Sunday, May 13, 2007

विजेता


बाबा, खेलो न!”
“दोस्त, अब तुम जाओ। तुम्हारी माँतुम्हें ढूँढ रही होगी।”
“माँ को पता है- मैं तुम्हारे पास हूँ । वो बिल्कुल परेशान नहीं होगी। पकड़म- पकड़ाई ही खेल लो न !”
“बेटा, तुम पड़ोस के बच्चों के साथ खेल लो। मुझे अपना खाना भी तो बनाना है ।”
“मुझे नहीं खेलना उनके साथ । वे अपने खिलौने भी नहीं छूने देते ।”अगले ही क्षण कुछ सोचते हुए बोला, “मेरा खाना तो माँ बनाती है , तुम्हारी माँ कहाँ है?”
“मेरी माँ तो बहुत पहले ही मर गयी थी।” नब्बे साल के बूढ़े ने मुस्कराकर कहा ।
“बच्चा उदास हो गया। बूढ़े के नज़दीक आकर उसका झुर्रियों भरा चेहरा अपने नन्हें हाथों में भर लिया,”अब तुम्हें अपना खाना बनाने की कोई जरूरत नहीं, मै माँ से तुम्हारे लिए खाना ले आया करूँगा। अब तो खेल लो!”
“दोस्त!” बूढ़े ने बच्चे की आँखों में झाँकते हुए कहा, “अपना काम खुद ही करना चाहिए---और फिर---अभी मैं बूढ़ा भी तो नहीं हुआ हूँ---है न !”
“और क्या, बूढ़े की तो कमर भी झुकी होती है।”
“तो ठीक है, अब दो जवान मिलकर खाना बनाएँगें ।” बूढ़े ने रसोई की ओर मार्च करते हुए कहा । बच्चा खिलखिलाकर हँसा और उसके पीछे-पीछे चल दिया।
कुकर में दाल-चावल चढ़ाकर वे फिर कमरे में आ गये ।बच्चे ने बूढ़े को बैठने का आदेश दिया, फिर उसकी आँखों पर पटटी बाँधने लगा ।
पटटी बँधते ही उसका ध्यान अपनी आँखों की ओर चला गया- मोतियाबिन्द के आपरेशन के बाद एक आँख की रोशनी बिल्कुल खत्म हो गई थी। दूसरी आँख की ज्योति भी बहुत तेजी से क्षीण होती जा रही थी।
“बाबा,पकड़ो---पकड़ो!” बच्चा उसके चारों ओर घूमते हुए कह रहा था,
उसने बच्चे को हाथ पकड़ने के लिए हाथ फैलाए तो एक विचार उसके मस्तिक में कौंधा-जब दूसरी आँख से भी अंधा हो जाएगा---तब?---तब?---वह---क्या करेगा?---किसके पास रहेगा?---बेटों के पास? नहीं---नहीं! बारी-बारी से सबके पास रहकर देख लिया---हर बार अपमानित होकर लौटा है---तो फिर?---
“मैं यहाँ हूँ---मुझे पकड़ो!”
उसने दृढ़ निश्चय के साथ धीरे-से कदम बढ़ाए---हाथ से टटोलकर देखा---मेज---उस पर रखा गिलास---पानी का जग---यह मेरी कुर्सी और यह रही चारपाई---और –और---यह रहा बिजली का स्विच---लेकिन ---तब---मुझ अंधे को इसकी क्या ज़रूरत होगी?---होगी---तब भी रोशनी की ज़रुरत होगी---अपने लिए नहीं---दूसरों के लिए---मैंने कर लिया---मैं तब भी अपना काम खुद कर लूँगा!”
“बाबा, तुम मुझे नहीं पकड़ पाए---तुम हार गए---तुम हार गए!” बच्चा तालियाँ पीट रहा था।
बूढ़े की घनी सफेद दाढ़ी के बीच होंठों पर आत्मविश्वास से भरी मुस्कान थिरक रही थी।

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ऑक्सीजन

वह सड़क पर नज़रें गड़ाए बहुत ही सुस्त चाल से चल रहा था। मजबूरी में मुझे बहुत धीरे-धीरे कदम बढ़ाने पड़ रहे थे।
“भाई साहब---दो मिनट सुस्ता लें?” उसने पुलिया के नज़दीक रुकते हुए पूछा।
“हाँ---हाँ, जरूर ।” मैंने कहा।
“बहुत जल्दी थक जाता हूँ, लगता है जैसे शरीर में जान ही नहीं है।” वह निराशा से बुदबुदाया। फिर उसने एक सिगरेट सुलगा ली।
सुबह की सैर पर निकले लोग उसके सिगरेट पीने की हैरानी से देख रहे थे। तभी कुछ फौजी दौड़ते हुए हमारे सामने से गुज़रे।
“मैं आपको भी इन फौजियों की तरह दौड़ लगाते देखा करता था,” उसने कहा, “मेरी वजह से आप दौड़ नहीं पाते----।”
“नहीं---नहीं, आप गलत सोच रहे हैं,” मैंने उसकी बात काटते हुए जल्दी से कहा, “मुझे तो आपका साथ बहुत पसंद है।”
उसने मेरी ओर देखा। उसकी दाढ़ी बढ़ी हुई थी, आँखों से जीवन के प्रति घोर निराशा झाँक रही थी। चार दिन पहले गाँधी पार्क में टहलते हुए मेरा और उसका साथ हो गया था। ज़िदगी कुछ लोगों के साथ कितना क्रूर मज़ाक करती है, एक के बाद एक हादसों ने उसे तोड़कर रख दिया था।
हम फिर टहलने लगे थे, वह लगातार निराशाजनक बातें कर रहा था।
“मुझे थकान-सी महसूस हो रही है।” थोड़ी देर बाद मैंने उससे झूठ बोलते हुए कहा।
“आप थक गए? इतनी जल्दी!---मैं तो नहीं थका!!” उसकें मुँह से निकला।
“फिर भी दो मिनट बैठिए---मेरी खातिर!!”
“क्यों नहीं---क्यों नहीं!” इन चार दिनों में पहली बार उसके होंठों पर आत्मविश्वास भरी मुस्कान रेंगती दिखाई दी।
इस बार उसने सिगरेट नहीं सुलगाई बल्कि दो-तीन बार लंबी साँस खींचकर फेफड़ों में ताजी हवा भरने का प्रयास किया। थोड़ा सुस्ताने के बाद जब हम चले तो मैंने देखा, उसकी चाल में पहले जैसी सुस्ती नहीं थी।

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नंगा आदमी

आँख खुलते ही मैंने घर के सभी खिड़की-दरवाजे खोल दिए। वर्षों से बंद पड़े कमरे में हर कहीं चाँदनी छिटक गई। सात समुंदर का फैसला तय कर मुझ तक पहुँची हवा ने जैसे ही मुझे छुआ, मेरे शरीर में झुरझुरी-सी दौड़ गई। मैंने दो-तीन बार गहरी साँस ली, फिर न जाने किसे पराभूत मैंने एक-एक कर अपने सभी कपड़े उतार डाले। इनमें वे सभी पोशाकें जिन्हें मैं आज तक भिन्न-भिन्न ‘अवसरों’ पर पहनता रहा था।
मैं घर से बाहर सड़क पर आ गया । आसमान में चाँद चाँदी-सा चमक रहा था। सड़क पर खूब हलचल थी।
सबसे पहले मुझे बहुत-सी औरतें आती दिखाई दीं। हरेक की गोद में एक नन्हा सूरज था। उन नन्हें सूर्यों को अपनी जैसी हालत में देखकर मुझे खुशी हुई। उनमें से किसी ने मुझ पर धयान नहीं दिया। जब वे मेरे पास से गुज़रीं तो मैं उनके वात्सल्य की ऊष्मा में नहा गया।
सामने से लड़के-लड़कियों का झुंड चला आ रहा था।वे अपने सपनों की बातें करते हुए मेरे पास से निकल गए। कई सालों बाद मैं जाग्रत अवस्था में सपने देखने लगा।
कारखाने से लौट रहे कामगरों की आँखों में दिनभर की मेहनत से कमाई गई तृप्त थकान थी। उन्होंने भी मेरी ओर ध्यान नहीं दिया। जब वे मेरे पास से गुज़रे तो मैं पसीने से नहा गया।
आगे सड़क का सन्नाटा था। दोनों ओर के मकानों के खिड़की-दरवाजे ही नहीं रोशनदान भी मजबूती से बंद थे। बड़े-बड़े लोहे के गेटों के उस पार विदेशी नस्ल के खतरनाक कुत्ते थे, जो मुझे देखते ही ज़ोर-ज़ोर से भौंकने लगे। देखते ही देखते काँच की दीवारों के पीछे तरह-तरह की पोशाकों में लिपटे लोग नमूदार हो गए। मुझे इस हालत में देखकर उनके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। वे सब सपने अपने घरों में दुबक गए।
घर लौटने पर वर्षों बाद मीठी नींद सोया ।
सुबह खिड़की से झाँककर देखा। बाहर वही लोग जमा थे, जो रात मुझे देखकर छिप गए थे। इस समय उन सभी ने सफेद कपड़े पहन रखे थे।
मेरे बाहर आते ही उनमें से एक आगे बढ़कर आदेश्भरे अंदाज़ में बोला, “तुम ऐसा नहीं कर सकते---लो, इन्हें पहन लो।”
मैंने देखा, उसके पास वही कपड़े थे जिन्हें बीती रात उतार फेंका था।


