकम्मल कृति का स्वाद मिल गया तो रचना सफल अन्यथा बेकार। लेकिन लघुकथा लेखन में लगे रचनाकारों को इन बिन्दुओं पर गम्भीरता से विचार करना चाहिए। इस कसौटी पर पुरस्कृत लघुकथाओं को कसा जाए तो तकनीक का धमाका (जावेद आलम), ये कैसी डगर है (मार्टिन जॉन),बिन शीशों का चश्मा (राम कुमार आत्रेय), खून (राघवेन्द्र कुमार शुक्ल), खंडन (हरि मृदुल) और चटसार (पंकज कुमार चौधरी) दूसरी रचनाओं की तुलना में शिल्प की दृष्टि से कहीं अधिक अनुशासित दिखाई देती हैं। फिर भी तकनीक का धमाकाको छोड़कर अन्य रचनाएँ प्रथम तीन में स्थान बनाने में सफल नहीं हुई। खूनधनाढय किसानों के पास गुलामी करते श्रमिकों की पीड़ा एवं विद्रोह को उजागर करती है। इस कथा से लघुकथा में नेपथ्य के महत्व को रेखांकित किया जा सकता है। नेपथ्य में महिला पात्रों की उपस्थिति अनायास ही नारी शोषण की दारूण कथा की ओर हमारा ध्यान खींच लेती हैं। यह लघुकथा सम्प्रेषणीयता के संकट के चलते सभी निर्णायकों का ध्यान नहीं खींच पाई। गाँधीगीरी के इस चर्चित दौर में गाँधी जी की प्रतिमा को प्रतीक के तौर पर लिखी गई रामकुमार आत्रेय की लघुकथा बिन शीशों का चश्मा अस्पष्टता के कारण निर्णायकों की पहली पसन्द नहीं बन सकी। ये कैसी डगर है, चटसार और खंडन सामान्य विषयवस्तु (कांटेन्ट)के कारण अपेक्षाकृत कम अंक प्राप्त कर सकीं।

कोई स्थिति, घटना अहसास या विचार ही हमें लिखने के लिए प्रेरित करता है। इसे हम किसी रचना के लिए कच्चा माल भी कह सकते हैं। देखने में आता है कि कई नये लेखक इस घटना या अहसास के चित्रण को ही मुकम्मल लघुकथा मान लेते हैं। वस्तुत: कच्चे माल के पकने की प्रक्रिया ही विषय वस्तु या घटना को दृष्टि मिलना है। इसके लिए लेखक को धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करनी चाहिए। इस प्रतीक्षा की अवधि कुछ दिनों से लेकर वर्षों तक की हो सकती है। अपनी सृजन यात्रा के दौरान लेखक का साक्षात्कार किसी ऐसी घटना से होता है जो पहली लघुकथा को मायने देती है। लेखक के भीतर किसी रचना के लिए आवश्यक कच्चे माल के पकने की प्रक्रिया ही लेखक की रचना प्रक्रिया है। लघुकथा की रचना प्रक्रिया में उपन्यास या कहानी की भांति बरसों लग सकते हैं। लघुकथा में कहानी की भांति कई घटनाओं, वातावरण निर्माण एवं चरित्र चित्रण द्वारा पाठकों को बांधने या रिझाने का अवसर नहीं होता है। अधिकतम दो घटनाओं वाला कथानक लघुकथा के लिए आदर्श होता है। यहाँ दूसरी घटना को पहली घटना का पूरक होना चाहिए। इस कसौटी पर आनंद की धरोहरखरी उतरती है, वहीं लघुकथा का गठन लेखक से अधिक श्रम की मांग करता है। शुरूआत में संग्रहालय वाले भाग को और अधिक कसने की जरूरत थी। यहाँ रचना में लेखक की उपस्थिति अखरती है। जबकि देश में ज्यादातर लोगों का वर्तमान भी बिगड़ा जा रहा था।अथवा देश का ज्यादातर बचपन गर्मियों में गर्म रेत पर नंगे पैरों जल रहा होगा, जबकि सर्दियों में ठंठी रेत पर ठिठुर रहा होगा।जैसी टिप्पणियाँ रचना को कमजोर करती है क्योंकि कथानायक की पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में पाठक को शुरू में ही पता चल जाता है जबकि इसे कथ्य विकास के साथ धीरेधीरे पता चलना चाहिए। इन कमियों के बावजूद लघुकथा विषय की नवीनता एवं निर्वाहके कारण प्रथम स्थान पाने में सफल रही है। कथा की विषयवस्तु, लेखकीय दृष्टि एवं उसमें संबंधित विचार मिलकर धरोहरके रूप में सामने आते हैं। इस प्रकार की रचनाओं में लेखक के सृजनात्मक श्रम की आँच को महसूस किया जा सकता है।