Friday, May 11, 2007

चश्मा



“क्या तुम्हारी नज़र कमज़ोर हो गई?” मैंने अनिल को चश्मा लगाए देखा तो पूछ लिया।
“अमाँ नहीं यार---” अनिल ने हँसते हुए कहा, “यह तो बस---यूँ ही ---शौकिया, कैसा लगता है मुझ पर?---लगता हूँ न बिल्कुल किसी डॉक्टर या प्रोफेसर जैसा ”
“वास्तव में चश्मे से बहुत स्मार्ट लगने लगे हो।” मैंने कहा, “कितने रुपए खर्च हो गए---”
“मुफ्त का ही समझो। तुम्हें तो पता ही है कि पिताजी स्वतंत्रता-संग्राम सेनानी हैं। उनके लिए सरकारी खर्च से चश्मा दिए जाने के आदेश हैं। पिताजी को बहुत मुश्किल से राजी कर सका। उनको दो-तीन बार मुख्य चिकित्सा अधिकारी के पास ले जाना पड़ा। वहाँ से यह प्रमाणपत्र लेना है---सरकारी खजाने से पैसा निकलवाने के लिए इतने पापड़ तो बेलने ही पड़ते हैं,---” अनिल मुस्कराया, “आओ, बाहर धूप में बैठकर चाय पीते हैं।”
बाहर अनिल के पिताजी धूप में बैठे अखबार आँखों से सटाकर पढ़ने का प्रयास कर रहे थे। मैंने आगे बढ़कर उनके पैर छुए। उन्होंने आँखें मिचमिचाकर मेरी ओर देखा। मुझे उनका झुर्रियों से भरा चेहरा गहरी उदासी में डूबा मालूम हुआ। आँखों पर काफी ज़ोर डालने के बावजूद वह मुझे पहचान नहीं पाए।
मुझे मालूम न था कि अनिल के पिताजी की आँखें इस कदर कमज़ोर हो गई हैं। मैंने हैरानी से अनिल की ओर देखा। धूप में उसके चश्मे के फोटो-क्रोमेटिक ग्लासेस का रंग बिल्कुल काला हो गया था और अब वह किसी खलनायक जैसा दिखाई देने लगा था।

गलीज़


डार्लिग, मैं अभी पांच मिनट में डिस्ट्रिक्ट हॉस्पिट्ल से होकर आता हूँ, दीनानाथ चपरासी की हालत बहुत खराब है।”
“ओह शिट ।” पत्नी ने मेरी ओर देखकर बुरा-सा मुँह बनाया, “तुम आज फिर मेरा संडे स्पॉयल करोगे। आयम जस्ट फैडअप विद योर ऑफिसवालाज्।”
“ऑफिस का हैड होने के नाते थोड़ा दिखावा तो करना ही पड़ेगा---मैं ये गया वो आया। तुम पिकनिक के लिए तैयार रहो, हम ठीक ग्यारह बजे निकलेंगे।”
मेरा अपना मूड भी खराब हो गया था-अरे भाई, तबीयत ज्यादा खराब है तो मैं क्या करूँ। मैं इन लोगों की नस-नस से वाकिफ हूँ---रुपयों की ज़रूरत होगी---बहाने से बुला रहे हैं---साहब के पास तो रुपयों का पेड़ लगा है।
पार्किंग पर पहँचकर मैंने कार में बैठे-बैठे ही अपना बटुआ निकाला, उसमें से पाँच सौ रुपए निकालकर कमीज के ऊपर वाली जेब में रख लिए। इन लोगों के सामने सारे रुपए निकालना खतरे से खाली नहीं था।
सर्जिकल वार्ड के बेड नंबर तेरह पर दफ्तर वालों की भीड़ काई की तरह फट गई। बेड पर पड़े व्यक्ति को सिर तक चादर ओढ़ा दी गई थी---मतलब-खलास। मैंने सोचा।
“साहब हैं---साहब्।” शव के पास बैठे दीनानाथ के पिता को दफ्तर वालों ने बताया।
“हौसला रखो--- ऊपर वाले को यही मंजूर था।” मैंने हाथ जोड़ दिए।
“आप---इतने बड़े साहब---हमारे लिए कष्ट उठाए।” बूढ़ा हाथ जोड़े मेरे सामने खड़ा था। उसकी आँखों से टपकते आँसू दाढ़ी में गुम हो रहे थे। मुझे लगा, बुड्डढा अच्छी नौंटकी कर लेता है---बेटा तो चल बसा, अब मेरे आगे गिड़गिड़ाने का एक ही मतलब हो सकता है---आर्थिक मदद। मैं मन ही मन हँसा।
टैक्सी आ गई थी। दीनानाथ के बीवी-बच्चे गाँव में थे। इसलिए उसका अंतिम संस्कार भी गाँव में करने का निर्णय लिया गया था। यह सुनकर मुझे लगा। तभी एक विचार दिमाग में कौंधा-अब दीनानाथ की मृत्यु के बाद उसके पिता को दिए गए रुपयों की उम्मीद रखना तो बेवकूफी होगी। मैंने दफ्तर वालों से ‘एक्सक्यूज मी’ कहा और टॉयलेट की ओर चल दिया। वहां पहुँचकर ऊपर वाले पॉकेट में दो सौ रुपए खर्च कर देने में मुझे कोई नुकसान नज़र नहीं आया।
दीनानाथ का शव टैक्सी में रखा जा चुका था। बूढ़ा फिर मेरे पास आ खड़ा हुआ था।---अब रुपए माँगेगा---मैंने सोचा।
“बड़ी मेहरबानी!” उसने हाथ जोड़कर मेरे आगे सिर झुकाया। उसके पुराने कपड़ों से वार्ड वाली बदबू आ रही थी। मैं नाक पर रूमाल रखते-रखते रुक गया। मैंने जल्दी से हाथ जोड़ दिए। वह काँपते कदमों से टैक्सी में बैठ गया, बच्चू को रुपए माँगने की हिम्मत नहीं हुई।
टैक्सी के जाते ही मैंने घड़ी देखी, साढ़े दस बजे थे। शेव मैं सुबह ही बना चुका था, यदि नहाने का कार्यक्रम कट किया जाए तो अभी भी निर्धारित समय पर पिकनिक के लिए निकला जा सकता है। कार में बैठते ही मुझे ऊपर के पाकेट में दो सौ रुपयों का धयान आया। मैंने धीरे से जेब टटोलकर देखा- दोनों नोट सुरक्षित थे।

तोते




भंडारे का समय था। मंदिर में बहुत लोग इकट्ठे थे। तभी कहीं से तोता उड़ता हुआ आया और मंदिर की दीवार पर बैठकर बोला,”अल्लाह-हो-अकबर---अल्लाह-हो-अकबर---”
ऐसा लगा जैसे यहाँ भूचाल आ गया हो। लोग उत्तेजित होकर चिल्लाने लगे। साधु-संतों ने अपने त्रिशूल तान लिये । यह खबर आग की तरह चारों ओर फैल गई, शहर में भगदड़ मच गई, दुकानें बंद होने लगीं, देखते ही देखते शहर की सड़कों पर वीरानी-सी छा गई।
उधर मंदिर-समर्थकों ने आव देखा न ताव, जय श्री राम बोलने वाले तोते को जवाबी हमले के लिए छोड़ दिया।
शहर आज रात-भर बन्दूक की गोलियों से गनगनाता रहा। बीच-बीच में अल्लाह-हो-अकबर और जय श्री राम के उद्घोष सुनाई दे जाते थे।
सुबह शहर के विभिन्न धर्मस्थलों के आस-पास तोतों के शव बिखरे पड़े थे। किसी की पीठ में छुरा घोंपा गया था और किसी को गोली मारी गई थी ।जिला प्रशासन के हाथ-पैर फूले हुए थे। तोतों के शवों को देखकर यह बता पाना मु्श्किल था कि कौन हिन्दू है और कौन मुसलमान, जबकि हर तरफ से एक ही सवाल दागा जा रहा था-कितने हिन्दू मरे, कितने मुसलमान” जिलाधिकारी ने युद्ध-स्तर पर तोतों का पोस्टमार्टम कराया जिससे यह पता चल गया कि मृत्यु कैसे हुई है ;परंतु तोतों की हिन्दू या मुसलमान के रूप में पहचान नहीं हो पाई ।
हर कहीं अटकलों का बाज़ार गर्म था। किसी का कहना था कि तोते पड़ोसी दुश्मन देश के एजेंट थे, देश में अस्थिरता फैलाने के लिए भेजे गए थे। कुछ लोगों को हमदर्दी तोतों के साथ थी, उनके अनुसार तोतों को ‘टूल’ बनाया गया था। कुछ का मानना था कि तोते तंत्र-मंत्र,गंडा-ताबीज से सिद्ध ऐय्यार थे, यानी जितने मुँह उतनी बातें।
प्रिय पाठक पिछले कुछ दिनों से जब भी मैं घर से बाहर निकलता हूँ, गली मुहल्ले के कुछ बच्चे मुझे “तोता!---तोता!1”---कहकर चिढ़ाने लगते हैं, जबकि मैं आप-हम जैसा ही एक नागरिक हूँ ।

Thursday, May 10, 2007

गणित


भूकंप प्रभावित क्षेत्र में निरीक्षण के लिए जा रहे बड़े साहब ने सहायक अभियंता से कहा, “आपको पता ही है कि मैं कल उत्तरकाशी जा रहा हूँ। सुना है,वहाँ जबरदस्त ठंड पड़ रही है। भूकंप पीड़ितों के लिए जो बजट हमें मिला था, उसमें अभी दस हज़ार शेष हैं। इसी मद से आप मेरे लिए दस्ताने,ऊनी टोपी, सन ग्लासेस, जैकेट, स्लीपिंग बैग और दौरे में खाना गर्म रखने के लिए कैसेरोल का एक सैट खरीद लें।”
“सर!” छोटे साहब ने सकुचाने का सुंदर अभिनय करते हुए कहा, “---अगर आपकी आज्ञा हो तो मैं भी ‘एडजस्ट’ करवा लूँ।”
“ठीक है---ठीक है---” बड़े साहब ने जल्दी से कहा,---“पर देखिएगा हमारा कोई ‘आइटम’ छूट न जाए औ---र---हाँ---,जैकेट और स्लीपिंग बैग हजरतगंज की फुटपाथ पर विदेशी सामान बेचने वालों से ही खरीदिएगा, वे बिल्कुल असली माल रखते हैं।”
छोटे साहब के जाने के बाद वह काफी निश्चिन्त नज़र आ रहे थे। एकाएक उन्होंने कुछ सोचा और फिर घंटी बजाकर बड़े बाबू को बुलाया।
“बड़े बाबू!” वह गर्व से बोले-“इस महीने हमारा दो दिन का वेतन भूकंप राहत कोष में भिजवाना न भूलिएगा।”

नियम

1-सर्वाधिकार सुरक्षित हैं ।
2-बिना अनुमति के किसी भी अंश का प्रकाशन नहीं किया जा सकता ।
3-शैक्षिक उद्देश्यों के लिए सरकार से मान्यता प्राप्त संस्थाओं को अनुमति दी जा सकती है ।
4-हमारा उद्देश्य केवल सत्साहित्य का प्रचार एवं प्रसार है।
सुकेश साहनी
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घर


प्रभाकर फोन पर पेरिस की किसी फैशन डिजायनर से बात कर रहा था।
वे दोनों कोठी के बाहर खूबसूरत लान की मखमली घास पर कुर्सियाँ डालकर बैठे थे। सुबह की शीतल हवा के साथ लान के बीचोंबीच चल रहा फ़व्वारा आँखों को बहुत ठंडक पहुँचा रहा था।
रामप्रसाद ने ईर्ष्याभरी निगाह प्रभाकर की संगमरमरी महलनुमा कोठी पर डाली---उसके बचपन का दोस्त आज कितना बड़ा आदमी बन गया, यहां नौकरों के लिए बनाए गए क्वार्टर भी उसके घर से कई गुना अच्छे हैं। ---सब किस्मत का खेल है! उसने ठंडी साँस ली।
तभी प्रभाकर की पत्नी आँख मलते हुए कोठी से बाहर निकली और लान की हरी-भरी घास पर नंगे पाँव टहलने लगी।
“प्रभाकर, अब मैं वापिस जाऊँगा।” फोन पर बात खत्म होते ही उसने कहा।
“इतनी जल्दी? नहीं रामप्रसाद---मैं तुम्हें अभी नहीं जाने दूँगा। आज तुमको अपना फार्म हाउस दिखाऊँगा, अरे---कोई है!” प्रभाकर वहीं से चिल्लाया, “---बहादुर!---किशन!!---एक गिलास पानी तो लाना।”
“नहीं प्रभाकर, मेरा जाना ज़रूरी है। तुम्हारी भाभी से एक दिन का कहकर आया था, पूरे तीन दिन हो गए हैं।बच्चे भी परेशान होंगे।”
“रामप्रसाद---तुम कहाँ पड़े हो फतेहपुर में---वो भी कोई जगह है रहने की! मैं तो कहता हूँ अभी समय है---घर ज़मीन बेच-बाचकर दिल्ली आ जाओ। बच्चों का कैरियर बन जाएगा।---किशन!---ओ किशन!!” वह चीखा, “कहाँ मर गए सब के सब! जल्दी पानी लाओ---गला सूख रहा है।”
रामप्रसाद ने देखा, प्रभाकर का बेटा क्यारी के पास खड़ा लाल सुर्ख गुलाबों को बड़े प्यार से देख रहा था।
“रामू---ओ रामू! जल्दी लाओ---जल्दी !” झल्लाकर उसने मेज पर पड़ी रिमोट बैल को देर तक दबाया।
रामप्रसाद ने हैरानी से मिसेज प्रभाकर की ओर देखा, वह अपने पति की चीख-पुकार से बेखबर कैक्टस के पौधों को पानी देने में व्यस्त थी। रामप्रसाद की आँखों के आगे घर,पत्नी और बच्चे घूम गए। इतना शोर करने पर तो कई गिलास पानी उसके सामने आ जाता---पत्नी तो उसके मन की बात चुटकियों में बूझ लेती है।
एकाएक रामप्रसाद की आंखों के आगे प्रभाकर का संगमरमरी महल ताश के पत्तों से बने घर की तरह भरभराकर गिर गया।

Wednesday, May 9, 2007

आखिरी तारीख

“वर्माजी !”उसने पुकारा।
बड़े बाबू की मुद्रा में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। उनकी आँखें बंद थीं और दाँतों के बीच एक बीड़ी दबी हुई थी। ऐश-ट्रे माचिस की तीलियाँ और बीड़ी के अधजले टुकड़ों से भरी पड़ी थी।
सुरेश को आश्चर्य हुआ। द्फ्तर के दूसरे भागों से भी लड़ने-झगड़ने की आवाज़ें आ रही थीं। बड़े बाबू की अपरिवर्तित मुद्रा देखकर वह सिर से पैर तक सुलग उठा। उसकी इच्छा हुई एक मुक्का उनके जबड़े पर जड़ दे ।
“वर्माजी, आपने आज बुलाया था!” अबकी उसने ऊँची आवाज में कहा।
बड़े बाबू ने अपनी लाल सुर्ख आँखें खोल दीं। सुरेश को याद आया---पहली दफा वह जब यहाँ आया था तो बड़े बाबू के व्यवहार से बहुत प्रभावित हुआ था। तब बड़े बाबू ने आदर के साथ उसे बिठाया था और उसके पिता की फाइल ढ़ूँढ़कर सारे कागज़ खुद ही तैयार कर दिए थे। दफ्तर के लोग भी एकाग्रचित् हो काम कर रहे थे।
बड़े बाबू अभी भी उसकी उपस्थिति की परवाह किए बिना टेबल कैलेंडर पर एक तारीख के इर्द-गिर्द पेन से गोला खींच रहे थे। उसने बड़े बाबू द्वारा दायरे में तारीख को ध्यान से देखा तो उसे ध्यान आया, आज महीने का आखिरी दिन है और पिछली दफा जब वह यहाँ आया था, तब महीने का प्रथम सप्ताह था। बड़े बाबू के तारीख पर चलते हाथ से ऐसा लग रहा था मानो वे इकतीस तारीख को ठेलकर आज ही पहली तारीख पर ले आना चाहते थे।
एकाएक उसका ध्यान आज सुबह घर के खर्चे को लेकर पत्नी से हुए झगड़े की तरफ चला गया। पत्नी के प्रति अपने क्रूर व्यवहार के बारे में सोचकर उसे हैरानी हुई। अब उसके मन में बड़े बाबू के प्रति गुस्सा नहीं था बल्कि वह अपनी पत्नी के प्रति की गई ज्यादती पर पछतावा हुआ।वह कार्यालय से बाहर आ गया।

फिल्मी आँख

गुनगुनाते हुए वह बस में घुसा, एक सरसरी निगाह सवारियों पर डाली। आँखों ने जैसे ही उस लड़की के चित्र मस्तिक को भेजे, उसका दिल गाने लगा, “तू चीज बड़ी है मस्त-मस्त,तू---” अगले ही क्षण वह उस लड़की के बगल की सीट पर इस तरह सिकुड़ा बैठा था मानो उसे लड़की में कोई दिलचस्पी न हो। उसके चेहरे को देखकर कोई भी दावे के साथ कह सकता था कि वह आसपास से बेखबर किसी घरेलू समस्या के ताने-बाने सुलझाने में लगा है, जबकि वास्तव में वह मस्त-मस्त की धुन के साथ लगातार लड़की की ओर तैर रहा था।
लड़के के इस अभियान से बेखबर लड़की का सिर सामने की सीट से टिका हुआ था, आँखें बंद थीं ।
बस ने गति पकड़ ली थी। ज्यातर यात्री ऊँघ रहे थे। किसी बड़े गड्ढे की वजह से बस को जबदस्त धक्का लगा। मौके का फायदा उठाते हुए उसने अपना शरीर लड़की से सटा दिया। लड़की की तरफ से कोई प्रतिरोध नहीं हुआ । उसे हाल ही में देखी गई फिल्म के वे सीन याद आए, जिनसे हीरो और हीरोइन बस में इसी तरह एक-दूसरे पर गिरते-पड़ते प्यार करने लगते हैं। दिल की गहराइयों में वह लड़की के साथ थिरकने लगा, “खुल्लम खुल्ला प्यार करेंगे हम दोनों-- ”
लड़की बार-बार अपनी बैठक बदल रही थी, लंबी-लंबी साँसें ले रही थी, सामने की सीट से सिर टिकाए अजीब तरह से ऊपर से नीचे हो रही थी।
दो-तीन बार उसके मुँह से दबी-दबी अस्पष्ट सी आवाज़ें भी निकली थीं । यह देखकर उसे लगा,कि शायद लड़की को उसकी ये हरकतें अच्छी लग रही हैं।
लेकिन तभी ‘बस सिकनेस’ से पस्त लड़की ने जल्दी से खिड़की का शीशा खोला और सिर बाहर निकालकर उल्टियाँ करने लगी ।

अनुताप

अनुताप


“बाबूजी आइए---मैं पहुँचाए देता हूँ।”एक रिक्शेवाले ने उसके नज़दीक आकर कहा, “असलम अब नहीं आएगा।” “क्या हुआ उसको ?” रिक्शे में बैठते हुए उसने लापरवाही से पूछा। पिछले चार-पाँच दिनों से असलम ही उसे दफ्तर पहुँचाता रहा था।
“बाबूजी, असलम नहीं रहा---”
“क्या?” उसे शाक-सा लगा, “कल तो भला चंगा था।”
“उसके दोनों गुर्दों में खराबी थी, डाक्टर ने रिक्शा चलाने से मना कर रखा था,” उसकी आवाज़ में गहरी उदासी थी, “कल आपको दफ्तर पहुँचा कर लौटा तो पेशाब बंद हो गया था, अस्पताल ले जाते समय उसने रास्ते में ही दम तोड़ दिया था---।”
आगे वह कुछ नहीं सुन सका। एक सन्नाटे ने उसे अपने आगोश में ले लिया---कल की घटना उसकी आँखों के आगे सजीव हो उठी। रिक्शा नटराज टाकीज़ पार कर बड़े डाकखाने की ओर जा रहा था। रिक्शा चलाते हुए असलम धीरे-धीरे कराह रहा था।बीच-बीच में एक हाथ से पेट पकड़ लेता था। सामने डाक बंगले तक चढ़ाई ही चढ़ाई थी।एकबारगी उसकी इच्छा हुई थी कि रिक्शे से उतर जाए। अगले ही क्षण उसने खुद को समझाया था-‘रोज का मामला है---कब तक उतरता रहेगा---ये लोग नाटक भी खूब कर लेते हैं, इनके साथ हमदर्दी जताना बेवकूफी होगी--- अनाप-शनाप पैसे माँगते हैं, कुछ कहो तो सरेआम रिक्शे से उतर पड़ा था, दाहिना हाथ गद्दी पर जमाकर चढ़ाई पर रिक्शा खींच रहा था। वह बुरी तरह हाँफ रहा था, गंजे सिर पर पसीने की नन्हीं-नन्हीं बूंदें दिखाई देने लगी थीं---।
किसी कार के हार्न से चौंककर वह वर्तमान में आ गया। रिक्शा तेजी से नटराज से डाक बंगले वाली चढ़ाई की ओर बढ़ रहा था।
“रुको!” एकाएक उसने रिक्शे वाले से कहा और रिक्शे के धीरे होते ही उतर पड़ा।
रिक्शे वाला बहुत मज़बूत कद काठी का था। उसके लिए यह चढ़ाई कोई खास मायने नहीं रखती थी। उसने हैरानी से उसकी ओर देखा। वह किसी अपराधी की भाँति सिर झुकाए रिक्शे के साथ-साथ चल रहा था।