तकनीक का धमाका (जावेद आलम) का कथानक लघुकथा के लिए उपयुक्त हैं। हवा की रफ्तार से उड़ते हुए बाइक सवार सोचता है कि लेजर पावर की किरण से आगे चल रहे बाइक सवार को जरा भी दायें तरफ खिसका दे तो वह रेलिंग में घुस जाए (पहली घटना)। अगले ही पल वह अपनी विध्वंसक सोच पर हैरान रह जाता है, ‘हे भगवान! यह मैं क्या सोच रहा था।तभी उसके पीछे चल रहा बाइक सवार लेजर पावर के जरिए उसे दायें खिसका देता है (दूसरी घटना)। एक धमाके के साथ पहले बाइक सवार की जीवन लीला समाप्त हो जाती है (चरमोत्कर्ष)। इस कथा को पढ़कर हमारा ध्यान कम्प्यूटर के सामने बैठे उन तमाम बच्चों की ओर चला जाता है जो काल्पनिक पात्रों को गोलियों से भूनते और मोटर रेस में अपने आगे चल रही गाडि़यों को नेस्तनाबूद कर गर्वित होते हैं। लेखक ने बहुत प्रभावी ढंग से पाठकों का ध्यान आने वाले संकट की ओर खींचा है।

तृतीय स्थान पर पुरस्कृत खच्चर (रविन्द बतरा) में बड़ा कालखण्ड है, कई घटनाएँ हैं। ऐसे कथानक लघुकथा के लिए आदर्श नहीं कहे जा सकते। कई घटनाओं के संक्षिप्त ब्योरों के कारण इन्हें कहानी का सार कहा जा सकता है। कथाकार इस पर सशक्त कहानी भी लिख सकता है, जबकि धरोहरएवं तकनीक का धमाकामें इस तरह के विस्तार की कोई गुंजाइश नहीं है। लघुकथा में प्रयोग की असीम संभावनाओं को देखते हुए इसे किसी चौहद्दी

में बाँधना उपयुक्त न होगा। इस कमी को लेखक ने अपने रचना कौशल से साध लिया है। रवीन्द्र बतरा ने इस बात का पूरा ध्यान रखा है कि फोकस खच्चर पर ही रहे और कथा का प्रवाह बाधित न हो। कांटेन्ट के लिहाज से इस रचना ने निर्णायकों को प्रभावित किया है। आजादी के बाद आज युवा पीढ़ी जो कुछ कर रही है, उसने हमारे राजनैतिक,सामाजिक, सांस्कृतिक एवं नैतिक मूल्यों को उहापोह की स्थिति में पहुँचा दिया है। इस दौड़ में संस्कारगत चेतना परम्परागत मूल्य बेमानी और हास्यास्पद हो गए हैं। रामलाल और उसकी पत्नी के पास उनके दोनों बेटे नहीं रहते। वे खच्चर को संतान की तरह प्यार देते है। रामलाल का शरीर जवाब दे जाता है, खच्चर की जरूरत न रहने पर भी वे उसे बेचने की नहीं सोचते और उसे अपने साथ ही रखते हैं। बेटे इस स्थिति का मखौल उड़ाते हैं। बेटों की नजर पैतृक सम्पत्ति पर है।

लघुकथा का समापन बिन्दु कहानी एवं उपन्यास की तुलना में अतिरिक्त श्रम एवं रचना कौशल की माँग करता है। लघुकथा के समापन बिन्दु को उस बिन्दु के रूप में समझा जा सकता है जहाँ रचना अपने कलेवर के मूल स्वर को कैरी करते हुए पूर्णता को प्राप्त होती है। खच्चरमें रविन्द्र बतरा इस प्रयोग में सफल हुए हैं। समापन बिन्दु से पूरी रचना संतुलित और महत्वपूर्ण हो गई हैजिन बेटों के कभी बाप की परवाह नहीं की, जो खच्चर बेचने के लिए बारबार दबाव डालते रहे, वे ही अब झगड़ रहे थे कि खच्चर की देखभाल वे ही करेंगे। लेखक ने खच्चरके माध्यम से माता पिता की सम्पत्ति पर गिद्धदृष्टि रखने वाले कपूतों की अच्छी खबर ली है।

प्रतियोगिता के जरिए चयनित ये लघुकथाएँ अपने वास्तविक निर्णायकों (पाठकों)के समक्ष प्रस्तुत हैं। लेखकों,सम्पादकों के लिए उन्हीं की टिप्पणी/प्रतिक्रिया का महत्त्व है। रचनाओं पर ऊपर की गई टिप्पणी लघुकथा के क्षेत्र में आने वाले नये लेखकों को ध्यान में रखकर की गई है। अंत में इतना ही कि लघुकथा कागज पर या पत्रपत्रिका में भले ही छोटी सी जगह लेती है लेकिन इसकी रचना प्रक्रिया बहुत जटिल है जो लेखक से अत्यधिक धैर्य,श्रम और समय की माँग करती है।