प्रतिमाएँ

उनका काफिला जैसे ही बाढ़ग्रस्त क्षेत्र के नज़दीक पहुँचा, भीड़ ने घेर लिया। उन नग-धड़ंग अस्थिपंजर-से लोगों के चेहरे गुस्से से तमतमा रहे थे। भीड़ का नेत्तृव कर रहा युवक मुट्ठियाँ हवा में लहराते हुए चीख रहा था, मुख्यमंत्री---मुर्दाबाद ! रोटी कपड़ा दे न सके जो, वो सरकार निकम्मी है! प्रधानमंत्री !---हाय!हाय!1 मुख्यमंत्री ने जलती हुई नजरों से वहां के जिलाधिकारी की ओर देखा। आनन-फानन में प्रधानमंत्री जी के बाढ़ग्रस्त क्षेत्र के हवाई निरीक्षण के लिए हेलीकाप्टर का प्रबंध कर दिया गया। वहां की स्थिति सँभालने के लिए मुख्यमंत्री वहीं रुक गए।

हवाई निरीक्षण से लौटने पर प्रधानमंत्री दंग रह गए। अब वहां असीम शांति छायी हुई थी। भीड़ का नेतृत्व कर रहे युवक की विशाल प्रतिमा चौराहे के बीचोंबीच लगा दी गई थी। प्रतिमा की आँखें बंद थी, होंठ भिंचे हुए थे और कान असामान्य रूप से छोटे थे। अपनी मूर्ति के नीचे वह युवक लगभग उसी मुद्रा में हाथ बाँधे खड़ा था। नंग-धड़ंग लोगों की भीड़ उस प्रतिमा के पीछे एक कतार के रूप में इस तरह खड़ी थी मानो अपनी बारी की प्रतीक्षा में हो। उनके रुग्ण चेहरे पर अभी भी असमंजस के भाव थे।

मुख्यमंत्री सोच में पड़ गए थे। जब से उन्होंने इस प्रदेश की धरती पर कदम रखा था, जगह-जगह स्थानीय नेताओं की आदमकद प्रतिमाएँ देखकर हैरान थे। सभी प्रतिमाओं की स्थापना एवं अनावरण मुख्यमंत्री के कर कमलों से किए गए होने की बात मोटे-मोटे अक्षरों में शिलालेखों पर खुदी हुई थी। तब वे लाख माथापच्ची के बावजूद इन प्रतिमाओं को स्थापित करने के पीछे का मकसद एकदम स्पष्ट हो गया था। राजधानी लौटते हुए प्रधानमंत्री बहुत चिंतित दिखाई दे रहे थे।

दो घंटे बाद ही मुख्यमंत्री को देश की राजधानी से सूचित किया गया-आपको जानकर हर्ष होगा कि पार्टी ने देश के सबसे महत्त्वपूर्ण एवं विशाल प्रदेश की राजधानी में आपकी भव्य,विशालकाय प्रतिमा स्थापित करने का निर्णय लिया है। प्रतिमा का अनावरण पार्टी-अध्यक्ष एवं देश के प्रधानमंत्री के कर-कमलों से किया जाएगा। बधाई !

घंटियाँ

कुछ भी कहो, गलत तरीकों से इकट्ठा किया गया रुपया फलता नहीं हैं। महेन्द्र ने अपना मग बियर से भरते हुए कहा।

बेकार की बात है, रतन ने कहा, आज ऐसे लोग ही फल-फूल रहे हैं।

मैं साबित कर सकता हूँ। जिला अस्पताल वालें। डाक्टर चंद्रा को ही ले लो। उसने गरीब मरीजों के लिए अस्पताल में आई दवाएँ बाज़ार में बेच-बेचकर खूब रुपया बटोरा था और पागलखाने में एड़िया रगड़ रहा है।

यह संयोग भी हो सकता है। रतन चिढ़कर बोला।

नरेश के बिजनेस पार्टनर नागराजन को तो भूले नहीं होंगे। उसने जिस तरह नरेश को धोखा देकर अपनी प्रोपर्टी बनाई, वो किसी से छिपा नहीं है। आज अपने दोनों बेटों से हाथ धो बैठा है।

महेन्र्द बोलता जा रहा था, पर रतन की आँखों के आगे भारत-पाकिस्तान बँटवारे का वह दिन घूमने लगा था,जब दंगों के कारण दुमेल से भागते हुए अपने पड़ोसी पंडित रामनाथ को उनके कमरे में बंद कर दिया और उनके मंदिर में लगी सोने की घंटियाँ चुराकर हिंदुस्तान भाग आया था। कमरा बंद होने के कारण रामनाथ भाग नहीं पाया था और दंगाइयों ने उसे मौत के घाट उतार दिया था। आज उसकी सुदृढ़ आर्थिक स्थिति के पीछे पंडित के मंदिर से चुराए गए सोने का बहुत योगदान था।

मैंने तो गलत तरीकों से धन बटोरने वालों को तबाह होते ही देखा है। महेन्द्र ने अपनी बात खत्म करते हुए कहा।

इतनी देर में रतन बियर के तीन मग और हलक से नीचे उतार चुका था। उसे लगा, आज महेन्द्र जानबूझकर उससे इस तरह की बातें कर रहा है।

बकवास बंद करो। एकाएक वह चिल्ला पड़ा।

महेन्द्र ने हैरानी से अपने दोस्त की ओर देखा।

लगता है---ज्यादा हो गई , चलो भीतर चलकर खाना खाते हैं। महेन्द्र कुर्सी से उठा तो उसके कोट की आस्तीनों पर लगे पीतल के बटन खनखनाए ।

रतन को लगा, महेन्द्र घंटी बजाकर उसे चिढ़ा रहा है।

हरामजादे, घंटी बजाता है। वह चीखा, उसने पूरी ताकत से एक घूँसा अपने दोस्त के जबड़े पर जड़ दिया। इसी झोंक में वह अपना संतुलन भी खो बैठा और मेज, उस पर रखे काँच के सामान समेत वहीं ढेर हो गया---पर घंटियाँ अभी उसके कानों में बज रहीं थीं।


खारा पानी

दाहिने हाथ में शकुनक-दंड [डिवाइनिंग-राड] थामे, धीरे-धीरे कदम बढ़ाते बूढ़े सगुनिया का मन काम में नहीं लग रहा था।इस जमीन पर कदम रखते ही उसकी अनुभवी आँखों ने उन पौधों को खोज लिया था, जो ज़मीन के नीचे मीठे पानी के स्रोत के संकेतक माने जाते हैं। अब बाकी का काम उसे दिखावे के लिए ही करना था। उसकी नज़र लकड़ी के सिरे पर लटकते धागे के गोले से अधिक वहाँ खड़े उन बच्चों की ओर चली जाती थी, जिनके अस्थिपंजर-से शरीरों पर मोटी-मोटी गतिशील आँखें ही उनके जीवित होने का प्रमाण थीं। कोई बड़ा-बूढ़ा ग्रामवासी वहां दिखाई नहीं दे रहा था। जहाँ तक नज़र जाती थी,मुख्यमंत्री के ब्लैक कमांडो फैले हुए थे। प्रशासन ने मुख्यमंत्री की सुरक्षा को दृष्टिगत रखते हुए वहां के वृक्षों को कटवा दिया था।

बड़ी-सी छतरी के नीचे बैठे मुख्यमंत्री उत्सुकता से सगुनिया की कार्यवाही को देख रहे थे। गृह सचिव के अलावा अन्य छोटे-बड़े अफसरों की भीड़ वहाँ मौजूद थी।

काम पूरा होते ही सगुनिया मुख्यमंत्री के नज़दीक आकर खड़ा हो गया।

तुम्हारी जादुई लकड़ी क्या कहती है। बूढ़े ने बताया।

सचिव ने खुश होकर मुख्यमंत्री को बधाई दी। मुख्यमंत्री अभी भी संतुष्ट नज़र नहीं आ रहे थे। पिछली दफा फार्म हाउस के लिए ज़मीन का चुनाव करते हुए उन्होंने पूरी सावधानी बरती थी, पानी का रासायनिक विश्लेषण भी कराया था। परीक्षण रिपोर्ट के अनुसार पानी बहुत बढ़िया था, पर फार्म हाउस के बनते-बनते ज़मीन के नीचे का पानी खारा हो गया था। हारकर उनको न्ए सिरे से फार्म हाउस के लिए मीठे पानी वाली ज़मीन की खोज करवानी पड़ रही थी।

आगे चलकर पानी खारा तो नहीं हो जाएगा? इस बार मुख्यमंत्री ने बूढ़े से पूछा।

इसके लिए ज़रूरी है कि आँसुओं की बरसात को रोका जाए। बूढ़े ने क्षितिज की ओर ताकते हुए धीरे से कहा।

आँसुओं की बरसात? सचिव चौंके।

ऐसा तो कभी नहीं सुना। मुख्यमंत्री के मुँह से निकला।

इस बरसात के बारे में जानने के लिए ज़रुरी है कि मुख्यमंत्री जी भी उसी कुँए से पानी पिएँ जिससे कि प्रदेश की जनता पीती है। कहकर बूढ़े ने शकुनक-दंड अपने कंधे पर रखा और समीपस्थ गाँव की ओर चल दिया।

खरबूजा

बड़े साहब आफिस से घर लौटे तो काफी थके हुए लग रहे थे। चपरासी ने उनके सूटकेस के साथ-साथ एक पुराना टू इन वन और प्रेशर कुकर भी भीतर रखा तो मेम साहब चौंक पड़ीं।

ये सब किसका है? उन्होंने साहब से पूछा ।

वही---चीफ साहब, वे चिढ़कर बोले, मीटिंग के बाद चलने लगा तो बोले-हमारा टू इन वन और प्रेशर कुकर कई दिनों से खराब पड़ा है, तुम्हारे शहर में अच्छी दुकानें हैं, रिपेयर कराकर भेज देना।

अपना टेप रिकार्डर भी महीनों से खराब पड़ा है, उसे भी साथ भेजना न भूलिएगा, मेम साहब ने कहा,---हाँ, याद आया, राम खिलावन पर सख्ती कीजिए---चोरी करने लगा है।

मैं आज विरमानी स्टोर्स गई थी, मैंने बातों ही बातों में उससे कहा कि मिक्सी की मरम्मत के बहुत पैसे ले लिये। तब उसने मुझे बताया कि राम खिलावन ने ही वाउचर में कुछ रुपए बढ़वाए थे।

राम खिलावन! बड़े साहब ने सख्त आवाज़ में कहा, कब से कर रहे हो चोरी?

मैं कुछ समझा नहीं, हुजूर! वह बिना घबड़ाए बोला।

विरमानी कह रहा था, तुमने उस ट्यूब लाइट वाले वाउचर में कुछ रुपए बढ़वाए थे?

अच्छा, वो राम खिलावन ने कहा, आपने उस दिन शाम को मिक्सी रिपेयर करवाने को दी थी, स्टोर बद हो चुका था इसलिए मैं मिक्सी घर ले गया था। हुजूर! मेरी घरवाली थोड़ी तेज है, पूछने लगी-यह क्या है,किसका है। मुझे सबकुछ बताना पड़ा। बस, फिर क्या था, पीछे पड़ गई । कहने लगी-साहब लोग द्फ्तर के खर्चे से न जाने क्या-क्या घर ले जाते हैं, मुझे भी एक सिलबट्टा चाहिए। हुजूर आपकी मिक्सी रिपेयर के वाउचर में उसी सिलबट्टे के लिए कुछ रुपए बढ़वाए थे। राम खिलावन ने रुककर बारी-बारी से साहब और मेम साहब की ओर देखा, फिर ढिठाई से बोला, इसे चोरी तो नहीं कहेंगे, साहब!

तू बहुत बातें बनाने लगा है। चल जा---काम कर्। इस बार बड़े साहब की आवाज़ खोखली थी।

कम्प्यूटर

पलक झपकते ही वह खूबसूरत युवती र्में तब्दील हो गया। फिर सम्मोहित कर देने वाले नारी स्वर में बोला, दो संप्रदायों की उग्र भीड़ को शांत करने के लिए पुलिस को हल्का बल प्रयोग करना पड़ा,जिसके कारण बीस लोगों को चोटें आई है। एहतियात के तौर पर शहर के बारह थाना क्षेत्रों में कर्फ़्यू लगा दिया गया है।

भीड़ से तेज भनभनाहट उभरी। नदी-नालों में बह-बहकर आ रहे अधजले शवों को लेकर जनता में भारी रोष व्याप्त्त था।

वह बिजली के बल्ब की तरह दो-तीन बार जला-बुझा, फिर गृहमंत्री के रूप में सामने आकर आवाज़ में मिश्री घोलते हुए बोला, कृपया अफवाहों पर ध्यान न दें। जहाँ तक नदी-नालों में बहकर आ रहे अधजले शवों का प्रश्न है तो कोई नई बात नहीं है। देश के कुछ भाइयों का मानना है कि अंतिम संस्कार के दौरान अधजले शव को नदी में बहा दिया जाए तो मृतात्मा को मुक्ति मिल जाती है। ये शव को इसी प्रकार के हैं। हम अपने देशवासियों की धार्मिक भावनाओं का सम्मान करते हैं।

भीड़ से फिर तेज शोर उठा।

वह बिजली की-सी तेजी से देश के सबसे बड़े शाही इमाम के रूप में बाद्ल और बोला, मैंने दंगाग्रस्त क्षेत्रों का निरीक्षण किया है, सरकार द्वारा किए जा रहे प्रयास सराहनीय हैं, आप शांति बनाए रखें ।

भीड़ के एक भाग से अभी भी रोषभरी आवाज़ें उठ रही थीं ।

देखते ही देखते वह देश के सबसे बड़े महंत के रुप में सामने आकर कहने लगा, मैंने अभी-अभी दंगाग्रस्त क्षेत्रों में रह रहे भाइयों से बातचीत की है। उनको सरकार से कोई शिकायत नहीं है।

भीड़ छँटने लगी थी।

तभी विचित्र बात हुई। राजनीतिक कारणों से सरकार बर्खास्त कर दिए जाने की बात आग की तरह चारों ओर फैल गई थी।

लोग फिर उसके सामने जमा होने लगे। इस बार वह भाई-भाई नामक फीचर फिल्म के रूप में दौड़े जा रहा था।

हमें फिल्म नहीं चाहिए! भीड़ में से किसी ने कहा।

बर्खास्त सरकार के बारे में बताओ1कोई दूसरा चिल्लाया।

धर्मस्थल के बारे में बताओ!! किसी तीसरे ने चिल्लाकर कहा।

वह उनकी चीख-चिल्लाहट की परवाह किए बिना फिल्म के रूप में दौड़ता रहा।

पढ़े-लिखे बेरोजगार युवक गुस्से में भर कर उसकी ओर बढ़ने लगे। किसी ने आगे बढ़कर उसका कान उमेठ दिया। वह अदृश्य हो गया।

खाली---खाली---एमटि---एमटि--- अब केवल उसकी खरखराती आवाज़ सुनाई दी।

क्या बकवास है एक युवक दाँत पीसते हुए चिल्लाया।

डेटा फीड करो---डेटा फीड करो---डेटा फीड करो---डेटा फीड करो---डेटा फीड ---वह किसी टेप की तरह बजने लगा।

लोग हैरान थे। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि सरकार के बर्खास्त होते ही उसे क्या हो गया है!

Monday, May 7, 2007

दीमक




“किसन !---” बड़े साहब ने चपरासी को घूरते हुए पूछा, “तुम मेरे कक्ष से क्या चुराकर ले जा रहे थे?”
“ कुछ नहीं साहब।”
“झूठ मत बको!---” बड़े साहब चिल्लाए, “चौकीदार ने मुझे रिपोर्ट किया है, तुम डिब्बे में कुछ छिपाकर ले जा रहे थे---क्या था उसमें? सच-सच बता दो नहीं तो मैं पुलिस में तुम्हारे खिलाफ---”
“नहीं---नहीं साहब! आप मुझे गलत समझ रहे हैं---” किसन गिड़गिड़ाया, “मैं आपको सब कुछ सच-सच बताता हूँ---मेरे घर के पास सड़क विभाग के बड़े बाबू रहते हैं, उनको दीमक की जरूरत थी, आपके कक्ष में बहुत बड़े हिस्से में दीमक लगी हुई है । बस---उसी से थोड़ी-सी दीमक मैं बड़े बाबू के लिए ले गया था। इकलौते बेटे की कसम !---मैं सच कह रहा हूँ ।”
“बड़े बाबू को दीमक की क्या जरूरत पड़ गई !” बड़े साहब हैरान थे।
“मैंने पूछा नहीं,” अगर आप कहें तो मैं पूछ आता हूँ ।”
“नहीं---नहीं,” मैंने वैसे ही पूछा, “---अब तुम जाओ।” बड़े साहब दीवार में लगी दीमक की टेढ़ी-मेढ़ी लंबी लाइन की ओर देखते हुए गहरी सोच में पड़ गए।
“मिस्टर रमन!” बड़े साहब मीठी नज़रों से दीवार में लगी दीमक की ओर देख रहे थे, “आप अपने कक्ष का भी निरीक्षण कीजिए, वहां भी दीमक ज़रूर लगी होगी, यदि न लगी हो तो आप मुझे बताइए, मैं यहाँ से आपके केबिन में ट्रांसफर करा दूँगा। आप अपने खास आदमियों को इसकी देख-रेख में लगा दीजिए, इसे पलने-बढ़ने दीजिए । आवश्यकता से अधिक हो जाए तो काँच की बोतलों में इकट्ठा कीजिए, जब कभी हम ट्रांसफर होकर दूसरे दफ्तरों में जाएँगे, वहाँ भी इसकी ज़ररूरत पड़ेगी।”
“ठीक है, सर! ऐसा ही होगा---” छोटे साहब बोले।
“देखिए---” बड़े साहब का स्वर धीमा हो गया-“हमारे पीरियड के जितने भी नंबर दो के वर्क-आर्डर हैं, उनसे सम्बंधित सारे कागज़ात रिकार्ड रूम में रखवाकर वहाँ दीमक का छिड़काव करवा दीजिए---न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी।”

संस्कार


उसे लगा, पिताजी अपनी भीगी आँखों से एकटक उसी की ओर देख रहे हैं। उसने सूखे तौलिए से उनकी रुग्ण,कृशकाया को धीरे-धीरे पोंछा और फिर पत्नी को आवाज दी, “सुनीता ज़रा पाउडर का डिब्बा तो देना!”
फिल्मी पत्रिका पढ़ने में तल्लीन पत्नी ने उसकी आवाज़ सुनकर बुरा-सा मुँह बनाया और फिर पाउडर का डिब्बा लेकर बेमन से उसके पास आ गई। तभी पलंग के पास पड़े मल के पाट और बलगम भरी चिलमची पर नज़र पढ़ते ही उसने जल्दी से साड़ी का पल्लू नाक पर रख लिया। उसने चिढ़े हुए अंदाज में पति को घूरा और पैर पटकते हुए लौट गई।
“बेटा,” पिता ने काँपती आवाज़ में कहा, “तुम थक गए होगे। जाओ, आराम करो। मैं तो ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि मुझे इस शरीर से जल्द से जल्द मुक्त कर दे।”
तभी नन्हा राजू अपने पिता के पास आया, पलंग के पास पड़ी बलगम भरी चिलमची उठाकर बोला, “मैं इछको बाथलूम में लख आऊँ?”
वह अपने बेटे को देखता रह गया। पत्नी भी राजू की ओर देखने लगी थी।
“जाओ---रख आओ।” उसकी आवाज़ भर्रा गई ।
“भगवान तुझ जैसा बेटा सबको दे।” वृद्घ की डबडबाई आँखें छलक पड़ी थीं, “तुझे मेरा मल-मूत्र साफ करना पड़ता है---मुझे अच्छा नहीं लगता। अपने साथ तुझे भी नरक में रगड़ रहा हूँ।”
“पिताजी, आप ऐसा क्यों सोचते हैं? यह मेरा कर्त्तव्य है। वैसे भी आजकल के हालात को देखते हुए---” रुककर उसने एक निगाह अपनी पत्नी और बाथरुम से लौटते हुए बेटे पर डाली, “मैं जो कुछ भी कर रहा हूँ---सिर्फ अपने लिए कर रहा हूँ।”
“बेटा! तुझसे जीतना मुश्किल है--- मुझे ज़रा बिठा दे।”
उसने पिता को उठाकर बैठा दिया। उसने एक हाथ से उनकी पीठ को सहारा देते हुए दूसरा हाथ गाव तकिए के लिए बढ़ाया ही था कि पत्नी लपककर उसके पास आई और उसने फुर्ती से तकिया अपने ससुर की पीठ के पीछे लगा दिया ।
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स्कूल


“तुम्हें बताया न, गाड़ी छह घंटे लेट है,” स्टेशन मास्टर ने झुँझलाते हुए कहा, “छह घंटे से पहले तो आ नहीं जाएगी----कल से नाक में दम कर रखा है तुमने !”
“बाबूजी, गुस्सा न हों,” वह ग्रामीण औरत हाथ जोड़कर बोली, “मैं बहुत परेशान हूँ, मेरे बेटे को घर से गए तीन दिन हो गए हैं---उसे कल ही आ जाना था! पहली दफा घर से अकेला बाहर निकला है---”
“पर तुमने बच्चे को अकेला भेजा ही क्यों?” औरत की गिड़गिड़ाहट से पसीजते हुए उसने पूछ लिया।
“मति मारी गई थी मेरी,” वह रुआँसी हो गई, “---बच्चे के पिता नहीं हैं। मैं दरियाँ बुनकर घर का खर्चा चलाती हूँ। पिछले कुछ दिनों से जिद कर रहा था कि कुछ काम करेगा। टोकरी-भर चने लेकर घर से निकला है----”
“घबराओ मत---आ जाएगा ” उसने तसल्ली दी।
“बाबूजी, वह बहुत भोला है। उसे रात में अकेले नींद भी नहीं आती---मेरे पास ही तो सोता है। हे भगवान !---दो रातें उसने कैसे काटी होंगी? इतनी ठंड में उसके पास ऊनी कपड़े भी नहीं हैं---” वह सिसकने लगी।
स्टेशन मास्टर फिर अपने काम में लग गया था। वह बैचेनी से प्लेटफार्म पर घूमने लगी। इस गाँव के छोटे से स्टेशन पर चारों ओर सन्नाटा और अंधकार छाया हुआ था। उसने मन ही मन तय कर लिया था कि भविष्य में वह अपने बेटे को कभी खुद से दूर नहीं होने देगी।
आखिर पैसेंजर ट्रेन शोर मचाती हुई उस सुनसान स्टेशन पर आ खड़ी हुई। वह साँस रोके , आँखें फाड़े डिब्बों की ओर ताक रही थी।
एक आकृति दौड़ती हुई उसके नज़दीक आई। नज़दीक से उसने देखा- तनी हुई गर्दन---बड़ी-बड़ी आत्मविश्वास से भरी आँखें---कसे हुए जबड़े---होठों पर बारीक मुस्कान---
“माँ तुम्हें इतनी रात गए यहाँ नहीं आना था!” अपने बेटे की गम्भीर, चिंताभरी आवाज़ उसके कानों में पड़ी।
वह हैरान रह गई। उसे अपनी आँखों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था- इन तीन दिनों में उसका बेटा इतना बड़ा कैसे हो गया?
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Sunday, May 6, 2007

शिक्षाकाल


“सर,मे आय कम इन?” उसने डरते-डरते पूछा।
“आज फिर लेट? चलो, जाकर अपनी सीट पर खड़े हो जाओ।
वह तीर की तरह अपनी सीट की ओर बढ़ा----
“रुको!” टीचर का कठोर स्वर उसके कानों में बजा और उसके पैर वहीं जड़ हो गए। तेजी से नज़दीक आते कदमों की आवाज़, “जेब में क्या है? निकालो ।”
कक्षा में सभी की नज़रें उसकी ठसाठस भरी जेबों पर टिक गई। वह एक-एक करके जेब से सामान निकालने लगा----कंचे,तरह-तरह के पत्थर, पत्र-पत्रिकाओं से काटे गए कागज़ों के रंगीन टुकड़े, टूटा हुआ इलैक्ट्रिक टैस्टर, कुछ जंग खाए पेंच-पुर्जे---
“और क्या-क्या है? तलाशी दो।” उनके सख्त हाथ उसकी नन्हीं जेबें टटोलने लगे। तलाशी लेते उनके हाथ गर्दन से सिर की ओर बढ़ रहे थे, “यहाँ क्या छिपा रखा है?” उनकी सख्त अंगुलियाँ खोपड़ी को छेदकर अब उसके मस्तिष्क को टटोल रहीं थीं ।
वह दर्द से चीख पड़ा और उसकी आँख खुल गई।
“क्या हुआ बेटा?”माँ ने घबराकर पूछा ।
“माँ, पेट में बहुत दर्द हैं” वह पहली बार माँ से झूठ बोला, “आज मैं स्कूल नहीं जाऊँगा ।”

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मैं कैसे पढ़ूँ ?


पूरे घर में मुर्दनी छा गई थी। माँ के कमरे के बाहर सिर पर हाथ रखकर बैठी उदास दाई माँ---रो-रोकर थक चुकी माँ के पास चुपचाप बैठी गाँव की औरतें । सफेद कपड़े में लिपटे गुड्डे के शव को हाथों में उठाए पिताजी को उसने पहली बार रोते देखा था----
“शुचि!” टीचर की कठोर आवाज़ से मस्तिष्क में दौड़ रही घटनाओं की रील कट गई और वह हड़बड़ा कर खड़ी हो गई।
“तुम्हारा ध्यान किधर है? मैं क्या पढ़ा रही थी----बोलो?” वह घबरा गई। पूरी क्लास में सभी उसे देख रहे थे।
“बोलो!” टीचर उसके बिल्कुल पास आ गई।
“भगवान ने बच्चा वापस ले लिया----।” मारे डर के मुँह से बस इतना ही निकल सका ।
कुछ बच्चे खी-खी कर हँसने लगे। टीचर का गुस्सा सातवें आसमान को छूने लगा।
“स्टैंड अप आन द बैंच !”
वह चुपचाप बैंच पर खड़ी हो गई। उसने सोचा--- ये सब हँस क्यों रहे हैं, माँ-पिताजी, सभी तो रोये थे-यहाँ तक कि दूध वाला और रिक्शेवाला भी बच्चे के बारे में सुनकर उदास हो गए थे और उससे कुछ अधिक ही प्यार से पेश आए थे। वह ब्लैक-बोर्ड पर टकटकी लगाए थी, जहाँ उसे माँ के बगल में लेटा प्यारा-सा बच्चा दिखाई दे रहा था । हँसते हुए पिताजी ने गुड्डे को उसकी नन्हीं बाँहों में दे दिया था। कितनी खुश थी वह!
“टू प्लस-फाइव-कितने हुए?” टीचर बच्चों से पूछ रही थी ।
शुचि के जी में आया कि टीचर दीदी से पूछे जब भगवान ने गुडडे को वापस ही लेना था तो फिर दिया ही क्यों था? उसकी आँखें डबडबा गईं। सफेद कपड़े में लिपटा गुड्डे का शव उसकी आँखों के आगे घूम रहा था। इस दफा टीचर उसी से पूछ रही थी । उसने ध्यान से ब्लैक-बोर्ड की ओर देखा। उसे लगा ब्लैक-बोर्ड भी गुड्डे के शव पर लिपटे कपड़े की तरह सफेद रंग का हो गया है। उसे टीचर दीदी पर गुस्सा आया । सफेद बोर्ड पर सफेद चाक से लिखे को भला वह कैसे पढ़े?

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पिंजरे




उसके कदमों की आहट से चौंककर नीलू ने आँखें खोलीं, उसे पहनाकर धीरे से दुम हिलाई और फिर निश्चिन्त होकर आँखें बंद कर लीं। चारों पिल्ले एक दूसरे पर गिरते पड़ते माँ की छाती से दूध पी रहे थे। वह मंत्रमुग्ध-सा उन्हें देखता रहा।
नीलू के प्यारे-प्यारे पिल्लों के बारे में सोचते हुए वह सड़क पर आ गया। सड़क पर पड़ा टिन का खाली डिब्बा उसके जूते की ठोकर से खड़खड़ाता हुआ दूर जा गिरा । वह खिलखिलाकर हँसा। उसने इस क्रिया को दोहराया, तभी उसे पिछली रात माँ द्वारा सुनाई गई कहानी याद आ गई, जिसमें एक पेड़ एक धोबी से बोलता है, “धोबिया, वे धोबिया! आम ना तोड़----” उसने सड़क के दोनों ओर शान से खड़े पेड़ों की ओर हैरानी से देखते हुए सोचा---पेड़ कैसे बोलते होंगे,---कितना अच्छा होता अगर कोई पेड़ मुझसे भी बात करता! पेड़ पर बैठे एक बंदर ने उसकी ओर देखकर मुँह बनाया और फिर डाल पर उलटा लटक गया। यह देखकर वह ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगा।
खुद को स्कूल के सामने खड़ा पाकर वह चौंक पड़ा। घर से स्कूल तक का लम्बा रास्ता इतनी जल्दी तय हो गया, उसे हैरानी हुई । पहली बार उसे पीठ पर टँगे भारी बस्ते का ध्यान आया। उसे गहरी उदासी ने घेर लिया। तभी पेड़ पर कोयल कुहकी। उसने हसरतभरी नज़र कोयल पर डाली और फिर मरी-मरी चाल से अपनी कक्षा की ओर चल दिया।
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ठंडी रजाई



कौन था ?” उसने अँगीठी की ओर हाथ फैलाकर तापते हुए पूछा ।
“वही, सामने वालों के यहाँ से,” पत्नी ने कुढ़कर सुशीला की नकल उतारी, “बहन, रजाई दे दो, इनके दोस्त आए हैं।” फिर रजाई ओढ़ते हुए बड़बड़ाई, “इन्हें रोज़-रोज़ रजाई माँगते शर्म नहीं आती। मैंने तो साफ मना कर दिया- आज हमारे यहाँ भी कोई आने वाला है।”
“ठीक किया।” वह भी रजाई में दुबकते हुए बोला, “इन लोगों का यही इलाज है ।”
“बहुत ठंड है!” वह बड़बड़ाया।
“मेरे अपने हाथ-पैर सुन्न हुए जा रहे हैं।” पत्नी ने अपनी चारपाई को दहकती अँगीठी के और नज़दीक घसीटते हुए कहा ।
“रजाई तो जैसे बिल्कुल बर्फ हो रही है, नींद आए भी तो कैसे!” वह करवट बदलते हुए बोला ।
“नींद का तो पता ही नहीं है!” पत्नी ने कहा, “इस ठंड में मेरी रजाई भी बेअसर सी हो गई है ।”
जब काफी देर तक नींद नहीं आई तो वे दोनों उठकर बैठ गए और अँगीठी पर हाथ तापने लगे।
“एक बात कहूँ, बुरा तो नहीं मानोगी?” पति ने कहा।
“कैसी बात करते हो?”
“आज जबदस्त ठंड है, सामने वालों के यहाँ मेहमान भी आए हैं। ऐसे में रजाई के बगैर काफी परेशानी हो रही होगी।”
“हाँ,तो?” उसने आशाभरी नज़रों से पति की ओर देखा ।
“मैं सोच रहा था---मेरा मतलब यह था कि---हमारे यहाँ एक रजाई फालतू ही तो पड़ी है।”
“तुमने तो मेरे मन की बात कह दी, एक दिन के इस्तेमाल से रजाई घिस थोड़े ही जाएगी,” वह उछलकर खड़ी हो गई, “मैं अभी सुशीला को रजाई दे आती हूँ।”
वह सुशीला को रजाई देकर लौटी तो उसने हैरानी से देखा, वह उसी ठंडी रजाई में घोड़े बेचकर सो रहा था । वह भी जम्हाइयाँ लेती हुई अपने बिस्तर में घुस गई । उसे सुखद आश्चर्य हुआ, रजाई काफी गर्म थी।
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ग्रहण


पापा राहुल कह रहा था कि आज तीन बजे---” विक्की ने बताना चाहा ।
“चुपचाप पढ़ो!” उन्होंने अखबार से नजरें हटाए बिना कहा, “पढ़ाई के समय बातचीत बिल्कुल बंद !”
“पापा कितने बज गए?” थोड़ी देर बाद विक्की ने पूछा।
“तुम्हारा मन पढ़ाई में क्यों नहीं लगता? क्या ऊटपटांग सोचते रहते हो? मन लगाकर पढ़ाई करो, नहीं तो मुझसे पिट जाओगे।”
विक्की ने नजरें पुस्तक में गड़ा दीं ।
“पापा! अचानक इतना अँधेरा क्यों हों गया है?” विक्की ने ख़िड़्की से बाहर ख़ुले आसमान को एकटक देख़ते हुए हैरानी से पूछा। अभी शाम भी नहीं हुई है और आसमान में बाद्ल भी नहीं हैं! राहुल कह रहा था---”
“विक्की!!” वे गुस्से में बोले-ढेर सारा होमवर्क पड़ा है और तुम एक पाठ में ही अटके हो!”
“पापा, बाहर इतना अँधेरा---” उसने कहना चाहा ।
“अँधेरा लग रहा है तो मैं लाइट जलाए देता हूँ। पाँच मिनट में पाठ याद न हुआ, तो मैं तुम्हारे साथ सुलूक करता हूँ?”
विक्की सहम गया। वह ज़ोर-ज़ोर से याद करने लगा, “सूर्य और पृथ्वी के बीच में चंद्र्मा आ जाने से सूर्यग्रहण होता है---सूर्य और पृथ्वी के बीच---”

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Saturday, May 5, 2007

बोन्जाई



मम्मी जाने दो न !” मिक्की ने छटपटाते हुए कहा, “ मैदान में सभी बच्चे तो खेल रहे हैं!”
“कहा न, नहीं जाना ! उन गंदे बच्चों के साथ खेलोगे?”
“मम्मी ----वे गंदे नहीं हैं”, फ़िर कुछ सोचते हुए बोला, “ अच्छा---घर के बाह्रर सेठ अंकल के बरामदे में तो खेलने दो—“
“नहीं---सामने बिजी रोड है, किसी गाड़ी की चपेट में आ जाओगे।“ मिसेज आनंद ने निर्णायक स्वर में कहा, “ तुम्हें ढेरों गेम्स लाकर दिए हैं, कमरे में बैठकर उनसे खेलो ।”
“मिक्की !” ड्राइंग रूम से मिस्टर आनंद ने आवाज दी।
“जी ---पापा।”
“कम हिय…।”
ड्राइंग रूम के बाहर मिक्की ठिठक गया। भीतर पापा के मित्र बैठे हुए थे। वह दाँतों से नाखून काटते हुए पसीने-पसीने हो गया।
उसने झिझकते हुए ड्राइंग रूम में प्रवेश किया।
“माय---सन!”आनंद साहब ने अपने दोस्त को गर्व से बताया।
“हैलो यंग मैन,” उनके मित्र ने कहा,” हाऊ आर यू?”
“ज---जा---जी ई!” मिक्की हकलाकर रह गया। उसे पापा पर बहुत गुस्सा आया- क्या वह कोई नुमाईश की चीज है, जो हर मिलने वाले से उसका इस तरह परिचय करवाया जाता है ।
मिस्टर आनंद फ़िर अपने मित्र के साथ बातों में व्यस्त हो गए थे। गमले में सजाए गए नींबू के बोंजाई के पास खड़ा मिक्की खिड़की से बाहर मैदान में क्रिकेट खेल रहे बच्चों को एकटक देख रहा था ।

Thursday, May 3, 2007

अन्तर्राज्यीय लघुकथा सम्मेलन


अन्तर्राज्यीय लघुकथा सम्मेलन


पंजाबी साहित्य अकादमी,लुधियाना एवं त्रैमासिक पत्रिका ‘मिन्नी’ के संयुक्त तत्त्वाधान में 15 अप्रैल 2007 को पंजाबी साहित्य अकादमी के सभागार में लघुकथा सम्मेलन का शुभारम्भ हुआ । अकादमी के अध्यक्ष डा॰सुरजीत पातर ,महासचिव श्री रविन्दर भट्टल डा॰अरुण मित्रा (मुख्य अतिथि) , श्री भगीरथ (कोटा) ,श्री सूर्य कान्त नागर (इन्दौर) ,श्री सुकेश साहनी (बरेली),श्री श्याम सुन्दर अग्रवाल (कोटकपूरा), डा॰श्याम सुन्दर ‘दीप्ति’ (अमृतसर) मंच पर उपस्थित थे ।इनके अतिरिक्त देश के विभिन्न भागों से आए हिन्दी एवं पंजाबी के कथाकार -समीक्षक मौजूद थे ।इनमे थे –सर्वश्री सुभाष नीरव ,बलराम अग्रवाल (दिल्ली) सुरेश शर्मा (इन्दौर) ,अशोक भाटिया (करनाल) , डा॰सुरेन्द्र मंथन (बंगा) , डा॰अनूप सिंह(बटाला),हरभजन सिंह खेमकरणी(अमृतसर), विक्रमजीत सिंह ‘नूर’(गिद्द्ड़बाहा),सुरिन्दर कैले (ठक्करवाल), रत्नेश (चंडीगढ़) ,जसवीर चावला ,हरप्रीत राणा निरंजन बोहा,रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ आदि। इस सम्मेलन की अध्यक्षता की सुप्रसिद्ध पजाबी कवि एवं पंजाबी साहित्य अकादमी के अध्यक्ष डा॰सुरजीत सिंह पातर ने । हिन्दी –पंजाबी का यह सम्मेलन श्री श्याम सुन्दर अग्रवाल एवं डा॰श्याम सुन्दर ‘दीप्ति’के प्रयासों से निरन्तर 18-19 वर्षों से आयोजित किया जा रहा है । यह सम्मेलन हिन्दी एवं पंजाबी का संयुक्त प्रयास होने के कारण दिल्ली , पंजाब ( अमृतसर ,कोटकपूरा,मोगा ,कपूरथला,बटाला) हरियाणा (सिरसा , करनाल) ,हिमाचल(डलहौजी) उत्तर प्रदेश(बरेली) आदि विभिन्न स्थानों पर आयोजित हो चुका है ।इस सम्मेलन का उद्देश्य है हिन्दी –पंजाबी भाषा के लेखकों के अलावा अन्य भारतीय भाषाओं के लेखकों को एक- दूसरे के निकट लाना और एक साझी लेखकीय समझ और विचार –विमर्श को विकसित करना ।
डा॰सुरजीत पातर ने विश्व लघुकथा संग्रह ‘मिन्नी कहाणी दा संसार’ या । जसवीर चावला की दो हिन्दी पुस्तकों- ‘सच के सिवा’ और ‘आतंकवादी’ का विमोचन किया गया ।

डा॰कुलदीप सिंह ‘दीप’और डा॰अनूप सिंह ने पजाबी-हिन्दी लघुकथाओं का विश्लेषण करते हुए वर्तमान सामाजिक सरोकारों की ज़रूरत पर बल दिया,। डा॰दीप ने ‘मिन्नी कहाणी दे ग्लोबली सरोकार’ में खुले बाज़ार के समर्थन एवं विकास के छद्म प्रचार को रेखांकित करते हुए आने वाले ख़तरों से आगाह किया कि यह सब नियोजित ढंग से किया जा रहा है ,आने वाले समय में जिसके दुखद परिणाम होंगे । लघुकथाओं के सन्दर्भ में डा॰दीप ने अपनी बात की पुष्टि की ।इनमें सूर्यकान्त नागर (प्रदूषण) ,निरंजन बोहा (शीशा) ,धरम पाल साहिल (सोच) ,विक्रम सोनी (छित्तर की जात-जूते की जात) श्याम सुन्दर अग्रवाल (रांग नम्बर) आदि का उल्लेख किया ।
इसी क्रम में डा॰अनूप सिंह ने लघुकथा के विषय एवं रूप पक्ष पर अपनी सधी हुई भाषा में विचार व्यक्त किए । डा॰ सिंह ने विश्व की विभिन्न भाषाओं के उदाहरण देकर अपनी बात की पुष्टि की ।उन्होंने दो टूक शब्दों में कहा-भाषण , दोस्तों के साथ की गई गपशप लघुकथा का विषय नहीं बन सकते हैं । चुश्त संवाद एवं व्यंग्य की विशिष्टता रचना को प्रभावशाली बनाने में सहायक होते हैं।
तत्पश्चात डा॰ अशोक भाटिया , सुभाष नीरव निरंजन बोहा ,सूर्यकान्त नागर सुकेश साहनी , बलराम अग्रवाल ने अपने विचार प्रकट किए । सुभाष नीरव ने वाह ! से आह ! तक विस्तार पाने वाले बाज़ारवाद के भयावह परिणाम से सचेत किया । लघुकथाओं में इन नवीन विषयों की प्रस्तुति पर संतोष प्रकट किया ।
श्री सुकेश साहनी ने आज विश्व लघुकथा की विमोचित पुस्तक ‘ मिन्नी कहाणी दा संसार’ पर अपने विचार प्रकट किए ।उन्होंने कहा-दीप्ति-अग्रवाल एवं नूर द्वारा सम्पादित इस पुस्तक में विश्व भर की चुनी हुई श्रेष्ठ रचनाएँ आश्वस्त करती हैं कि लघुकथाओं का भविष्य उज्ज्वल है।लघुकथाओं में पिछले तीस वर्षों से परिवर्तन देखने को मिलता है । सजग लेखक भविष्यद्रष्टा होता है ।समय की पदचाप उसकी रचनाओं मे महसूस होने लगती है ।रचना का सन्देश महत्त्वपूर्ण होता है। यदि ऐसी रचना शिल्प के स्तर पर कमज़ोर है तो उस पर मेहनत करने की ज़रूरत है ।
डा॰सूर्यकान्त नागर ने सचेत किया कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ अपने उत्पादों के साथ अपने विचारों को भी हमारे मन-मस्तिष्क पर थोप रही हैं। रचना कला एवं रचनात्मक कल्पना के साथ हमारे सामने आए। रचना में जो कुछ अनकहा होता है , वही रचना की सबसे बड़ी ताकत है।
इस अवसर पर श्री भगीरथ को उनके लघुकथा में किए गए अवदान के लिए सम्मानित किया गया ।इसी अवसर पर पंजाबी लघुकथा प्रतियोगिता के विजेताओं को भी पुरस्कृत किया गया ।
डा॰सुरजीत पातर ने विश्व लघुकथा संग्रह ‘मिन्नी कहाणी दा संसार’ का विमोचन किया । जसवीर चावला की दो हिन्दी पुस्तकों- ‘सच के सिवा’ और ‘आतंकवादी’ का विमोचन भी इस अवसर पर किया गया ।डा॰पातर ने
अपने अध्यक्षीय भाषण में डा॰सुरजीत पातर ने कहा-‘सरल लिखना बहुत कठिन है (सोखा लिखणा बहुत ओखा) हमारे जीवन की हर छोटी-बड़ी घटना-बात का बहुत महत्त्व होता है ।हम समाज को बदल पाएँ या न बदल पाएँ ;हमें कोशिश तो ज़रूर करनी चाहिए। डा॰पातर ने जलते पेड़ की आग बुझाने का असफल प्रयास करने वाली चिड़िया का उदाहरण देकर अपने विचार को रेखांकित किया।सबके अनुरोध पर डा॰पातर ने मधुर स्वर में ‘कभी दरिया इकल्ला तै नहीं करदा दिशा अपणी’ ग़ज़ल सुनाई ,जिसके प्रभावशाली अशआर ने श्रोताओं को भाव –विभोर कर दिया।कार्यक्रम का संचालन डा॰ श्यामसुंदर ‘दीप्ति’ ने किया ।श्री श्याम सुन्दर अग्रवाल के धन्यवाद ज्ञापन के साथ कार्यक्रम सम्पन्न हुआ ।

प्रस्तुति:- रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
प्राचार्य
केन्द्रीय विद्यालय आयुध उपस्कर निर्माणी
हज़रतपुर ज़ि0 फ़ीरोज़ाबाद (उतर प्रदेश) 283103



बैल


वह फूट फूटकर रोने लगा ।
“इसके दिमाग में गोबर भरा है गोबर” -विमला ने मिक्की की किताब को मेज पर पटका और पति को सु्नाते हुए पिनपिनाई , ‘मुझसे और अधिक सिर नहीं खपाया जाता इसके।मिसेज आनन्द का बंटी भी तो पांच साल का ही है, उस दिन किटी पार्टी में उन्होंने सबके सामने उससे कुछ क्वेश्चन पूछे---वह ऐसे फटाफट अंग्रेजी बोला कि हम सब देखती रह गईं। एक अपने बच्चे हैं---’’
“ मिक्की! इधर आओ।’’
वह किसी अपराधी की तरह अपने पिता के पास आ खड़ा हुआ ।
“हाउ इज़ फूड गुड फार अस? जवाब दो बोलो।”
“इट मेक्स अस स्ट्रांग, एक्टिव एंड हैल्पस अस टू----टू---टूऊ ”
“क्या टू - टू लगा रखी है! एक बार में क्यों नहीं बोलते?” उसने आँखें निकालीं, “एंड हैल्प्स अस टू ग्रो।”
“ इट मेक्स असटांग---” वह रुआँसा हो गया।
“ असटांग !! यह क्या होता है, बोलो----‘ स्ट्रोंग’----‘ स्ट्रोंग’----तुम्हारा ध्यान किधर रहता है---हँय ?” उसने मिक्की के कान उमेठ दिए।
“इट मेक्स स्टांग---” उसकी आंखों से आँसू छलक पड़े।
“यू-एस---‘अस’ कहाँ गया । खा गए ! ” तड़ाक से एक थप्पड़ उसके गालों पर जड़ता हुआ वह दहाड़ा, “ मैं आज तुम्हें छोड़ूँगा नहीं---”
“फूड स्टांग अस---”
“क्या ? वह मिक्की को बालों से झिंझोड़ते हुए चीखा ।
“ पापा ! मारो नहीं---अभी बताता हूँ---बताता हूँ --- स्ट्रोंग ---फूड---अस---इट---हाऊ---इज़---” वह फूट फूटकर रोने लगा ।
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परिचय



जन्म-5सितम्बर ,1956 जन्म स्थान:लखनऊ(उत्तर प्रदेश)
शिक्षा :एम एस सी (जियोलाजी) ,डी आई आई टी(एप्लाइड हाइड्रोलोजी) मुम्बई से ।
सृजन :उपन्यास ,कहानी ,लघुकथा ,बालकथा आदि विधाओं में ।
प्रकाशन :रचनाएँ देश की विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में । चर्चित लघुकथा संग्रह ‘डरे हुए लोग’ पंजाबी ,गुजराती ,मराठी एवं अंग्रेज़ी में भी प्रकाशित ।‘ठण्डी रज़ाई’ (अंग्रेज़ी ,पंजाबी) ,अनेक लघुकथाएँ जर्मन भाषा में अनूदित ,मैग्मा और अन्य कहानियाँ(इस संग्रह की कहानी जर्मन में अनूदित एवं चर्चित। अनुवाद :ख़लील ज़िब्रान की लघुकथाएँ ।
सम्पादन ;आयोजन ,वह पवित्र नगर ,स्त्री-पुरुष सम्बन्धों की लघुकथाएँ ,महानगर की लघुकथाएं ,देह व्यापार की लघुकथाएं ।बीसवीं सदी प्रतिनिधि लघुकथाएँ ।
‘रोशनी’ कहानी पर दूरदर्शन के लिए टेलीफ़िल्म ।
सम्प्रति:भूगर्भ जल विभाग में हाइड्रोलोजिस्ट ।
सम्पर्क : 193/21 ,सिविल लाइन्स ,बरेली -243001 (भारत)। ई
mailto:मेलsahnisukesh@gmail.com दूरभाष :05813297904